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कश्मीर राज्य

कश्मीर राज्य का इतिहास – History of Kashmir state in hindi

कश्मीर राज्य प्रकृति देवी का लीला-निकेतन है। प्रकृति ने अपनी सारी शक्ति के साथ इस स्थान को सुन्दर बनाने का यत्न किया है।यह स्थान स्वर्गीय सौन्दर्य से विभूषित है। प्रकृति देवी ने अपना सारा श्रृंगार सजकर इस रियासत को अपनी लीला-भूमि बना रखा है। सचमुच कश्मीर इस मृत्यु-लोक में स्वर्ग है। सौभाग्य से कश्मीर राज्य का प्राचीन इतिहास उतना अंधकार में नहीं है, जितना कि भारत वर्ष के अन्य प्रान्तों का। महाकवि कल्हण ने राज तरंगिणी लिखकर वहाँ के इतिहास पर अच्छा प्रकाश डाला है। काश्मीर के इतिहास पर यह ग्रन्थ प्रमाणभूत माना जाता है। डा० स्नेन महोदय ने बड़े परिश्रम और योग्यता के साथ इसका अंग्रेजी अनुवाद किया है। अनेक इतिहास वेत्ताओं ने इसी ग्रंथ से प्रकाश ग्रहण किया है। इस ग्रन्थ रतन की भूमिका में कल्हण ने अपने पूर्वगामी सुब्रत, क्षेमेन्द्र, नीलमुनि पद्म मिहिर व हेलराज आदि इतिहास वेत्ताओं का उल्लेख किया है। कल्हण ने अपने ग्रन्थ में सन् 1148 तक का वृत्तान्त दिया है। इसके बाद श्रीधर कवि ने सन् 1486 तक के इतिहास पर प्रकाश डालने का यत्न किया है। प्राज्ञ भट्ट ने अपने “राजबल्लि पट्टक’ नामक ग्रन्थ में सन् 1588 तक का वृत्तान्त प्रकाशित किया है। इसके बाद का इतिहास फारसी और अंग्रेजी ग्रंथों में मिलता है। ‘राजतरंगिणी’ में कहा हैः—“क्लपारंभ से लगाकर छः मन्वन्तरों के युग तक हिमालय की तटभूमि जल-मग्न थी। शंकर की प्रिय, पार्वती उस जल में नौका नयन कर मनोरंजन किया करती थी। उसे यह स्थान अति प्रिय था। उसने इसका नाम सती-सरोवर रखा था। इस सरोवर में जलोद्रव नामक राक्षस राज्य करता था। वह बड़ा प्रजा-पीड़क था। अतएव प्रजापति काश्यप ने उक्त राक्षस का वध कर कश्मीर राज्य का निर्माण किया। फिर यहाँ लोक बस्ती होने लगी और कई छोटे छोटे राज्यों की स्थापना होने लगी।”

अति प्राचीन-काल में इस पवित्र और निर्सग रमणीय प्रदेश पर
गानर्द नामक राजा राज करता था। इस राजा के वंशजों ने कुछ शताब्दियों तक वहाँ राज्य किया। कश्मीर राज्य में उस समय केवल नाग लोगों की बस्ती थी। ये सूर्य की पूजा करते थे। यहाँ ब्राह्मण धर्म का प्रचार था। इसके बाद्‌ सन् पूर्व 245 में सम्राट अशोक ने बौद्ध भिक्षुक भेजकर भगवान बुद्धदेव के धर्म का प्रचार करवाया।

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History of the Kashmir state

कश्मीर का राजवंश और उसका इतिहास

सम्राट अशोक और कश्मीर

सम्राट अशोक के राज्य-काल ही से कश्मीर के प्रामाणिक इतिहास का आरम्भ होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि सम्राट अशोक का विजयी झण्डा कश्मीर पर भी फहराता था। यहाँ अशोक ने कई बौद्धमठ बनवाये थे जिनके अवशेष आज भी विद्यमान हैं। यह वर्णन ईसा से 250 वर्ष पूर्व का है। इस समय उत्तर-भारत में बौद्धधर्म का बढ़ा जोर था औरपंजाब के ग्रीक राज्यों की भी उसके साथ सहानुभूति थी। सम्राट अशोक ने बौद्धधर्म को राजधर्म का रूप दे दिया था और उसके प्रचार में उन्होंने अपनी सारी शक्ति लगा दी थी। जब कश्मीर उनके साम्राज्य में मिला लिया गया तो वहाँ भी कई बौद्धमठ तथा मन्दिर बनवाये गये। श्रीनगर शहर सम्राट अशोक ही ने बसाया था। सम्राट अशोक ब्राह्मण धर्म के बन्धनों को तोड़ चुके थे अतएव उन्होंने मिश्र और यूनान के साथ मित्रता का सम्बन्ध स्थापित कर वहां के बहुत से पत्थर का काम करने वाले कारीगरों को अपने यहां बुला लिया था। यद्यपि इस समय काश्मीर से बौद्धधर्म का लोप हो गया है और न सम्राट अशोक का बसाया हुआ शहर ही आज विद्यमान है तथापि उसके अवशेष ही इस बात की स्पष्ट घोषणा करते हैं कि किसी समय एक बड़े पराक्रमी सम्राट ने इस प्रान्त पर राज्य किया था।

