शिमला से लद्दाख की ओर जाने वाली सड़क के साथ साथ भारत का सीमा प्रद्रेश ही किन्नर प्रदेश कहलाता है। मुख्य रूप से हिमाचल प्रदेश का किन्नौर जिले का क्षेत्र इनका मुख्य निवास है भारत के प्राचीन धर्म ग्रन्थों में किन्नर प्रदेश का नाम प्रायः आता है, यह वही आदर्श-भूमि है। आज हमें इस प्रदेश के बारे में उतनी जानकारी नहीं है। जितनी प्राचीन भारत में हमारे पूर्वजों को प्राप्त थी। धर्म ग्रन्थों में किन्नर प्रदेश की तुलना देव-भूमि से की गई है। किन्नर शब्द का अर्थ भी अर्ध देव है। यदि देखा जाये तो आज भी इस प्रदेश की सभ्यता इस बात का प्रमाण है, कि प्राचीन काल में यह प्रदेश अवश्य ही देव भूमि रहा होगा। यदि स्वर्ग के नहीं तो पृथ्वी के देवता तो यहां अवश्य ही वास करते होंगे।
किन्नर जनजाति का जनजीवन
सुन्दरता तथा शरीर की गठन देख कर तो यहां के लोग ऐसे प्रतीत होते हैं, कि ये प्राचीन आर्यो की ही संतान हैं। इसके अतिरिक्त वे स्वयं भी अपने आप को आर्यो की ही सन्तान मानते हैं। इन का खान-पान, रहन-सहन, तथा व्यवहार आदि प्राचीन भारतीय आर्य सभ्यता का प्रतीक है। आतिथ्य सत्कार करना ये लोग अपना परम कर्तव्य समझते हैं। अपने यहां आ जाने वाले महमानों अथवा भूले भटके यात्रियों की सेवा करने में इन्हें बड़ा सुख प्राप्त होता है। किन्नर प्रदेश के निवासी अधिकतर बौद्ध-धर्म के मानने वाले हैं। यह सब तिब्बत देश के निकट होने का ही प्रभाव है । दलाई लामा में ही ये लोग अपना अधिक विश्वास रखते हैं। उसी के आदेशों का पालन करते हैं। यह सब कुछ होते हुए भी तिब्बत, अथवा दलाई लामा के देश का नागरिक बनने को इच्छा इन्होंने कभी नहीं की। भारत का नागरिक होने में हो सदा इन्होंने अपना धर्म समझा है।
इस किन्नरों के प्रदेश को देव भूमि कहने के और भी अनेक कारण हैं। क्योंकि आज भी देवताओं के अवशेष यहां उपस्थित हैं, जो कभी इस भूमि पर शासन करते थे। यहां उनका अपना एक स्वर्ग था। आज भी यहां के लोगों ने अपनी पुरातन रीतियों का परित्याग नहीं किया, अपितु उसी का अनुकरण करते चले आ रहे हैं। अपने धर्म में जितना विश्वास शायद इन्हें है, उतना सम्भवत: भारत के किसी अन्य प्रदेश के लोगों में आज दिखाई नहीं देता। धर्म के विषय में ये लोग किसी भी आधुनिक युग के वैज्ञानिक प्रमाण को सुनने के लिये तैयार नहीं तंत्र-मन्त्र आदि अन्ध-विश्वासों का इन लोगों में बड़ा प्रचलन है, तथा इसी के सहारे यह लोग अपना जीवन बिताते आ रहे हैं। दूसरे शब्दों में यह तन्त्र-मन्त्र आदि इन लोगों के जीवन का एक विशेष तथा आवश्यक अंग हैं। इनका विश्वास है, कि इन्हीं के प्रताप से इन पर आने वाली बड़ी से बडी आपत्ति भी टल सकती है। खान-पान, रहन-सहन, पूजा-पाठ, हारी बीमारी, दुःख-सुख आदि सभी कष्टों में यह लोग इन्हीं तन्त्रों-मन्त्रों