लुशाई हिल्स आसाम, त्रिपुरा, मिजोरम,मणिपुर की उत्तरी सीमान्त पर फैला हुआ एक पहाड़ी क्षेत्र है। घोर वनों के कारण यहां के मार्ग बड़े ही भयानक हैं। वर्षा इतनी अधिक होती है, कि इस प्रदेश में एक स्थान से दूसरे पर जाना कठिन हो जाता है। यहां के पुराने रहने वाले मनुष्य इन परिस्थितियों से हिल मिल गये हैं। इसलिये उन्हें तो सम्भवतः इसी में सुख मिलता है। बड़ी से बड़ी प्राकृतिक-कठिनाइयों को सहन करने की इन लोगों में शक्ति होती है। लुशाई पहाड़ी में जो मानव जाति निवास करती है, उसे कुकी जनजाति कहते हैं। कुकी समुदाय भी भारत के आदिवासियों का ही एक अंग गिने जाते हैं। यह बात निश्चय पूर्वक नहीं कही जा सकती कि वास्तव में कुकी जनजाति किन विचित्र आदिवासियों के वंशज हैं, और कुकी जनजाति का धर्म कौन-सा है, क्योंकि इस बारे में विद्वानों के भिन्न भिन्न मत हैं, परन्तु यह कहा जा सकता हैं, कि शायद ये लोग स्वयं भी अपने धर्म तथा जाति के बारे में सर्वथा अनभिज्ञ हैं।
कुकी जनजाति का जनजीवन
कुकी लोग नागा जाति के लोगों से भी अधिक हिंसक समझे जाते हैं। भारत की आधुनिक या प्राचीन किसी भी सभ्यता का प्रभाव इन पर क्यों नहीं पड़ सका, इसका अनुमान करना कठिन है, क्योंकि इन लोगों के चारों ओर बसने वाली किसी भी सभ्य जाति का प्रभाव इन पर दिखाई नहीं देता। कुकी समुदाय का जन जीवन जगत से न्यारा, असभ्य और प्राय: वनवासी जैसा है।
भारत की पिछड़ी हुई जातियों में लुशाई प्रदेश की यह कुकी जाति सब से अधिक पिछड़ी हुई समझी जाती है। नागा जनजाति लोगों में तो पहले की अपेक्षा अब काफ़ी उन्नति हो रही है, किन्तु यह कुकी लोग अभी अपने को उन्नति के पथ पर खड़ा नहीं कर सके। वैसे भारतीय राज्य की ओर से अब इन्हें भी शिक्षित तथा सभ्य बनाने के लिये प्रयत्न किया जा रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि वे दिन दूर नहीं जब कि भारत की कोई भी जाति असभ्य नहीं रहेगी । आज इन कुकी लोगों के जीवन की चर्या कहते हुए हमें खेद होता है, किन्तु इन के भविष्य की कल्पना आशा का संचार करती है।
यह कुकी जनजाति चाहे आज कितने ही पिछड़े हुए क्यों न हों, तो भी यह वर्ग हमारा ही एक अंश हैं। भारत की भूमि पर जन्म लेकर भी वह आज अपने आप को हम से भिन्न भले ही समझें, किन्तु जब ज्ञान और शिक्षा की ज्योति उनके मस्तिष्क में प्रकाश फैलायेगी, तो इन्हें अवश्य ही जागना पड़ेगा। और तब इन्हें प्रतीत होगा, कि वे अपने ही भाइयों के पास रह कर भी उन से दूर रहे हैं। और वे कूएं के मेंढ़क की तरह जीवन व्यतीत नहीं करेंगे। उन में देश प्रेम की लहर उठेगी। हम और वह भली प्रकार समभेंगे कि भारत ही अपना एक मात्र देश है। इसी के लिये हमने जीना और इसी के लिये मरना है। और तब कितना उज्जवल होगा भारत का भविष्य।
कुकी जनजातिइन कुकी लोगों का सामाजिक जीवन भी बड़ा विचित्र है। इनके रीति रिवाज भी बड़े अनोखे हैं। मृत्यु आदि संस्कार तो इनके बड़े ही विचित्र हैं। इस जाति का जब कोई व्यक्ति मरता है, तो उसके शव को घर के किसी खुले कमरे में साफ़ तथा सुन्दर कपड़ों में लपेट कर लिटा देते हैं। इसके पश्चात सम्पूर्ण सगे सम्बन्धियों को मृत्यु का समाचार भेज कर बुलवाया जाता है। जब सब प्रिय जन एकत्रित हो जाते हैं, तब शव को यत्न पूर्वक सजा कर उसके सीधे हाथ की ओर उस का कोई प्रिय हथियार रख दिया जाता है तथा दूसरी ओर उसकी विधवा स्त्री को बिठा दिया जाता है। वहां बैठ कर वह विलाप करती है। इसके पश्चात एक भोज होता है, तथा समस्त एकत्रित जन उसमें सम्मिलित होते हैं। भोजन करने से प्रथम थोड़ा सा भोजन मरे हुए व्यक्ति के पास भी रखा जाता है, तब एक प्रधान व्यक्ति खड़ा हो कर उस से खाने के लिये प्रार्थना
