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Alvitrips – Tourism, History and Biography
काशी के मेले

काशी का मेला – काशी विश्वनाथ के मेले

Naeem Ahmad, August 17, 2022March 10, 2023

काशी ()(वाराणसी) पूर्वांचल की सबसे बडी सांस्कृतिक नगरी है। कहते है यह शिवजी के त्रिशूल पर बसी है तथा अक्षय है। यह महातीर्थ है। यहां मरने पर मुक्ति मिलती है- “काश्या मरणा मुक्ति”।गंगा-तट पर स्थित अब यह महानगरी है। विद्या का केन्द्र है। अतः यहां अगणित तीर्थ मंदिर तथा पवित्र स्थल है। यहां समय-समय पर तीर्थ यात्रियों की भारी भीड एकत्र हो जाती है, अतः वैसे ही मेला का दृश्य उपस्थित होता रहता है। तब भी कुछ विशेष मेले यहां लगते है जिनका उल्लेख अपेक्षित है-

 

 

Contents

  • 1 जागेश्वर नाथ का मेला काशी
  • 2 कीनाराम का मेला
  • 3 पंचक्रोशी मेला (यात्रा)
  • 4 भगवान अवधूत का मेला काशी
  • 5 श्रावणी सोमवार मेला काशी
  • 6 सोरहिया मेला – लक्ष्मीकुण्ड का मेला काशी
  • 7 काशी की रथयात्रा
  • 8 लोलार्क छठ का मेला
  • 9 हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—

जागेश्वर नाथ का मेला काशी

 

काशी जनपद में हेतमपुर नाम का एक गांव है जहा महाशिवरात्रि पर एक सप्ताह का बड़ा मेला लगता है। कहते है धरती के गर्भ से यहां एक शिवलिंग अपने आप निकला था। एक बार एक चरवाहे ने पलाश का फूल समझकर उस शिवलिंग पर कुल्हाडी चला दी। शिवलिंग मिट॒टी से लिपटा था। कुल्हाडी लगते ही उससे रक्त की धारा फूट पडी। वह चरवाहा वहा से भाग खडा हुआ। गांव मे आकर उसने इस घटना का जिक्र किया तब वहा लोग पहुंचे। मेला सा लग गया यह बात काशी-नरेश को मालूम हुईं तो वे भी पहुच गये। वे भी हैरान रह गये, उन्होने वही शिवजी का मंदिर बनवा दिया। तभी से पूजा होने लगी। तभी से आज तक मेला लगता है। कई हजार की भीड एकत्र हो जाती है।

 

 

कीनाराम का मेला

 

वाराणसी जनपद की चन्दोली तहसील में रामगढ़ नामक स्थान पर बाबा कीनाराम का ललही छठ पर मेला लगता है। कीनाराम बड़े सत थे। उनकी शिष्य-परंपरा है। उनके शिष्य यहां इस अवसर पर उपस्थित होते है जिसके कारण मेले का दृश्य उपस्थित हो जाता है।

 

पंचक्रोशी मेला (यात्रा)

 

काशी की पंचकोशी तथा विन्ध्याचल की त्रिकोण-यात्रा का धार्मिक महत्व है। ये यात्राएं वैसे तो किसी भी समय की जा सकती हैं, किंतु पचकोशी यात्रा आश्विन, कार्तिक अगहन, माघ, फाल्गुन, चैत्र और बेशाख में की जाती है। हर तीन वर्ष पर अधिक मास मे इसकी यात्रा का विशेष महत्व हो जाता है। इस अवसर पर इतनी भीड हो जाती है कि पूरा नगर मेले का रूप धारण कर लेता है। इस यात्रा में पति-पत्नी साथ-साथ सम्मिलित होते हैं। पांच दिन तक प्रतिदिन पांच-पांच कोस पैदल चला जाता था। कुछ लोग तो बिना जूता-चप्पल के ही चलते है, व्रत रहते है। कीर्तन भजन करते रहते है। पांच दिन के पांच पडाव निर्धारित है- (1) कर्दमेश्वर, (2) भीम चौरा (3) रामेश्वर (4) शिवपुर स्थित पंच पाण्डव (5) कपिल धारा। इन पांचो प्रमुख यात्राओं के अंतर्गत काशी का पूरा वृत्त आ जाता है और सभी तीर्थ तथा मंदिरो की यात्रा हो जाती है। इसमे शताधिक मंदिर और तीर्थ आ जाते है।