का प्रयोग करते हैं। वास्तव में यह सत्य है, कि इन तन्त्रों-मन्त्रों की ही सहायता से उनके समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं। योग विद्या का इन लोगों को पर्याप्त अभ्यास है। वैसे भारत के प्राचीन योग से ये अब कुछ विमुख हो बेठे हैं, परन्तु फिर भी किसी न किसी प्रकार अपने अथक परिश्रम द्वारा इन लोगों के पास उसका पर्याप्त भाग सुरक्षित है। तप आदि प्राचीन साधनाएं करने की इन लोगों में बडी दृढ़ रीतियां प्रचलित हैं। एकान्त स्थान पर बैठ कर गुरू के बताये हुये आदेशानुसार ये लोग बड़े बड़े कष्ट सह कर कठिन तप करते हैं। धरती के भीतर गुफाओं में बैठ कर, अथवा अपने आप को दीवारों के बीच चुन॒वा कर जिसमें केवल ऊपर की ओर ही एक सुराख रहता है, जहां से इन्हें वायु, भोजन आदि प्राप्त कराया जाता है, साधनाएं करते हैं। इन लोगों का विश्वास है, कि मन्त्र में इतनी शक्ति निहित रहती है, कि यदि उसे शुद्ध रूप से सिद्ध कर लिया जाये, तो पहाड़ जैसी कठिनाइयों को भी पार किया जा सकता है।
किन्नर जनजाति हिमाचलइन लोगों में ‘फोआ’ नाम की एक अन्य प्रथा और भी प्रचलित है जिसके द्वारा इन्हें अनेक कष्ट सह कर अपनी निश्चित साधना करनी पड़ती है। इन लोगों का विश्वास होता है, कि मानव की सदगति तभी हो सकती है, जब कि मृत्यु के समय उसके प्राण, शीश द्वारा निकलें अन्यथा उसकी मृत्यु ठीक नहीं समझी जाती, तथा यह धारणा की जाती है, कि मृत्यु के पश्चात उसे अच्छा जन्म प्राप्त नहीं होगा। इसीलिये, इन्हें ‘फोआ’ समान कठिन साधना करनी पड़ती है। इस साधना के आरम्भ करने में सब से पूर्व साधक का गुरु उसे एक मन्त्र का उपदेश देता है, जिसका जप किसी भी स्थान पर शुद्ध रूप से करना पडता है। इस मन्त्र में विशेष गुण यह होता है, कि इसके जप के निरन्तर अभ्यास से साधक के शीश में कुछ दिन उपरान्त सोजन आ जाती है। ऐसे समय में अभ्यास का त्याग नहीं किया जाता, अपितु पूर्ण पवित्रता से उसका अवलोकन किया जाता है। फिर कुछ समय बाद माथे से रक्त फूट उठता है, और तद्पश्चात रक्त के फूट पड़ने वाले स्थान पर एक छिद्र हो जाता है, यहां आकर साधना पूर्ण हो जाती है। इन लोगों का यह अटल विश्वास है, कि इस साधना से साधक के प्राण मृत्यु समय उसी मस्तक के छिद्र से निकलते हैं, और वह अवश्य ही स्वर्ग-गामी होता है।
इनकी इन साधनाओं में किसी भी प्रकार की सफ़ाई, चालाकी, छल तथा कपट आदि का अनुमान आज तक कोई भी नहीं लगा सका, अपितु अच्छे अच्छे आधुनिक विचार के लोग भी इनकी यह अनन्त साधना देख कर दंग रह जाते हैं। और तब उन्हें आभास होता है, कि भारत की प्राचीन संस्कृति में कोई तथ्य अवश्य है। इस लिये यह कहना कदापि सत्य प्रतीत नहीं होता, कि प्राचीन अन्ध विश्वास एक ढकोसला ही था। हो सकता है, कि हम उसके वास्तविक मार्ग