मणिपुर में श्री राधा-कृष्ण भक्ति का सन् 1697 ई० से प्रचार प्रसार हुआ। तब से श्री राधा-कृष्ण से संबंधित विभिन्न पर्व त्योहारों एवं उत्सव मणिपुर मे मनाएं जाने लगे। किन्तु कुछ त्यौहारों और पर्वो की परम्परा बहुत बाद में मणिपुर में आई। कांग चिंगबा रथ यात्रा का त्यौहार भी मणिपुर में बाद के वर्षो से मनाया जाने लगा। मणिपुर के महाराज गंम्भीर सिंह ने अपने शासनकाल सन् 1825-34 ई० में रथयात्रा बोर पुर्नयात्रा त्यौहार का मणिपुर में श्री गणेश किया था।
कांग चिंगबा रथ यात्रा का इतिहास
मणिपुर भाषा में इसको कांग चिंगबा या कांगचिडवा (रथ खीचना) कहते हैं। आाषाढ़ शुक्ला प्रतिपदा को महाराज गरभीर सिंह ने प्रथम कांग चिंगबा रथ यात्रा का आयोजन किया था, आज भी यह इसी दिन मनाया जाता है। “चैथरोल कुम्बाबा” नामक मणिपुर के राजवंश के इतिहास में प्रथम रथ यात्रा का वर्णन उपलब्ध है। वास्तव मे रथयात्रा पुरी (उडीसा) में श्री जगन्नाथ स्वामी के मंदिर का प्रमुख त्यौहार है। चैतन्य महाप्रभु के कारण रथयात्रा का प्रचलन बंगाल में हुआ और वहाँ से यह मणिपुर में आ पहुचा। महाराज गंभीर सिंह को अपने जीवन के प्रारंभिक वर्ष कछार या सिलहट प्रवास में व्यतीत करने पड़े़ थे। वहां रथयात्रा का त्यौहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता था। उन्ही दिनो की बात है कि रथयात्रा ओर मुहर्रम त्योहार एक दिन पड़ गए। अतः गोनार खान जो कछार के नवाब थे, वे हिन्दू प्रजा से कहा कि रथ यात्रा एक दिन बाद में मनाया जाए। बात बढ़़ गई और हिन्दू-मुस्लिम प्रजा में विवाद उठ खड़ा हुआ। किंतु महाराजा गंभीर सिंह ने अपने सैनिकों की सहायता से संभावित साम्प्रदायिक दंगे को टाल दिया और दोनो सम्प्रदाय के लोगो ने त्योहार शांति से मनाएं।
जगन्नाथ क्षेत्र से महाराजा गंभीर सिंह ने एक पंडा बुलवाया और मणिपुर में प्रथम बार श्री जगन्नाथ, बलराम व सुभद्रा की मूर्तियां बनवाई। उसी को देखरेख में त्रिमूर्ति एवं 40 फीट ऊँचे बारह पहियो वाले रथ का निर्माण किया गया । महाराजा ने स्वयं अपने सामंतों के साथ इस रथ को खींचा। रथ के आगे-आगे संकीर्तन दल संस्कृत कवि जयदेव के गीत, गोविन्द के पद्य गाते हुए तथा नृत्याभिनय करते हुए चले । महाराजा गंभीर सिंह के द्वारा चलाई गई इस परम्परा का आज भी मणिपुर में कांग चिंगबा रथ यात्रा के रूप में पालन किया जाता है।
कांग चिंगबा रथ यात्रा का वर्तमान स्वरूप
मध्यकाल में कांग चिंगबा त्यौहार राजमहल में आयोजित किया जाता था और इसके अनुकरण पर प्रत्येक गाँव गली में भी इसका आयोजन किया जाने लगा। रथ पर बनाई जाने वाली अम्बाडी का आकार बर्मा के बौद्ध पयोडा के आकार का होता था। सप्रति रथ चार पहियों का होता है। रथ के निर्माण के लिए पहले राजकोष से धन दिया जाता था अब रथ प्रजा द्वारा दी गईं दक्षिणा से बनाया जाता है या बस्ती का कोई धनी व्यक्ति रथ का निर्माण कराता है।
कांग चिंगबा रथयात्रारथ को चारो ओर से थी जगन्नाथ प्रभु के बडे-बडे चित्रो से सजाया जाता है। रथ पर त्रिमूर्ति अम्बाडी के नीचे प्रतिष्ठित की जाती है। जिसके दोनो ओर दो कन्याएं चेंवर डुलाती खड़ी रहती हैं। दो ब्राह्मण पुजारी मूर्तियों के सामने पूजा आरती के लिए खडे रहते हैं। रथ को रस्सियो से भक्त जन खींचते हैं। प्रत्येक घर के सम्मुख रथ को रोका जाता है, जहां गृह स्वामी वर्तिका, फल एवं पुष्प अर्पित करता है। पुजारी वर्तिका को प्रज्वलित करके भक्तों को लौटाते हैं। भक्त इसकी राख को अपने मस्तक पर लगाते हैं और बाद मे अपने द्वार पर ले जाकर रखते हैं। लोक विश्वास है कि इस वर्तिका के द्वार पर रखने से उस से उस घर पर दुरात्माओ का प्रभाव नही हो सकेगा। सामूहिक दक्षिणा से तेयार किया गया खिचडी का प्रसाद भी उपस्थित जनसमूह में पुजारी बांटते चलते हैं।