महाराजा कनिष्क के समय में कश्मीर

कश्मीर के दूसरे प्रतापी नरेश महाराजा कनिष्क हुए। आपका राज्य काल सन् 40 के लगभग का है। इसी समय चीन में बौद्ध” धर्म के प्रचार का आरम्भ हुआ था। महाराजा कनिष्क तुर्की खानदान के थे। आप बौद्ध धर्म के पड़े पोषक थे। आपके राज्य- काल में कश्मीर में तीसरी बौद्ध महासभा हुई थी। इसी समय से बौद्ध धर्म महायान और हीनयान नामक दो भागों में विभाजित हुआ। आपके समय कश्मीर राज्य में नागार्जुन नामक एक महापुरुष हुऐ जिन्होंने अपने तपोबल से बोधि-सत्व की उपाधि प्राप्त की थी। इस समय कशमीर में बौद्धधर्म का बड़ा ज़ोर था। पर जिस ब्राह्मण धर्म के खिलाफ यह उठा था उसका प्रभाव फिर बढ़ता चला ओर धीरे धीरे बौद्ध-धर्म का अन्त हो गया। सन् 631 में सुप्रसिद्ध चीनी यात्रीह्वेंनसांग कश्मीर में आया था। उस समय वहाँ की बौद्ध धर्म की हालत को देखकर उसने कहा था कि “इस राज्य के निवासी धर्म के पाबन्द नहीं हैं।”

कार्कोटक वंश के समय में

भारतीय इतिहास के मध्य युग में, सातवीं सदी में, कश्मीर राज्य
पर कार्कोटक वंश की राज्यसत्ता थी। सन् 602 में गोनदीय राजवंश के बालादित्य नामक राजा निपुत्रिक मर गये। इन्होंने अपने अन्त समय में दुर्लभ वर्धन नामक अपने दामाद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। अतएव बालादित्य की मृत्यु के बाद सन् 602 में दुर्लभ वर्धन राज सिंहासन पर बेठे। इनका वंश कार्कोटक-वंश के नाम से सुविख्यात हुआ। दुर्लभवर्धन बढ़े राजनीतिज्ञ और दूरदर्शी थे। इन्होंने 38 वर्ष तक निष्कंटक रूप से राज्य किया। इनके वंश में कई बढ़े पराक्रमी, कतृत्यवान, और जोरदार राजा हुए। उनकी संख्या कुल मिलाकर 17 थी। उन्होंने सन् 602 से लगाकर 856 तक अर्थात्‌ कोई 254 वर्ष तक कश्मीर राज्य में एकाधिपत्य रूप से राज्य किया।

36 वर्ष तक राज्य करने के बाद महाराजा दुर्लभ वर्धन का ई० सन् 637 में देहावसान हुआ। उनके बाद उनके पुत्र दुर्लभक राज्य सिंहासन पर विराजे। इन्होंने अपना नाम प्रतापादित्य’ रखा। राजतरंगिणी में लिखा है कि उन्होंने लगातार 50 वर्ष तक राज्य किया पर यह बात ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य मालूम नहीं होती। प्रतापादित्य बड़े पुण्यशाली हुए। कल्हण ने अपनी राजतरंगिणी में इनकी न्याय-प्रियता और प्रजा-हित-तत्परता की बड़ी प्रशंसा
की है। महाराजा प्रतापादित्य ने रोहित-देश के ब्राह्मणों के लिये ‘नोखमठ’ नामक एक मठ स्थापित किया। उन्होंने त्रिभुवन स्वामी का मन्दिर बनवाया। उनकी धर्म पत्नि प्रकाश देवी ने प्रकाश विहार नामक एक बिहार स्थापित किया। वह जाति की वैश्य थी। राव बहादुर वेद्य महोदय अनुमान करते हैं कि, यह प्रकाश-बिहार बौद्ध-विहार होना चाहिये। क्‍योंकि उस समय वेश्य लोग या तो बोद्ध-धर्मनुयायी थे या जैन धर्मवलम्बी। महाराजा प्रतापादित्य के
गुरु मिहिरदत्त नामक एक ब्राह्मण थे। उनकी प्रेरणा से गम्भीर- स्वामीनामक एक विष्णु-मन्दिर बनवाया गया। उस समय क्या राजा, क्या रानियाँ, क्या मंत्री सबको अपने अपने इष्ट देवताओं के मन्दिर बनवाने का बड़ा शौक था। महाराजा प्रतापादित्य, जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं, धर्मशीलता ओर न्यायपरता के साक्षात अवतार थे। वे बड़े प्रजा-प्रिय थे।