से भटक गये हों और तभी हम ने उसे एक व्यर्थ का ढकोसला समझ लिया हो। किन्नरों की आज की अवस्था हमें अपने भारत की प्राचीन सभ्यता की याद दिलाती है, जब कि भारत का बच्चा बच्चा तपस्वी था। स्थान स्थान पर ऋषि मुनियों के आश्रम थे। जन जन के हृदय में त्याग तथा तपस्या की भावनायें जन्म पाती थीं और प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म में एक अपूर्व श्रद्धा रखता था।
किन्नर जनजाति प्रदेश के सदाचारी जनों की वेश-भूषा भी बड़ी सरल है, वैसे तो उस पर भी तिब्बत निवासियों का काफ़ी प्रभाव है, पर फिर भी भारत के आर्यों की अस्त-व्यस्त वेशभूषा के अनेक चिन्ह इसमें दिखाई पड़ते हैं। स्त्रियां सिर पर एक काले रंग का रुमाल, तथा शेष शरीर की रक्षा के लिये शलवार तथा कुर्ती आदि का प्रयोग करती हैं। जाड़े के दिनों में ऊनी कोटी आदि भी पहनती हैं, स्त्रियों की सुन्दरता इतनी आकर्षक होती है, कि लिखते नहीं बन पडता। इनका श्रृंगार भी बड़ा साधारण है। हाथों में चूडियां, नाक में बड़े आकार की लौंग तथा कानों में बालियां पहनने से ही इनकी तृप्ति हो जाती है। यह सभी ज़ेवर चांदी के बने होते हें। पर धनवान लोगों की स्त्रियां स्वर्ण की बनी वस्तुओं का प्रयोग भी करती हैं। साधारण वेश में भी इनका सौंदर्य बडा मनोहर लगता है।
किन्तर देश में घर की वृद्धा स्त्री का बडा आदर होता है। उसी को पूज्य समझा जाता है। तथा उसी के आदेशानुसार सब रीति आदि कार्यो को वास्तविक रूप दिया जाता है। इसके अतिरिक्त पुरुषों की वेशभूषा भी अत्यन्त सरल है। ये लोग सिर पर एक टोपी, टांगों में तंग मुहरी का पाजामा, तथा बदन में एक कोटनुमा मिरजई पहनते हैं। पुरुषों को अधिकतर परिश्रम के कार्य ही करने पड़ते हैं। जिन में स्त्रियां भी इनका हाथ बटाती हैं। अधिकतर अपने अवकाश के समय तकली द्वारा सूत कातती रहती हैं। व्यर्थ में समय गंवाने का स्वभाव उनका नहीं होता। अन्य पहाडी जातियों की स्त्रियों की तरह यहां की स्त्रियां विलासिनी नहीं होती। शराब, अफ़ीम तथा तम्बाकू आदि नशीली वस्तुओं से इन्हें कोई लगाव नहीं होता। किन्नर वैवाहिक प्रथाएं भी बडी साधारण होती हैं, मेले त्योहारों, तथा उत्सवो आदि पर स्त्री, पुरुष साथ साथ मनोरंजन करते हैं।
किन्नर प्रदेश में वर्षा अधिक नहीं होती, इस लिये घोर अकाल पडा करते हैं। अकाल के दिनों में अथक परिश्रम करके लोगों को इस पापी पेट के लिये अन्न के दाने एकत्रित करके जीवन रक्षा करनी पड़ती है। अधिक जनसंख्या इस क्षेत्र में गरीबों की ही मिलती है, अमीर तो शायद इस सम्पूर्ण क्षेत्र में राज्य घराने के लोग ही होंगे। इसके अतिरिक्त और तो कोई भी ऐसा दिखाई नहीं देता, जिसे अमीर कहा जा सके। किन्तु फिर भी अथक परिश्रम के पश्चात जो कुछ भी जीवन-यापन हेतु उन्हें प्राप्त होता है उसी में इन्हें संतोष रहता है। उससे अधिक प्राप्ति की कभी कल्पना भी इन से नहीं