करता है। इसके बाद ही अन्य लोगों को भोजन करने की आज्ञा मिलती है, यह सभी कार्य इस धारणा को लेकर किये जाते हैं, कि मनुष्य मृत्यु के पश्चात एक बहुत बड़ी यात्रा के लिये जाता है, और यदि वह उस यात्रा पर भूखा ही रहा, तो वह भूख के कारण व्याकुल हो कर अपनी यात्रा पूर्ण नहीं कर पायेगा और उसे बड़ी बडी विपत्तियां झेलनी पड़ेंगी।
तम्बाकू पीने का कुकी जनजाति के लोगों में बहुत प्रचार है। बच्चे बूढ़े सभी इस का चाव रखते हैं। इसी लिये इन लोगों में मरे हुये व्याक्ति को भी तम्बाकू पिलाने का रिवाज है। ऊपर कहे, सभी संस्कार करने में अधिक से अधिक दो दिन लगते हैं। इसके बाद मृत-जन के शव को धरती में किसी साफ स्थान में गाड़ दिया जाता है।
कुकी लोगों में एक ही नहीं अपितु कई जातियां हैं, जिन के रीति-रिवाज भी एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न होते हैं। इन्हीं की एक अन्य जाति है, जिसमें मृत-जन के शव को लकड़ी के एक खोले में लिटा कर खुली हवा तथा सूर्य के प्रकाश में मिट्टी से लीप कर सूखने के लिये रख देते हैं। यह केवल इस लिये किया जाता है, कि उसके सभी सम्बन्धी आकर एक बार तो उस से अवश्य मिल जायें, क्योंकि इस प्रदेश में यातायात के साधन मिलने दुर्लभ हैं, इसलिये सारी यात्रा पैदल ही की जाती है। मृत्यु का समाचार पहुंचाने तथा उसके सगे सम्बन्धियों को बुलाने में कई कई महीने लग जाते हैं ओर जब तक उसके सभी सम्बन्धी उसे आकर नहीं देख जाते, तब तक उस का अन्तिम संस्कार नहीं किया जाता। जब सब सम्बन्धी आकर उसे मिल जाते हैं, तब उस के शव को धरती खोद कर यत्न पूर्वक गाड़ दिया जाता है।
कुकी समुदाय की एक और जाति में मृत्यु आदि संस्कार करने की एक बड़ी ही विचित्र प्रथा प्रचलित है, जिसे सुन कर आश्चर्य होता है। इस जाति के लोग अपने मृत-जन के शव को घर की दहलीज़ में छत से लटका देते हैं, तथा उसकी विधवा पत्नी को उस शव के नीचे बिठा दिया जाता है जहां सप्ताह भर उसे चरखा कातना पड़ता है। इन सात दिनों में यह स्त्री कहीं भी आजा नहीं सकती। उसका शव के नीचे से उठकर कहीं जाना बड़ा ही पाप समझा जाता है। इसलिये उस स्त्री की एक ही स्थान पर चरखा कात कात कर बुरी दशा हो जाती है। पर इतनी खेर है, कि उस स्त्री के भोजन आदि पर किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाता। शव के नीचे बैठी हुई भी वह प्रति दिन की तरह अपना भोजन कर सकती है। सात दिन के बाद शव को उतार लिया जाता है। उसका शीश तो काट कर घर में रख लिया जाता है, तथा शेष शरीर को मिट्टी में गाड़ दिया जाता है।
कैसी विचित्र रीति है कुकी समाज की ? इनके सामाजिक प्रतिबन्ध तथा उसके नियम इस बात का प्रमाण हैं, कि कभी अतीत में इनका समाज भी गौरवमय रहा होगा। इन की अपनी भी एक दुनियां होगी। पर कहां मिट गया वह सब ? कहाँ खो गई वह दुनियां ?