रथ के आगे सकीर्तन दल मृदंग, झाल, करताल,घंटे व शंख बजात नाचते-गाते चलते हैं। संकीर्तन दल जो नृत्य संगीत प्रस्तुत करते हैं, विशिष्ट शास्त्रीय संगीत पर आधारित होता है। प्रत्येक भक्त एव संकीर्तन दल का सदस्य नंगे पाँव होता है। सभी पुरुष सफेद धोती और कुर्त्ता व सफेद चादर ओढ़े हुए होते हैं। जबकी महिलाएं भगवे रंग का फनेक (लूंगी-तहमद) और सफेंद रंग की चादर ओढकर रथयात्रा मे भाग लेती हैं। नर्तक पुरुष दल सफेद धोती पर कमर पर सफ़ेद कपड़े की मेखला (कमरबंद) बांधते हैं। सिर पर ये लोग सफेद रंग के साफे बांधे होते हैं।
कांग चिंगबा रथ यात्रा का रथ श्री गोविन्द जी मंदिर से सर्व प्रथम दिन के अंतिम भाग में निकाला जाता हैं और संध्या समय पुन मंदिर में लौट आता है। पुरी में रथ एवं त्रिमूर्ति उसी दिन मंदिर मे नहीं लौटाई जाती है। पुरी की रथयात्रा से मणिपुर की रथयात्रा इस दृष्टि से भिन्न है। पुरी में रथयात्रा केवल श्री जगन्नाथ स्वामी के मंदिर से निकाली जाती है, जबकि मणिपुर में अनेक मदिरों से और प्रत्येक गाँव-गली से। रथयात्रा की रात्रि से नौ रातों तक, प्रत्येक मंदिर में, भक्त जन मंडप में एकत्र होते हैं। (प्रत्येक मंदिर में मंडप अवश्य होता है। ) इस अवसर पर “खुबाक ईशे” नामक भजन-कीर्तन किया जाता है। “नट चौलम” नामक ताली बजाकर एक विशेष नृत्य किया जाता है। यह उल्लेखनीय तथ्य है कि मणिपुर के नृत्य राग-रागनियां विशेष पद्य त्योहारों की देन है। ‘खुबाक इशे” रथयात्रा त्यौहारों का आकर्षक एवं महत्वपूर्ण
अंश है। यह स्त्रियों के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है जो उनकी कोमलता के अनुकूल है। “पूड चौलम” विशिष्ट मृदंग नृत्य है, जो कुशल कलाकारों द्वारा प्रस्तुत किया जाता हैं। ये नृत्य एव गायन विशेष शास्त्रीय पद्धति प्रस्तुत किए जाते है और इनमे भाग लेने वाले कलाकार महीनों तक पूर्वाभ्यास करते है। इस अवसर पर जयदेव रचित दशावतार के पद्य भी गाए जाते हैं। इस अवसर के गीतो में श्री कृष्ण के अवतरण वे साथ गोकुल से मथुरा जाने का। वर्णन तथा राधा ओर गोपियों की विरह व्यथा का चित्रण रहता है।
काडलेन
आषाढ़ शुक्ल दशमी को पुन: यात्रा का आयोजन किया जाता है। कांग चिंगबा रथ यात्रा के दिन की भाँति ही पुन रथ निकाले जाते है और संध्या-समय जब रथ लौट कर मंदिर आता है। तब तीनो मूर्तियों को वापिस मंदिर में यथास्थान रखा जाता है। कांग चिंगबा रथयात्रा के दिन रथ के लौटकर आने पर मू्र्तियों को मंदिर में नहीं रखा जाता है, वल्कि मंडप में रखा जाता है। पुनः यात्रा के दिन कहा जाता है कि कुछ वर्ष पूर्व तक एक दूसरे पर कीचड या पानी आदि फेंकने को परम्परा थी किन्तु अब ऐसा नही किया जाता है।
कांग ऊ रथयात्रा और पून: यात्रा के दिन दोपहर बाद नगर व गाँवों में बस आदि सवारियों का चलाया जाना बन्द कर दिया जाता है, ताकि रथयात्रा के जुलूस निकाल सके। मणिपुर की संपूर्ण घाटी में उत्सव का वातावरण छा जाता है। नो दिन तक मध्यरात्रि तक मंदिर प्रागणों में नृत्य, गान एवं संगीत चलता है। तथा घरों में संध्या का भोजन नहीं बनाया जाता है, मंदिर में ही सामूहिक भोज होते हैं। इस भोजन में कमल के पत्ते पर खिचड़ी का प्रसाद दिया जाता है। समान वेषभूषा में सजे लोगों का बिना किसी भेदभाव के एक ही पंगत में बैठकर खाना श्लाघनीय है। दर्शक के चर्म चक्षुओ को यह त्योहार अपूर्व आनन्द प्रदान करता है तो प्रक्ष चक्षुओ के द्वारा वह भक्ति भाव में निमग्न होता हैं और वह मणिपुर घाटी के लोगो के धार्मिक’ एवं सांस्कृतिक वैभव का अनुभव कर सकता है। नृत्य, गान, संगीत एवं अभिनय की कलात्मक- शेष्ठता एव शास्त्रीय नियम बद्धता से वह अभिभूत हो जाता है।रथयात्रा एवं पुनयात्रा त्योहार की परम्परा श्री कृष्ण भक्ति की देन है।
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