दिल्ली में विश्व प्रसिद्धकुतुबमीनार स्तम्भ के समीप ही कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद है। इसे कुव्वतुल-इस्लाम मसजिद (इस्लाम की ताक़त वाली) अथवा बड़ी मस्जिद कहते हैं। कुतुब मीनार से मिला हुआ डाक बंगला है। डाक बंगला होकर बड़ी मसजिद में जाने के लिये मार्ग है। मस्जिद के तीन भाग हैं। कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद को कुतुबउद्दीन ऐबक ने 1191 ई० में बनवाना आरम्भ किया था। उसके पास अपने कारीगर नहीं थे इसलिये उसने पृथ्वीराज के लाल कोट बनाने वाले राजगीरों (हिन्दुओं) को काम पर लगाया।
चौकोर पत्थर के स्तम्भ जो कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद दिल्ली में लगे हुये है वह हिन्दू मन्दिरों के खम्भे हैं पर मस्जिद के पश्चिमी किनारे पर वह नुकीले मेहराब अफ़गानिस्तान की मस्जिदों की भांति बनवाना चाहता था। हिन्दू शिल्पकार मेहराब (नुकीला) बनाना नहीं जानते थे। हिन्दू शिल्पकार अपने मेहराबों को पच्चीकारी और चित्रकारी से सजाना चाहते थे। बादशाह मेहराबों पर कुरान की आयतें लिखाना चाहता था। अंत में हिन्दू शिल्पकारों ने मेहराब में एक सुन्दर उगते हुए पौधे का चित्र बनाया ओर उसकी पत्तियों के मध्य में अरबी की आयतें लिख दी।
कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद दिल्ली
इस मस्जिद के आंगन के बीच में एक लोह-स्तम्भ है। यह स्तम्भ चन्द्र नामक हिन्दू राजा द्वारा 400 वर्ष ईसा के पूर्व स्थापित किया गया था। इस स्तम्भ के लेख चन्द्र राजा के विजय के बारे में अच्छा प्रकाश डालते हैं। यह स्तम्भ सम्पूर्ण लोहे का है शुद्ध लोहे के छड़ बनाना बड़ा ही कठिन काम है। इसलिये यह स्तम्भ इस बात का साक्षी है कि हिन्दू कारीगर धातु के कार्य में बड़े ही निपुण थे।
अल्तमश बादशाह ने कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद को ओर अधिक बड़ा करने के लिये 6 मेहराब तीन तीन मस्जिद के दोनों ओर बनवाये। यह मेहराब गौर और फारस के कारीगरों द्वारा बनाए गये थे इस कारण यह हिन्दू कारीगरों द्वारा बनाए हुए मेहराबों की अपेक्षा बिलकुल भिन्न हैं। इन पर फूल, पत्तियों के स्थान पर छोटे छोटे वृत तथा त्रिभुज बनाये गये हैं। अपनी नई मसजिद के एक कोण पर अल्तमश ने अपना मकबरा बनवाया ओर उस पर वैसी ही पच्चीकारी की हुई है जैसी की मसजिद के मेहराबों पर है।
अल्तमश की मस्जिद दिल्ली की 100 वर्ष तक जामा मस्जिद बनी रही। जब अलाउद्दीन खिलजी दकन विजय करके अपार धन लेकर दिल्ली आया तो उसने मस्जिद को और अधिक बड़ा करने का विचार किया इसलिये उसने अलतमश के मकबरे से आरम्भ करके 6 और मेहराब बनवाये। उसने कुतुब मीनार के समीप एक द्वार मार्ग बनवाया और उसका नामकरण अपने नाम पर अला दरवाजा रखा। महरौली में यह सर्वोत्तम द्वार-मार्ग है। पर अलाउद्दीन की मृत्यु मस्जिद समाप्त करने के पूर्व ही हो गई।
सन् 1360 ई० में फीरोजाबाद में फोरोजशाह ने एक दूसरी जामा मसजिद बनवाई उसके पश्चात् यह मसजिद बेमरम्मत हो गई। 1398 ई० में तैमूर ने इसका निरीक्षण किया था। 1904 ई० लार्ड कर्ज़न ने क़ुतुब मीनार का निरीक्षण किया और प्राचीन भवनों की देख-रेख तथा मरम्मत के लिये अर्कियालॉजिकल विभाग की नींव डाली। यह विभाग कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद के जो भाग शेष रह गये थे उनकी ठीक तौर पर देख भाल रखता है।