कुकी लोगों की स्त्रियां ही ग्रहस्थी के खाने-दाने तथा अन्य सभीआवश्यक कार्यो का प्रबन्ध करती हैं। इंधन एकत्रित करना, खेती करना, बच्चों का पोषण करना आदि सभी गृहस्थ के कार्य केवल स्त्रियों को ही करने पड़ते हैं, पुरुषों का काम तो केवल इतना ही है, कि आवश्यकता पड़ने पर कभी वन काट कर भूमि एक सी कर दी अन्यथा इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण संसारिक कार्य स्त्रियों को ही करने पड़ते हैं। पर इसका अर्थ यह नहीं, कि पुरुष सारा दिन घर पड़े आराम किया करते हैं। घर में तो इन लोगों का जी बिल्कुल नहीं लगता। हर समय युद्ध करने के लिये व्याकुल फिरा करते हैं। युद्ध करना ही इस प्रदेश के पुरुषों का एक मात्र मुख्य कार्य है। युद्ध कला में ये लोग इतने प्रवीण होते हैं, कि जहां निशाना लगाया, उसे साफ़ ही समझिये। यदि यह लोग शिक्षित हो जायें, तो देश के लिये अत्यन्त प्रवीण सनिक सिद्ध हो सकते हैं।
जब ये लोग युद्ध के लिये जाते हैं, तो इनके बड़े-बूढ़े श्रद्धा-पूर्वक आर्शिवाद देकर इन्हें विदा करते हैं। यदि ये लोग युद्ध में जीत जायें तो सभी मरे हुये शत्रुओं के शीश उतार कर अपने साथ ले आते हैं। रास्ते में घर को लौटते हुये रंग बिरंगी पगड़ियां पहने, नाचते कूदते हुए जब ये नर मुण्डों को उठाये हुए आाते हैं, तो सारे वातावरण में भय का संचार हो जाता है। जब ये लोग अपने गांव से कुछ दूरी पर रह जाते हैं, तो सभी लोग इन के स्वागत को शराब लेकर जाते हैं। जहां विजय की खुशी में मदिरा पान होता है। विवाहित पुरुषों की पत्नियां अपने स्वामियों के हाथ पहले मदिरा के जल से धुलाती हैं। इन का विचार है, कि ऐसा करने से उसका खूनी पति पवित्र हो जाता है, अन्यथा खूनी पति को कोई भी पत्नी स्वीकार नहीं करती। यदि वह ऐसा नहीं करती, तो वह पतित हो जाती है। इसी धारणा के अनुसार पहले स्त्री का विजयी पुरुष के हाथ धुलाना ही मुख्य कर्तव्य है, इसके पश्चात दोनों पति पत्नी जी भर कर एक दूसरे को मदिरा पान कराते हैं।
अपने गाँव में पहुँच कर यही विजयी पुरुष सब से पहले अपने घरों को न जा कर अपने सरदार के घर जाते हैं। तथा वहां उन सभी शत्रु-मुण्डों का ढेर लगा देते हैं। उसके चारों ओर खूब नाचते कूदते हैं। इस समय इतनी अधिक शराब पी जाती है, कि यह लोग नशे में मस्त होकर बेहोश होने लगते हैं। आलसी पुरुषों से यहां बड़ी घृणा की जाती है। उन्हें हर समय स्त्रियों का गुलाम बना कर खेती के काम में लगाया जाता है। ऐसे पुरुष से कोई भी स्त्री अपना विवाह करना पसन्द नहीं करती। उसे सदा नाम समझा जाता है। किसी भी कार्य में उसकी कोई राय नहीं ली जाती। सामाजिक सभाओं में बैठनें का अधिकार उसे नहीं दिया जाता।
