केरल के अधिकांश लोगों की मातृभाषा मलयालम है। मलयालम को अपनी जन्मभूमि के नाम के आधार पर कई लोग केरली भाषा भी कहते हैं। यद्यपि केरली भाषा अपनी बड़ी बहन तमिल भाषा के बराबर अत्यधिक पुरानी अथवा प्राचीनतम भाषा नहीं मानी जाती है और उसका स्वतंत्र अस्तित्व केवल 900 ई० के करीब ही साबित किया जा सकता है, तो भी उसका व्याकरण और शब्द- समूह तमिल की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक एवं सर्वागसंपूर्ण हैं। दक्षिण भारत की प्राचीन द्राविड़-भाषा के कुल में जन्म लेने पर भी मलयालम पर अपनी जननी की अपेक्षा धात्री ‘संस्कृत-भाषा’ का बहुत अधिक प्रभाव दिखाई पड़ता हैं। प्राचीन मलयालम में भी उत्तर भारत की कई प्रमुख भाषाओं की तरह संस्कृत के सैकड़ों शब्द अपने तत्सम ओर तद्भव रूपों में पाये जाते हैं ।
केरल की भाषा का परिचय – मलयालम भाषा का इतिहास
भाषा-विज्ञान के विद्वानों के बीच में मलयालम भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रधानतः दो प्रकार के मत प्रचलित हैं। एक मत यह है कि प्राचीन काल में मलयालम नामक कोई भाषा नहीं थी ओर उन दिनों केरल में प्रचलित भाषा का नाम “मलयामतमिल” था, जिससे यही मानना पड़ता है कि मलयालम तमिल भाषा से उत्पन्न एक बोली मात्र थी, जिसका आगे चलकर इतना अच्छा विकास हो गया कि उसे एक अलग स्वतन्त्र भाषा का स्थान प्राप्त हुआ। इस मत का समर्थन विशप कालडवल, ए० आर० राजराज वर्मा आदि विद्वानों ने किया है। लेकिन आधुनिक विद्वानों का मत यही है कि मलयालम भी पहले से ही तमिल की तरह एक स्वतन्त्र भाषा रही थी और उसकी उत्पत्ति भी मूल द्राविड़ भाषा से ही हुई हैं। तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि की तरह मलयालम भी द्राविड़ भाषा को ही सर्वथा अपनी जननी मान सकती है। इस मत का समर्थन अनेक प्रमाण पेश करते हुए खूब किया जा चुका है। इसलिए इसी को ज़्यादा सही मानना उचित प्रतीत होता है।
तमिल और मलयालम तुलनात्मक अध्ययन करने से यह विदित होगा कि इन दोनों भाषाओं के व्याकरण शब्द भंडार और मुहावरों में बड़ी समानता पाई जाती है। इसलिए विद्वानों के मन में यह भ्रम उत्पन्न होने की संभावना है कि मलयालम तमिल कि ही एक शाखा अथवा बोली मात्र है। लेकिन मलयालम में प्रचलित कई प्राचीन शब्द जैसे तुन्नलकारन, पीटिक, अडडाटि, अळियन, पत्तायम, ईटु, तोणि, पांव, पुलरि आदि इस भ्रम को दूर करने के लिए पर्याप्त है। क्योंकि इनके प्रयोग प्राचीनतम द्रविड़ भाषा को छोड़कर अन्यंत्र कहीं नहीं मिलते। इसी तरह तमिल में क्रियाओं का प्रयोग लिंग वचनों के जिन नियमों के अनुसार किया जाता है, उनका पालन मलयालम में बिल्कुल नहीं होता है। मलयालम में क्रियाओं का रूप केवल काल-भेद के अनुसार बदलता है, न कि कर्त्ता के लिंग-वचन के आधार पर। यह विशेषता मलयालम
भाषा की अपनी चीज़ है, जिसका अस्तित्व कदाचित प्राचीन
“द्राविड़ भाषा ” में रहा होगा। अतः मलयालम को तमिल की शाखा अथवा बोली मानने की अपेक्षा बहन मानना ठीक होगा। आर्यो के सम्पर्क में आने से संस्कृत भाषा के प्रभाव के कारण मलयालम का प्राचीन रूप बिलकुल बदल गया और मणिप्रवालम नामक नयी संस्कृत-मिश्रित शैली का प्रचार बढ़ गया। मलयालम का आधुनिक रूप इसी “मणिप्रवालम’ शैली से संपूर्ण रूप से प्रभावित है। अतः वर्तमान मलयालम में संस्कृत के सैकड़ों शब्द ओर प्रयोग प्रचलित हैं।
केरल की भाषाइसमें सन्देह नहीं कि मलयालम के विकास में तमिल और संस्कृत भाषाओं का प्रभाव बहुत पड़ा है। इसी प्रकार अरबी और फारसी के कई शब्द भी मलयालम में पाये जाते हैं, क्योंकि अरब ओर फारस के साथ केरल का व्यापार बहुत प्राचीन काल में भी होता रहता था और उन व्यापारियों की भाषाओं का थोड़ा-बहुत प्रभाव मलयालम पर अवश्य पड़ता था। आगे चलकर मैसूर के हैदर अली, टीपू सुलतान आदि मुसलमान शासकों के आक्रमणों के कारण भी मलयालम भाषा पर उर्दू का थोड़ा-बहुत प्रभाव अवश्य पड़ा है। इसलिए आधुनिक मलयालम में उर्दू, अरबी ओर फारसी के कई शब्द अपने तत्सम ओर तदभव रूपों में प्रचलित हैं। अंग्रेजों के शासन-काल में मलयालम भाषा का विकास विशेष रूप से हुआ है। उस यग में भाषा की रचना-शैली तथा नये-नये शब्दों के प्रयोग में जो विशेष क्रान्ति हुई है उसका महत्व अवश्य उल्लेखनीय है। इस प्रकार मलयालम भाषा सदा प्रगतिशील एवं परिवर्तनशील रही है, जिससे उसका विकास प्रत्येक युग में थोड़ा-बहुत अवश्य होता रहा है।