 

यह यात्रा नगर स्थित ज्ञानवापी से प्रारंभ होती है जिसके अंतर्गत मणिकर्णिका घाट पर गंगा-स्नान प्रमुख है। फिर यात्रा का ज्ञानवापी मैं संकल्‍प किया जाता है। यात्री संकल्प के उपरांत क्रमश कर्दमेश्वर, भीम चण्डी, रामेश्वर और कपिलधार की यात्रा पूरी करके पुन ज्ञानवापी आ जाते है तथा यात्रा की पूर्णाहुति भी यही होती है। यात्रा पूरी होने पर तीर्थ यात्री दान, ब्राह्मण भोजन करते-कराते है।

 

इसका नाम तो पचकोशी है, किंतु एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी क्रमश तीन, आठ, पन्द्रह, उन्नीस और बाईस कोस पड जाती है। इतनी दूरी तय करने के बाद भी लोग थकान का अनुभव नही करते। वृद्धजन भी इस यात्रा को पूरा कर लेते है। ऐसा विश्वास है कि काशी तीनों लोको से न्यारी है तथा शिव के त्रिशूल पर बसी है। अत यहां दैहिक, दैविक, भौतिक ताप का प्रभाव नहीं पडता। बहुत से लोग हर कष्ट सहन कर के भी काशीवास करना चाहते है। रूद्र काशिकेय ने लिखा है-

“चना चबैना गंग जल, जो पुरवे करतार।
काशी कबहुं न छोडिए, विश्वनाथ दरबार।।

तथा –

“मरण मंगल पत्र विभूतिश्च विभूषणम्‌।
कौपीन यत्र कौबेयं, सा काशी केन मीयते।॥”

अर्थात्‌ जहां मर जाना भी मंगलमय हो, विभूति ही आभूषण हो, कौपीन ही रेशमी वस्त्र हो, वह काशी किसके लिए मोक्षदायी नही है, अर्थात्‌ सबके लिए है।

 

पचकोशी यात्रा के समय स्थान-स्थान पर प्रत्येक पडाव पर दुकाने रात-दिन सजी रहती है। खाने-पीने की वस्तुए उपलब्ध रहती है। रात में प्रवचन, कथा वार्ता का आयोजन किया जाता है। हर जगह हजारों लोगो के लिए आवासीय व्यवस्था रहती है।धर्मशालाएं, मंदिर खचाखच भरे रहते है। भोजन बनाकर खाने की भी व्यवस्था रहती है। मार्ग-दर्शक रहते हैं। भूले-बिसरे लोगो के लिए शिविर लगा रहता है। पानी और मलमूत्र त्याग की व्यवस्था नगर नियम तथा प्रशासन द्वारा की जाती है। सुरक्षा का प्रबंध भी शासन करता है तब भी यदा-कदा अशोभनीय घटनाएं घट जाती है।

 

 

काशी के मेले
काशी के मेले

 

 

भगवान अवधूत का मेला काशी

 

काशी में पुल के पूर्व गंगा जी के तट पर पडाव नामक स्थान है। यहां भगवान राम अवधूत का उनके जन्मदिन पर बड़ा मेला लगता है। वहा बडा आश्रम है जिसमे संत, महात्मा, कुष्ठरोगी आते-जाते रहते है। विश्वास है कि यहां रहने से कुृष्ठ रोग ठीक हो जाता है। भगवान अवधूत राम महान संत तथा औधड थे। उनकी एक लम्बी शिष्य-परंपरा है जिसमें बडे-बडे लोग है। भूतपूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर भी यहां आते रहते थे।

 

 

श्रावणी सोमवार मेला काशी

 

कार्तिक और श्रावण दोनो माह भारतीय जनता के हर्षोल्‍लास, व्रतोपवास, आनन्द, आह्लाद तथा धार्मिक भावना के प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि श्रावण मास मे आकाश-पाताल का मिलन होता है। धरती हरी-भरी होकर गदरा जाती है तो आकाश बादलों के कारण गरुहा जाता है। वह धरती का आलिगन करना चाहता है। इसी खुशी मे मानव-मन भी उद्लडेलित हो उठता है। कवि-मन से कविता फूट पड़ती है। मयूर-मन भी वन मे नाच उठता है। जाहिर है कि प्रकृति और पुरुष दोनों के मिलन का पर्व है सावन। यह भी माना जाता है कि फाल्गुन मे पुरुष वर्ग मे कामोत्तेजना उत्पन्न होती है तो सावन में नारी वर्ग मे। इसीलिए कजरी के गीत सावन मास मे स्त्रियां गाती है, मेहंदी रचाती है, एडी रंगाती है, मीसी लगाती है, झूला झूलती और उसके गीत गाती है। वे पति समागम की साध रखती है। वे सावन के चारो सोमवार का व्रत पुत्र कामना से करती है। वह पुत्र भी ऐसा जो सोम-गुण-धर्म वाला हो।