महाराजा प्रतापादित्य के तीन पुत्र थे। इनके नाम क्रमशः चन्द्रापीड़
तारापीड़ और मुक्तापीड़ थे। चंद्रापीड़ बड़ी अवस्था में राज्य सिंहासन पर बेठे। उन्होंने केवल आठ वर्ष तक राज्य किया। ये अपने पिता की तरह सद्गुणी थे। कल्हण ने लिखा दे कि इनके छोटे भाई तारापीड ने इन्हें मूठ डलवा कर मरवा दिया। चन्द्रापीड़ के बाद उनका छोटा भाई हत्यारा तारापीड़ गद्दी पर बैठा। इसने केवल चार वर्ष और 24 दिन तक राज्य किया। यह बड़ा दुष्ट और जुल्मी था।

महाराजा ललितादित्य के समय कश्मीर का इतिहास

तारापीड़ के बाद उसके छोट बन्धु मुक्तापीड ललितादित्य नाम धारण कर गद्दी पर विराजे। ये महान प्रतापी नृपति हुए। इनके गौरव से कश्मीर का इतिहास ज्वाल्यामान हो रहा था। महाराजा ललितादित्य ने दिग्विजय के लिये बड़ी धूमधाम के साथ यात्रा की थी। कल्हण ने अपनी ‘राजतरंगिणी” मे इस दिग्विजय का बडा सरस ओर मार्मिक वर्णन किया है। कुछ इतिहास वेत्ताओं की राय है कि यह वर्णन केवल काल्पनिक है। पर तत्कालीन सिन्ध के इतिहास चर्चनामा में भी इस दिग्विजय का कुछ उल्लेख है। अतएव हमारी राय में इसे केवल काल्पनिक मानना भ्रम है । चर्चनामा में लिखा हैः– “कश्मीर के महाराज बढ़े प्रतापी है। हिन्दुस्थान के कई बड़े बड़े महाराजा उनके चरण में सिर झुकाते हैं। उनका राज्य न केवल भारत वर्ष में ही वरन बाहर मेकरान, और तुराण देशों में भी फेला हुआ है। बड़े बड़े सरदार और उमराव उनकी आज्ञा पालन करने में अपना सौभाग्य समझते है। उनके पास 100p हाथी हैं। वे खुद एक सफेद हाथी पर सवार होते हैं। उनके सामने खड़े होने को किसी की हिम्मत नहीं होती।” राव बहादुर चिन्तामण राव वैद्य महाशय का कथन है कि ललितादित्य की दिग्विजय एक ऐतिहासिक घटना है। यह विजय समुद्रगुप्त और हर्षवर्धन की दिग्विजय के मुकाबले की है।