लुशाई प्रदेश में सम्पूर्ण कार्य स्त्रियों को ही करने पढ़ते हैं, परन्तु फिर भी उन पर किसी प्रकार का कोई अनुचित दबाव नहीं डाला जाता। उन्हें हर काम करने के लिये पूर्ण रूप की स्वतन्त्रता होती है। शादी विवाह आदि मामलों-में भी लड़कियों को अपने चुने हुये पति से ही विवाह करने का अधिकार होता है। इस में किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं उठाई जाती।
कुकी लोगों का स्वभाव युद्ध-प्रिय होने से उनके जीवन की अनेक बातें ऐसी हैं, जिसे हम आज के सैनिक-जी न में देखते है। सरदार के हुक्म का पालन करना यह लोग अपना परम धर्म समभते हैं। वह ठीक कहे अथवा ग़लत, इस चीज से इन्हें कोई सरोकार नहीं होता, इनका कार्य तो केवल उसका पालन करना ही होता है, चाहे उसकी कीमत इन्हें अपना रक्त देकर ही क्यों न चुकानी पड़े, तो भी ये लोग कभी उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते। मौखिक आज्ञा के अ्रतिरिक्त कुछ विशेष आज्ञायें, सिगनेलिंग (Signalling) के द्वारा भी दी जाती हैं जिस के अनेक चिन्ह इन्हें मालूम होते हैे। उदाहरणतः जब कोई व्यक्ति अपने सरदार का अनेक अलंकारों से सुसज्जित भाला हाथ में झुका कर गांव में फिरे, तो यह स्पष्ट हो जाता है, कि गांव के प्रत्येक पुरुष को सरदार ने तुरन्त अपनी बैठक पर उपस्थित होने की आज्ञा दी है। और पलक की झपकी में ही ये लोग वहां एकत्रित हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त इस प्रकार के अनेक चिन्ह इन लोगों में आज्ञाओं के लिये प्रचलित हैं। इन बातों को देख कर निश्चय से कहा जा सकता है कि यदि इन लोगों को शिक्षित करके उन्नति के पथ पर चलाया जाये, तो ये लोग अपने देश के प्रसिद्ध तथा योग्य सिपाही सिद्ध हो सकेंगे।
लुशाई पहाड़ी के इन कुकी लोगों में सब से अधिक आदर गांव के सरदार को ही प्राप्त होता है। सरदार की स्त्री यदि किसी कुकी को अपना पुत्र बना ले, तो उसका भी बड़ा आदर होता है। यहां तक कि यदि पुत्र बना हुआ व्यक्ति भयंकर से भयंकर अपराध भी कर डाले, तो भी उसे दण्ड नहीं दिया जाता।
लुशाई हिल्स के कुकी लोगों को पैदल यात्रा तय करने का बड़ा अभ्यास होता है। इनकी चाल इतनी तेज होती हैं, कि शायद दुनियां की कोई भी जाति चलने के प्रश्न पर इन से कभी बाज़ी नहीं मार सकती। जितनी देर में हम एक मील की दूरी तय करते हैं, उतनी देर में ये लोग पांच मील के अन्तर पर पहुँच जाते हैं।शायद आज के जगत में इनके बराबर कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं, जो इन के साथ चलने में मुकाबला कर सके।
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