 

 

सोम शिव का दिन है, शिवोपासना का दिन है। सोम जल, शीतलता, स्निग्धता, सात्विकता, शांति और सादगी का प्रतीक भी है। अग्नि रूद्रता का प्रतीक है। ग्रीष्म की तपन में अग्नि प्रज्ज्वलनशील होता है जिसे शांत करने के लिए सोम (जल) की आवश्यकता होती है। जनार्दन उपाध्याय लिखते है कि- “मानव शरीर एक पवित्र देव मंदिर है। ठीक उसी प्रकार देवालय में शिवलिंग और उसके ऊपर लटकता जल घट है। जिसके क्रमशः बूंद बूंद सोम या जल रस शिव(अग्नि) पर टपकता है, जो रूद्र को शिव बनाने मै समर्थ है। रूद्र में सौम्यता सोम के आदान से आती है। अतः श्रावण मास में शिवोषपासना मंगल मूलक है‌।

 

 

भोजपुरी भाषी जनपदो सहित पूर्वांचल के प्रत्येक अचल मे प्रत्येक सोमवार का श्रावणी मेला लगता है। काशी में उत्सव होते है, मंदिरों को सजाया जाता है तो मिर्जापुर चुनार मे दुर्गा जी नामक स्थान पर लिटटी भटा का मेला लगता है। बाटी-दाल-खीर खायी जाती है। गोते लगाये जाते है।पतंग उड़ायी जाती है। दंगल आयोजित किये जाते है। ढोलक की थाप पर आल्हा-ऊदल के गीत गाये जाते है। श्री जनार्दन उपाध्याय आगे कहते है कि श्रावण के सोमवार का अपेक्षाकृत अधिक महत्व है। इस कारण इस मास को आकाश के सोम के लिए विशेष महत्वपूर्ण माना गया है।सोमवार के दिन के सोम तत्व या जल का सोम चक्की से संबध है इसलिए इसका विशेष महत्व है। इसी कारण श्रावण मास में गंगा-स्नान का बडा महत्व है। ऐसा करने से चित्त शांत ओर स्वास्थ्य ठीक रहता है। इस मास मे रूद्राभिषेक और पराभिषेक का भी बडा महत्व है। इस मास में प्रत्येक सोमवार को व्रत रहना चाहिए, इससे मन ओर आत्मा की शुद्धि होती है बुद्धि का विकास होता है।

 

सोरहिया मेला – लक्ष्मीकुण्ड का मेला काशी

 

काशी कला और संस्कृति की प्राचीन नगरी है। यहां समय-समय पर मेलो का आयोजन किया जाता है जिनमें से एक है लक्ष्मीकुंड का सोरहिया मेला। सोलह दिनो का यह मेला भाद्रपद शुक्लाष्टी से प्रारंभ होकर आशिवन कृष्णाष्टमी तक चलता है। यह मुख्य रूप से स्त्रियों का मेला है और वे सोलहो दिन व्रत रहकर लक्ष्मी जी का विशेष रक्षासूत्र धारण करती है। इसी मेले से त्यौहारो, व्रतों और मेलों की परंपरा शुरू होती है। इस मेले में घरेलू उपयोग की प्राय हाथ से बनी कलात्मक वस्तुएं बिकने को आती है जिनमे लक्ष्मी जी की मूर्तियां मुख्य है। इसके अलावा लाल मिट्टी के पात्र, बच्चों के खिलौने बिकने के लिए आते है। स्त्रियां प्राय सोलहो दिन लक्ष्मीकुंड मे स्नान करती है।

 