ललितादित्य का दिग्विजय

महाराजा ललितादित्य ने कर्लिंग, कर्नाटक, कावेरी प्रदेश,कोंकण,
सौराष्ट्र, और अवन्ति आदि देशों के बढ़े बड़े राजाओं पर विजय प्राप्त कर उन्हें अपने आधीन बनाया था। चर्चनामा से मालूम होता है कि सिंध के तत्कालीन राजा ने भी ललितादित्य का आधिपत्य स्वीकार किया था। इस प्रकार पूर्व, दक्षिण और पश्चिम के राजाओं पर विजय प्राप्त कर महाराजा ललितादित्य वापस घर लौटे थे। इसके पश्चात्‌ आप उत्तरीय प्रदेश, तिब्बत तुर्किस्तान आदि देशों पर विजय करने का विचार करने लगे। कुछ समय बाद तिब्बत तो सहज ही में उनके हाथ आ गया। तुर्किस्तान के महाराजा मुमुनी ( मुमेन खां ) ने उनका बडे ज़ोर के साथ मुकाबला किया। पर अन्त में ललितादित्य की विशाल-शक्ति के आगे लाचार हो घुटने टेकने पड़े। मुमेन खां तीन बार परास्त हुआ। भारत वर्ष के इतिहास में यह प्रथम ही अवसर था कि एक भारतीय राजा ने तुराण जैसे कट्टर लोगों पर विजय प्राप्त की थी। यह दिग्विजय ऐतिहासिक घटना है। कल्हण ने इस दिग्विजय का वर्णन करते हुए वहाँ के तत्कालीन राजा मुमेन खां का भी उल्लेख किया है। इनके सिवा और भी प्रदेशों पर महाराजा ललितादित्य ने अपनी विजय ध्वजा फहराई थी।

कश्मीर राज्य
कश्मीर राज्य

महाराजा ललितादित्य और उनके कार्य

महाराजा ललितादित्य ने जिस प्रकार अनेक देशों को विजय कर
उन पर विजय-पताका फहराई थी, उसका उल्लेख हम ऊपर कर ही चुके हैं। अब हम उनके कार्यो का वर्णन करते हैं। उपरोक्त वर्णित दिग्विजय में महाराजा ललितादित्य के हाथों अटूट सम्पत्ति लगी थी। इससे उन्होंने बड़े बड़े मन्दिर और देवालय बनवाये। उन्होंने ‘भूतेश” नामक एक शिव का मन्दिर बनवाया, जिसमें 11 करोड़ रुपये खर्च किये। इसी प्रकार उन्होंने एक विशाल मार्तड ( सूर्य ) का मन्दिर बनवाया जो अब तक प्रसिद्ध है। इन्होंने चक्रपूर की वितस्ता नदी पर एक पुल तैय्यार करवाया। श्रीनगर के पास परिहासपुर नामक एक नगर बसाया और वहां ‘परिहास केशव नामक विष्णु का मन्दिर बनवाया। इस मन्दिर में गरुड़, विष्णु, बराह की बड़ी बड़ी रत्न जड़ित स्वर्ण प्रतिमाएं प्रतिष्ठित की । इन सब उपरोक्त बातों का वर्णन कवि कल्हण ने अपनी ‘राज तरंगिणी’ नामक पुस्तक में किया है। इतने बढ़े बड़े कीमती मन्दिर बनवाने से तथा उनमें असंख्य द्रव्य रखने से वे किस प्रकार मुसलमानों के हमलों के कारणीभूत हुए, यह बात यहाँ लिखने की आवश्यकता नहीं। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा हुआ है।

परोपकारी कार्य

महाराजा ललितादित्य ने न केवल बड़े बड़े मन्दिर और विहार ही बनवाये वरन्‌ उन्होंने अपने राज्य में स्थान स्थान पर भूखों के लिये ‘अन्नक्षेत्र’ और प्यासो के लिये प्याऊ गृह भी स्थापित किये। तुर्किस्तान में जहाँ कितने ही कोसो तक जल के दर्शन तक न होते थे वहाँ कई स्थानों पर कुए खुदवा कर तालाब बनवाकर अपनी भूत-दया का प्रदर्शन किया। ये कुएं या तालाब अपनी टूटी-फूटी अवस्था में अब भी पाये जाते हैं। तत्कालीन नरेश तब कलयुग में ललितादित्य सत्ययुगीन राजा थे तथा तत्कालीन कश्मीर राज्य के लिये वे अभिमान करने योग्य व्यक्ति थे। उन्हें चीन के तत्कालीन सम्राट ने अपना एक प्रतिनिधी मण्डल भेजकर राजा की उपाधि से विभूषित किया था। भारतवर्ष में ये चक्रवर्ती कहलाते थे। इन महा पराक्रमी नृपति का सन् 736 में शरीरान्त हुआ।

कुवलयापीड़़

पराक्रमी ललितादित्य के पश्चात्‌ उनके पुत्र कुवलयापीड़़ राज्य- सिंहासन पर विराजे। ये बड़े कमजोर थे। अपने पराक्रमी पिता का एक भी गुण इनमें नहीं था। एक समय इनके एक प्रधान ने इनकी आज्ञा न मानी इससे इन्हें इतना रंज हुआ कि सारी रात नींद न आई। दूसरे दिन सुबह चित्त में संसार से विरक्ति छा गई और राज पाट छोडकर इन्होंने अरण्यवास स्वीकार किया। इन्होंने केवल एक साल 15 दिन तक राज्य किया।