मलयालम भाषा की वर्णमाला संस्कृत के बराबर ही है। दो-चार वर्ण अधिक भी मिलते है। मलयालम की अपनी अलग लिपियां भी हैं, जो अत्यन्त सुन्दर और संपूर्ण हैं। यद्यपि नागरी लिपियां मलयालम भाषा की निजी लिपियों की तरह संपूर्ण नहीं हैं तो भी उनके सहारे से भी मलयालम भाषा अच्छी तरह लिखी ओर पढ़ी जा सकती है। लेकिन मलयालम के दो-चार वर्णों के लिए नागरी लिपियों में कुछ विशेष प्रकार के चिन्हों का उपयोग करना भी पड़ेगा। अतः भारत की राष्ट्रलिपि अथवा सामान्य लिपि के रूप में नागरी लिपियों को अपनाने के प्रस्ताव का विरोध शायद ही मलयालम के भक्त लोग करेंगे। केरल के कई वर्तमान प्रगतिशील एवं विकासोन्मृुख विचार वाले साहित्यकारों तथा भाषा-प्रेमियों ने भारत की सामान्य-लिपि के रूप में नागरी लिपियों को स्वीकार करने के उपयोगी एवं महत्व पूर्ण प्रस्ताव का दिल से समर्थन भी अवश्य किया है।
लोकगीतों में मलयालम
मलयालम का प्राचीनतम साहित्य ‘लोकगीतों ‘ का मानता जाता है। लोकगीतों की भाषा आधुनिक मलयालम से एकदम भिन्न थी। उस समय की भाषा का नाम भी दूसरा था, क्योंकि मलयालम का स्वतंत्र सुन्दर रूप उन गीतों में पूर्ण रूप से प्रकट नहीं हुआ था। उन दिनों की उस भाषा को “मलयामतमिल ” कहते थे। कुछ लोगों का कहना है कि वह तमिल भाषा की एक प्रादेशिक बोली मात्र थी। लेकिन वास्तव में मलयाम-तमिल में रचे उन प्राचीन गीतों में तमिल भाषा से बहुत कुछ भिन्न एक स्वतंत्र प्रकार की बोली का विकासोन्मुख रूप अवश्य प्राप्त होता है, जिसका नाम ही आगे चलकर मलयालम पड़ा था। अतः उन लोकगीतों को यदि मलयालम के ,प्रेमी ऐतिहासिक विद्वान मलायलम की प्राचीन सम्पत्ति बताते हैं तो तमिल के अनन्य आराधक उन्हें अपनी भाषा की पुरानी पूंजी मानते का दावा भी अवश्य करते हैं। वे लोकगीत तत्कालीन किसान रमणियों के गाने के लिए रचे गये थे जिनमें केरल के प्रकृति-सौन्दर्य, प्रेम, विरह, विनोद आदि के मनोज्ञ एवं मधुर वर्णन मिलते हैं। लेकिन उन गीतों का कोई अच्छा प्रामाणिक संग्रह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ हैं। केवल देहाती लोग उन्हें गाया करते हैं।
केरल की मलयालम भाषा का साहित्य में योगदान
मलयालम साहित्य का स्वर्णयुग महाकवि “तुंचत्तु रामानुजन एषृत्तच्छन अथवा “तुंचन् के समय से प्रारंभ होता है। “एषृत्तच्छन ” का संकेतार्थ गुरु अथवा आचार्य है क्योंकि “एषृटत्तु” माने “लेख” और “अच्छन” माने “पिता” अर्थात् “शिक्षा देनेवाले पिता या “गृरु’ के अर्थ में ही ‘एषृत्तच्छन’ का प्रयोग किया गया है। वास्तव में मलयालम की वर्णमाला, लिपियों और भाषा के प्रयोगों की नवीन शैली आदि के जन्मदाता एवं प्रचरक महाकवि तुंचन ही थे। उनकी प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय रचना “अध्यात्म रामायण” नामक प्रबन्ध काव्य है। उस काव्य को मलयालम में “एषृत्तच्छन- रामायणम ” भी कहा करते हैं। उनकी रामायण का पाठ केरल के प्रत्येक घर में बड़ी भक्ति और श्रद्धा के साथ किया जाता है। वे परम भक्त ओर सदाचारी विद्वान थे। उनकी दृष्टि में राम, कृष्ण, शिव, ब्रह्मा आदि सब देवता समान थे। सब की ,आराधना और प्रशंसा उन्होंने अपने काव्यों में अवश्य की है। वे बड़े दार्शनिक ओर स्वतंत्र विचारक थे। उनके रचे अनेक काब्यों में रामायणम् , ‘भारतम् ,, ‘श्रीमद्भागवतम् , “चिन्तारत्लम् , हरिनाम कीर्तनम् , “ब्रह्माण्ड पुराणम् , “देवी महात्म्यम् आदि बहुत प्रसिद्ध हैं।
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