यह मेला काशी नगर के मध्य में लगता है, अतः क्रमश स्थानाभाव होता जा रहा है। पहले नाटक नौटंकी, खेल चर्खी के द्वारा मनोरजन किया जाता था, किंतु अब स्थानाभाव के चलते श्रृंगार प्रसाधन तथा मिट॒टी की बनी लक्ष्मीजी की मुंडा मूर्तियों की दुकाने सजती है। यहां दो-दो मंदिर लक्ष्मी जी के है। इन मंदिरों को बिजली-बत्ती से सजाया जाता है और हवन-पूजन-प्रवचन कथा-वार्ता का क्रम सोलहो दिन चलता है। स्त्रियां आश्विन कृष्ण सप्तमी को रात्रि से अष्टमी तक जीवत्पुत्रिका (जिउतिया) व्रत रहती है। हस्तकला और शिल्प की दृष्टि से इस मेले का बड़ा महत्व है। यह मेला न जाने कब से लगता आ रहा है। यहां शिल्पकार आकर स्वयं मूर्तिया तथा अन्य कलात्मक वस्तुएं बनाते भी है। पहले यह मेला इतना आकर्षक होता था कि लगता था जैसे एक कला नगरी ही बस गयी है, किन्तु प्लास्टिक संस्कृति के चलते अब यहां प्लास्टिक कि खिलौने अधिक बिकने लगे है और काष्ठ, मिटटी के खिलौनों की कला समाप्त होती जा रही है। अब कला-पारखी भी कहा रह गये है जो गुणज्ञ गुणियो की कदर करे, वर्ना पहले समृद्ध-सम्पन्न परिवारों की स्त्रियां इसमें जाती थी और वस्तुओ की मुंहमांगी कीमत देकर वस्तुएं खरीदती थी।

 

 

इस मेले में दूर-दराज के कलाकार अथवा बुकानदार पहुंचते थे।आजमगढ मिट्टी की कला के लिए मशहूर है, चुनार की चीनी मिट॒टी की कला, अहरौरा की लाल मिट्टी की कला प्रसिद्ध है। इन स्थानों के शिल्पी तथा शिल्प व्यापारी भी इस मेले में पहुंचते थे। मेलो-ठेलो का घार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक महत्व भी है जो अप-संस्कृति के चलते महत्वहीन होता जा रहा है। पहले मेलो-ठेलो से न जाने कितने परिवारों की परवरिश भी होती थी। मेलो का स्थान अब उत्सव ले रहे है।

 

काशी की रथयात्रा

 

वैसे तो रथयात्रा द्वारिकापुरी की ही मशहूर है और उसका अन्तर्राष्ट्रीय महत्व है, किन्तु देखा-देखी अन्य अनेक बड़ शहरों तथा स्थानों पर भी रथयात्रा महोत्सव का आयोजन किया जाता है। भोजपुरी भाषी जनपदी में काशी की रथयात्रा का भी ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक महत्व हो गया है। यहां एक मुहल्ले का नामकरण ही रथयात्रा पड गया है। लक्सा, गुरुबाग, कमाच्छा से लेकर महमूरगंज तक यहां इस अवसर पर बड़ा मेला लगता है। पूरा नगर तथा आस-पास की जनता दर्शनार्थ तथा क्रय-विक्रय के लिए उमड़ पड़ती है। इस मेले मे सडक के दोनों ओर विविध प्रकार की दुकानें सजती-सजायी जाती है। साय चार बजे से ही भीड बढने लगती है जो दस बजे रात तक जमी रहती है। यहां काष्ठरथ सजाया जाता है जिस पर श्री जगन्नाथ जी, सुभद्रा जी और बलराम जी की भव्य मूर्तिया होती है। इसे श्रद्धालु भक्तगण खींचते है। ऐसा माना जाता है कि रथ खींचने से भगवान प्रसन्न होते है और मनोकामना पूरी होती है।

 

रथयात्रा क्यो होती है ? इस संबध मे एक धार्मिक तथा पौराणिक कथा प्रचलित है। द्वारिका में एक बार श्री सुभद्रा जी ने नगर देखने की इच्छा प्रकट की। तब श्रीकृष्ण जी, बलराम जी उन्हे पृथक रथ में बिठा कर अपने रथों के मध्य मे उनका रथ करके उन्हे नगर दर्शन कराने गये थे।इसी घटना को स्मरण करने तथा उन पर अपनी श्रद्धा-भक्ति का प्रदर्शन करने के लिए रथयात्रा की परंपरा चल पड़ी।

 