वज्रादित्या

कुवलयापीड़ के बाद उनके भाई वज्रादित्य कश्मीर राज्य के राज्य सिंहासन पर अधिष्ठित हुए। ये बड़े विषय-लंपट थे। इसी से इन्हें सात वर्ष के बाद अपने प्राणों से हाथ धोना पड़े। इनके बाद इनके ज्येष्ठ पुत्र संग्रामपीड़़ सिंहासन पर विराजे। ये भी सात वर्ष राज्य करने के पश्चात्‌ काल के कलेवर हुए। इनके पश्चात्‌ इनके भाई
जयापीड़़ सिंहासन पर विराजे।

महाराजा जयापीड़

महाराजा ललितादित्य के समय में ही जयापीड़ ने अपने उत्कृष्ट गुणों का परिचय दिया था। इस पर एक समय ललितादित्य ने जयापीड़ के महान पराक्रमी होने की भविष्यवाणी करी थी। दरअसल आगे जाकर जयापीड़ बड़े पराक्रमी, वीर्यवान और विद्वान निकले।

जयापीड़़ की दिग्विजय यात्रा

सिंहासन पर अधिष्ठित होते ही वीर्यशाली भारतीय राजाओं की तरह जयापीड़ ने भी दिग्विजय के लिये कमर कसी। पहले की तरह इस समय भी कन्नौज के राजाओं को परास्त कर वे प्रयाग तक आये। यहां उन्होंने ब्राह्मणों को बड़े बड़े दान दिये। जयापीड़़ की इच्छा और भी आगे बढ़ने की थी, पर उसकी सेना ने थक जाने के कारण आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया। इससे जयापीड़ निराश न हुए। वे अकेले ही बंगाल की ओर चले गये। वहाँ उन्होंने एक जबरदस्त सिंह को मारकर वहां के राजा जयंत का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। जयंत इनसे इतना खुश हुआ कि उसने अपनी एक सुन्दर कन्या का विवाह इनके साथ कर दिया। इसके बाद कुछ राजाओं पर विजय प्राप्त कर वे कश्मीर लौट आये रास्ते में उन्होंने कन्नोज का बहुमूल्य सिंहासन हस्तगत किया ओर उसे काश्मीर ले गये। जयापीड की अनुपस्थिति में जज नामक एक मनुष्य ने कश्मीर का राज्य हड़प लिया था। जयापीड़़ ने उसे परास्त कर अपना राज्य वापस ले लिया। इस प्रकार अपने महाराजा को पाकर प्रजा को अपार हर्ष हुआ।

महाराजा जयापीड़ का विद्या प्रेम

जयापीड़ बड़े विद्या-प्रेमी थे। विद्वानों के वे बड़े आश्रयदाता थे।रण मैदान की तरह शास्त्रार्थ में भी वे बडे बड़े पंडितों से टक्कर लेते थे। और उन पर विजय प्राप्त करते थे। उन्होंने अष्टाध्यायी का पातंजली मुनि कृत महाभाष्य पढ़ाने के लिये सुविख्यात् पंडित क्षीर-स्वामी को अध्यापक नियुक्त किया था। उनके दरबार के पंडितों के अध्यक्ष उद्धटालंकार नामक साहित्य ग्रंथ के कर्ता पंडित उद्धट थे। कल्हण का कथन है कि इस पंडितराज को वे एक लाख दिनार वेतन देते थे। इनके अतिरिक्त मनोरथ, शंखदत्त, चटक, वामन, दामोद्र गुप्त आदि बड़े बड़े विख्यात पंडित इनके दरबार की शोभा बढ़ाते थे। उस समय भारत वर्ष में जहां जहां अच्छे विद्वान मिलते थे, महाराज जयापीड़ उनको लाने के लिये प्रयत्नशील रहते थे। इससे काश्मीर राज्य विद्वानभूमि कही जाने लगी थी। दूसरे प्रान्तों में विद्वानों का मानों अकाल पड़ गया था। इनके समय में काश्मीर विद्या और संस्कृति की दृष्टि से अत्यंत गौरवमय हो गया था।