हो पाती।
यहां के लोग अधिकतर कृषक अथवा चरवाहे ही होते हैं। यही खेती तथा पशुओं के रेवड़ ही इन की जीविका के साधन हैं। इस क्षेत्र में बड़े बड़े नगर नहीं, अपितु छोटे छोटे ग्राम हैं, गांव की बनावट भी बड़े अनोखे प्रकार की है। प्रत्येक गांव के मध्य में एक विहार होता है, जहां यह लोग अपना पूजा पाठ आदि करते है। इन विहारों पर महात्मा बुद्ध के अनेक प्रकार के चित्र तथा पाली भाषा में धार्मिक उपदेश, आदि खुदे होते हैं। इन लोगों के गुरु अथवा धर्म-उपदेशक लोग इन्हीं विहारों में अपना वास करते हैं। गांव के सभी घर इसी बिहार के चारों ओर बने होते हैं। यह सभी घर ऊंचाई में अधिक नहीं होते। लगभग सभी अच्छे गांवों में दो ओर प्रवेश द्वार बने होते है। इन्हीं द्वारों में से हो कर ग्रामों के अन्दर प्रवेश किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त गांव में जाने के लिये अन्य कोई मार्ग नहीं होता। पानी के लिये भी कोई विशेष प्रबन्ध नहीं है, वह भी केवल प्रकृति के प्रताप से ही बर्फ़ानी पर्वतों पर से बह कर पाने वाले खालों (नालों) द्वारा प्राप्त हो पाता है। ‘सराहन’ इस क्षेत्र का सब से बड़ा नगर है, तथा चिनी ग्राम इस क्षेत्र का सब से अन्तिम भारतीय डाक घर है।
गांवों में यदि किसी वस्तु की आवश्यकता पड़े, तो किसी समय तो वह प्राप्त-भी नहीं हो पाती। कारण यह है कि सम्पूर्ण गांव में एक आध दुकान होती है, और उस पर भी सारी वस्तुएं नहीं मिल पातीं, यात्री लोग जो कि इस मार्ग से लद्दाख के लिये अथवा इस प्रदेश की यात्रा के लिये जाते हैं। उन्हें अपने खान-पान का प्रबन्ध स्वयं ही करके ले जाना पड़ता है। वैसे इस प्रदेश के आदमी अपने यहां आने वाले महमानों के लिये सभी प्रकार के आवश्यक साधन जुटा देते हैं, पर ग़रीबी तथा, निरन्तर अकाल पड़ते रहने के कारण वह अपनी हार्दिक कामना रहते हुये भी सामर्थ्य से अधिक सेवा से अपना हाथ खींच लेते हैं।
इस प्रदेश से लद्दाख तक जाने वाले मार्ग पर थोड़ी थोड़ी दूरी के अन्तर पर यात्रियों के ठहरने के लिये भारत सरकार ने धर्म शालाओं का सुन्दर प्रबन्ध कर रखा है। अब तो कुछ होटल, तथा रेस्टोरेंट भी खुल गए जिससे इन लोगों को कुछ रोजगार मिला है। वन विभाग के डाक-बंगले भी कई बार ठहरने के लिये काफ़ी उपयोगी सिद्ध होते हैं। ग़रीब तथा कठोर जीवन रखने वाली यह देव-भूमि वास्तव में दर्शनीय है। अशिक्षित होते हुये भी भारत की प्राचीन संस्कृति को सुरक्षित रख छोड़ने वाली आलोप किन्नर भूमि भले ही आज का जगत तुम्हें एक पिछड़ा हुआ प्रदेश कह कर तेरा उपहास कर दे, पर भारत के देव-पुरुष सदा तुम्हे गौरवमय दृष्टि से ही देखेंगे।
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