इसे द्वारिका तथा जगन्नाथपुरी में सबसे अधिक महत्व मिला। यह रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया को होती है। यह पुरी का प्रधान महोत्सव है जिसमे देश-विदेश के लोग उपस्थित होते है और जब रथ खींचा जाने लगता है तो लाखो लोग उसमें हाथ लगा देते है। रथ या रथ मे लगी रस्सी का स्पर्श भी हो गया तो लोग अपने को धन्य समझते है। सभी प्रसाद ग्रहण करते है। लड्डू, हलवा, पूडी, फल का प्रसाद चढाया जाता है। वाराणसी मे तिल के लड्डू, नान खटाई फल तथा अन्य खाद्यान्नों की दुकानें सजती है। रथयात्रा से सबन्धित कुछ कथाएं कही-सुनी जाती है जिनमें से एक इस प्रकार है-

 

प्राचीन काल मे मालवन नरेश इन्द्रुम्न नीलांचल पर श्री नीलमाधव के श्रीविग्रह के दर्शनार्थ चल पडे। किन्तु उनके वहा पहुंचने के पूर्व ही देवगण उस श्रीविग्रह को लेकर अपने लोक मे चले गये। उसी समय आकाशवाणी हुई कि दारुब्रह्म रूप मे तुम्हे अब श्री जगन्नाथ जी के दर्शन होगे। राजा इन्द्रद्युम्न सपरिवार नीलांचल के पास रहने लगे। एक दिन समुद्र मे एक बहुत बडा काष्ठ (महादारू) बहकर आया। राजा ने उसे निकलवाकर उससे विष्णु-मूर्ति बनवाने का निश्चय किया।उसी समय वृद्ध बढई के रूप मे विश्वकर्मा आये। उन्होने कहा- “मै मूर्ति बना सकता हू, परन्तु मै जब तक सूचित न करू, मेरा वह कक्ष खोला न जाय जिसमे मै वह मूर्ति बनाऊगां।” राजा ने इसे स्वीकार कर लिया।

 

गुंडीचा मंदिर के स्थान पर भवन मे वृद्ध बढई महादारू को लेकर मूर्ति बनाने लगे। कई दिन बीत गये। महारानी को शंका हुई कि इतने दिनों मे वह बिचारा बिना अन्न-जल ग्रहण किये कही मर न गया हो, महाराज ने उसकी अवस्था देखने के लिए द्वार खुलवाया।‌‌ बढ़ई तो अदृश्य हो गया था, परन्तु वहां श्री जगन्नाथ जी, सुभद्रा जी तथा बलराम जी की अपूर्ण प्रतिमाएं मिली। राजा को बडा दुख हुआ, परन्तु उसी समय आकाशवाणी हुईं- “चिंता मत करो, इसी रूप में हमारी रहने की इच्छा है। मूर्ति पर प्रवित्र दृश्य रण आदि चढाकर उसे प्रतिष्ठित करा दो। तदनुसार वे दो मूर्तियां प्रतिष्ठित हुईं। गुंडीचा मंदिर को ब्रह्मलोक या जनकपुर कहते हैं।’

 

 

इसी प्रकार अन्य कथाएं भी है। एक अन्य कथा श्रीकृष्ण के अपनी प्राणेश्वरी महा भावरूपिणी श्री राधा किशोरी के महाभाव मे पूर्णत लीन होने के कारण काष्ठवत हो जाने की स्थिति से सबन्धित है। यह यात्रा मूर्ति चतुष्टाय श्रीकृष्ण, बलराम, सुभद्वा, सुदर्शन, श्री नीलाऔचल क्षेत्र को विभूषित करते हुए आज तक विराजमान है।

 

लोलार्क छठ का मेला

 

वाराणसी महानगर के भदैनी मुहल्ले मे गंगा तट पर लोलार्क कुण्ड है। इसी के समीप शिवाला में हयग्रीव मंदिर, मंदिर से पश्चिम हिगुआ तालाब है। यही भगवान जगन्नाथ का भी मंदिर है। भाद्रपद शुक्ल छठ को यहां मेला लगता है और दर्शनार्थी तालाब, कुण्ड में स्नान करके मंदिरों मे दर्शन करते तथा प्रसाद चढाते है। स्त्रियों मे विश्वास है कि ऐसा करने से सुयोग्य संतान पैदा होती है। यहां कजली के दगंल हुआ करते थे। नान खटाई की यहां खूब बिक्री होती है जो एक प्रकार की मिठाई है। नगर का यह बड़ा प्रसिद्ध मेला हैं। यही पर शांतिप्रिय द्विवेदी, डा नामवर सिंह, डा, काशीनाथ सिंह साहित्यकारों का आवास है।

 

 

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