जयापीड़ विद्या-वृद्धि के लिये जिस प्रकार प्रयत्नशील थे, उसी प्रकार उनमें अन्य राजाओं को अपने वश करने की लालसा भी बड़ी जबरदस्त थी। वे माण्डलिक राजाओं की सहायता से अन्य राजाओं पर चढ़ाई करते रहते थे। इनके सहायकों में तुराण देश के पुत्र कथित राजा मुम्मुनी का नाम देखकर आर्श्चय होता है। उन्होंने नेपाल पर भी चढ़ाई की यहाँ उनकी पराजय हुई। वहाँ के अरमुंडी नामक राजा ने उन्हें कैद कर लिया। उनके एक बुद्धिमान मंत्री ने अपनी जान को कोई परवाह न कर बड़ी युक्ति से उन्हें बन्धन-मुक्त कर अपनी नई सेना के पास पहुँचा दिया। इसके बाद उक्त सेना की सहायता से जड़ापीड़, नेपालाधिपति को परास्त कर कश्सीर लौटे। वहाँ खूब विजयोत्सव मनाया गया। सन् 882 में इन पराक्रमी नरेश का शरीरान्त हुआ। जयापीड़ के बाद उनके पुत्र ललितापीड़ सिंहासनारूढ़ हुए। उन्होंने अपने पिता की प्राप्त की हुई सम्पति को ऐशो-आराम में उड़ाया। इनके बाद इनके बन्धु संग्रामपीड़ राज्यासन पर बेठे। सात वर्ष राज्य कर ये भी काल-कलेवर हुए। इनके बाद ललितापीड़ के चिप्पट जयापीड़ नामक अल्पवयी पुत्र गददी पर बैठे। ये बडे ही कमजोर थे। इन्हीं के समय से कार्कोटक राज्यवंश अस्त होता चला। अन्त में धीरे धीरे इस वंश की सत्ता उत्पल घराने में चली गई।

उत्पल राजवंश के समय कश्मीर राज्य का इतिहास

सन् 885 में उत्पल वंश के अवन्ति वर्मा कश्मीर के राज सिंहासन
पर आरूढ़ हुए। ये बड़े न्यायी और कर्त्तव्यवान थे। इनके विशुद्ध
न्याय की कुछ कथाएं कल्हण ने अपनी ‘राजतरंगिणी’ में दी हैं। इन्होंने अपने राज्य में अनेक प्रजाहित के काम किये। खेती की उन्नति के लिये जगह जगह नहरों का प्रबंध किया। इस प्रबंध से बहुत सी बंजर जमीन आबाद हो गई। कल्हण का कथन है कि पहले सुकाल के समय में भी एक खाडी चावल की कीमत 200 दीनार होती थी। अब इस नवीन व्यवस्था के कारण उसी की कीमत 36 दिनार होती है। इससे प्रजा बढ़ी सुखी हुई। चहुँ ओर सुख और शांति की लहरे चलने लगीं। अवन्ति वर्मा बढ़े धार्मिक थे। इन्होंने अनेक शिव और विष्णु के मन्दिर बनवाये। महाराज अवन्ति वर्मा महा वैष्णव थे। वे अहिंसा के कट्टर प्रति-पालक थे। इन्होंने अपने राज्य भर से हिंसा बंद करवा दी थी। कल्हण ने लिखा है कि, दस वर्ष तक कश्सीर राज्य में एक भी प्राणी का प्राणवध न किया गया। इनके राज्य में सब प्राणी निर्भेयता से विचरण करते थे। वह एक स्वर्गीय शासन था। इनके समय में भट्ट, कल्लट आदि कई सिद्ध पुरुषों का उदय हुआ। जिस प्रकार महाराज अवन्ति वर्मा की समग्र आयु धर्माचरण में गई, वैसे ही इनका अन्त भी इसी स्थिति में हुआ। श्रीमद्भगवतगीता का अध्ययन करते करते सन् 914 में इनका स्वर्गवास हो गया। इन्होंने 29 वर्ष तक राज्य किया था।

महाराजा शंकर वर्मा

महाराजा अवन्ति वर्मा के बाद उनके पुत्र शंकर वर्मा राज्यासन पर बैठे। ये बड़े बहादुर थे। इन्होंने कई राजाओं पर विजय प्राप्त की थी। इनकी सेना महा विशाल थी। कल्हण ने लिखा है कि इनके पांस 9 लाख पैदल सेना और 300 हाथी थे। इस सेना की सहायता से इन्होंने तत्कालीन गुर्जराधीश पर विजय प्राप्त की थी । इसके बाद इन्होंने कन्नौज के भोज द्वारा पदच्युत किये गये थक्कीय वंशजों को उनका पूर्व पद दिलवाया था। कल्हण का कथन है कि “हिमालय और विद्याद्रि के बीच जिस प्रकार आर्य देश शोभा पा रहा है । उसी प्रकार एक ओर दरद और दूसरी ओर तुरष्क के बीच अजय होकर शंकर वर्मा का प्रताप प्रकाशित हो रहा है। शंकर वर्मा ने शाहीराजा लल्लिय को परास्त किया। इन्होंने काबुल पर भी अपना विजयी झंडा फहराया था। शंकर वर्मा वीर तो थे, पर धर्मवृत्ति का इनमें लेश भी न था। इन्होंने पंडितों को भी आश्रय नहीं दिया। इससे कई पंडितों ने दूसरा व्ययसाय स्वीकार किया था। सन् 902 में शंकर वर्मा को तीर लग जाने के कारण देहान्त हो गया। इनके साथ इनकी तीन रानियां, दो परिचारक और एक प्रधान ने अग्नि में जलकर अपने प्राण दिये थे।

महाराजा शंकर वर्मा के बाद कश्मीर राज्य

शंकर वर्मा के बाद उनके अल्पायु पुत्र गोपाल वर्मा कश्मीर राज्य के राजा हुए पर इनका अति शीघ्र ही देहान्त हो गया। इनके बाद इनके संकट नामक भाई राजगद्दी पर विराजे। पर ये भी संसार से बहुत जल्दी ही कूच कर गये। अतएव शंकर वर्मा की सुगंधा नामक विधवा रानी ने अपने तंत्री नामक सैनिकों की सहायता से अपनी निजी जिम्मेदारी पर राज्य चलाना शुरु किया। जिस प्रकार कान्सटेंटिनोपल में जानिझरी लोगों का, रोमन-राज्य में प्रिटोरियन सेना का, बगदाद में तुर्की सैनिकों का, इंग्लेंड में क्रामबेल का सैनिक-शासन रहा था ठीक उसी प्रकार इस समय कश्मीर रियासत में तंत्री सेना-नायक का शासन था। इसने उक्त वंश के एक दस वार्षिक लड़के को गद्दी पर बिठाया ओर प्रजा से धन लूटना शुरू किया। इससे लोगों को असह॒दय कष्ट हुआ। चारों ओर हाहाकार मच गया। सन् 918 में कश्मीर राज्यमें भयंकर अकाल पड़ा। पर दुष्ट मंत्री ने इस भयंकर समय में भी बड़ी ही कठोरता से राज्य-कर वसूल करना शुरू किया। लोगों की तकलीफें इतनी बढ़ गई कि उन्हें अपने बाल-बच्चों तक को बेचकर राज्य-कर चुकाना पड़ा। राज तरंगिणी में लिखा है:— चन्द्रापीड़़ जैसे भाग्यशाली राजाओं ने बढ़े यत्न से जिस प्रजा का पालन किया था, उसका इस दुष्ट मंत्री ने सत्यानाश कर डाला।” इसी समय इस मंत्री ने चक्र वर्मा नामक एक दूसरे राजा को गद्दी पर बिठाया। यह कुछ करामाती था। इसने समय पाकर डामर लोगों की सहायता से उक्त मंत्री के विरुद्ध शस्त्र उठाकर उसका कास तमाम कर दिया। दुःख है कि चक्र वर्मा ने आगे चलकर अपने प्रधान सहायक डामर लोगों पर अत्याचार करना शुरू किया।वह अपना जीवन दुर्व्यसनों में व्यतीत करने लगा। इसके बाद गद्दी पर बैठने वाले पार्थ राजा ने भी उसी का अनुसरण किया । जब चक्र वर्मा का शरीरान्त हुआ था तब डामर लोगों ने राज्य को लूट लिया था। इसके बाद पार्थ राजा ने कायस्थों को उठाकर प्रजा पर अमानुषिक अत्याचार किया। यह सन् 939 में मर गया। इसी समय के करीब तंत्री लोगों के एक सरदार कमल वर्धन श्रीनगर पर घेरा डालकर डामर लोगों को परास्त किया। इस समय पार्थ राजा की विधवा रानी अपने छोटे बालक को लेकर एक सुरक्षित स्थान पर गुप्त रूप से रहने लगी।

महाराजा यशस्कर कश्मीर राज्य

इसके बाद राजा यशस्कर हुए। ‘राजतरंगिणी’ से मालूम होता है
कि इन्हें ब्राह्मणों ने चुना था। ये बड़े तेजस्वी, प्रतिभासंपन्न, विवेकी
ओर कार्य-कुशल थे। इन्होंने बड़ी ही योग्यता और उत्साह के साथ राजसूत्र का संचालन किया। कल्हण ने अपनी ‘राजतरंगिणी’ में इनके यश का वर्णन करते हुए लिखा है “महाराजा यशस्कर के राज्य में लोग बड़े सुखी और समृद्धिशाली थे। वे अपने घरों के द्वारों को खुले रख निष्कंटक रूप से सुख की नींद सोते थे। चोरों का इतना प्रतिबंध किया गया था कि यात्री मजे से सोना फेकते उछालते हुए यात्रा कर सकते थे। देहात के लोग अपनी कृषि के काम में मस्त थे। मुकदमे बाजी इतनी कम होती थी कि देहाती किसानों को राजदबार में जाने का प्रसंग ही न आता था। मिषक, गुरु, मंत्री, पुरोहित, दूत, न्यायाधिकारी, लेखक आदि सभी पढ़े लिखे एवम विद्वान होते थे। इनमें से कोई भी अपंडित नहीं होते थे । कहने का मतलब यह है कि महाराजा यशस्कर का शासन बड़ा ही दिव्य और आदर्श था पर दुःख है कि ये सुयोग्य नृपति केवल 9 वर्ष राज्य कर स्वर्गसुख का आनंद लेने के लिये इस संसार को छोड़ विदा हुए।

महाराजा संग्राम देव

महाराजा यशस्कर के बाद उनके अल्पायु पुत्र संग्रामदेव राज्यासीन हुए। इस समय राज्य में अव्यवस्था, अत्याचार और दुर्व्यसनों का साम्राज्य सा छा गया था। प्राप्त सु-अवसर से लाभ उठाकर एकांग सामन्त,कायस्थ और तंत्री लोगों की सहायता से पर्वगुप्त नामक मनुष्य ने राज-सिंहासन हथिया लिया। पर कुछ ही दिन राज्य कर वह भी इस दुनियाँ से कूच कर गया। इसके बाद इसका पुत्र क्षेमगुप्त राजा हुआ। इसने सिंहराज नामक लोहाराधिपती की प्रसिद्ध कन्या दिद्दा से विवाह किया। यह दिद्दा काबुल के भीमपाल नामक शाही राजा की द्रौहित्री थी। सन् 957 में क्षेमगुप्त के मर जाने पर इसने कई दिन तक राज्य किया। यह बड़ी विलासी स्त्री थी। इसका तुंग नामक एक खश जाति के प्रधान से प्रेम संबंध था। इसने अपने भाई के पुत्र संग्रामसिंह को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। संग्रामसिंह लोहारवंश का था। इसी समय से कश्मीर की राजसत्ता लोहारवंश के हाथ में आई। उपरोक्त कुविख्यात्‌ रानी दिद्दा ने अनेक प्रजा-पीड़क कार्य करके सन् 1003 में मृत्यु मुख में गिरी। इसने 45 वर्ष तक राज्य किया।

लोहार राजवंश के समय में ‘ राजतरंगिणी ‘ के सुविख्यात कर्ता
महाकवि “कल्हण’ हो गये थे। उन्होंने इस राज्यवंश का वर्णन सविस्तार रूप से किया है। हम उसी का सारांश यहाँ देते हैं। जैसा कि हम ऊपर कह चुके हें कि, लोहारवंश के प्रथम राजा संग्रामदेव हुए। इनके समय में राज्य का सितारा अच्छा प्रकाशित हुआ।इनके समय में मुसलमान भारतवर्ष को फतह करने के लिये जोर-शोर से प्रयत्न करने लग गये थे। इस समय काबुल की गद्दी पर त्रिलोचनपाल नामक राजा राज्य करता था। इस पर मुसलमानों ने चढ़ाई की। त्रिलोचनपाल ने संग्रामदेव से सहायता माँगी। उसने अपने एक तुंग नामक प्रधान को सेना सहित सहायतार्थ भेजा। कल्हण ने अपनी ‘राजतरंगिणी’ में त्रिलोचनपाल और मुसलसानों के युद्ध का बड़ा सरल वर्णन किया है। इसके बाद वह कहता हैः–“’शंकर वर्मा के समय काबुल के उत्कर्ष का हम वर्णन कर चुके हैं। पर अब वह शाहीराज कहाँ हैं ? उसके वैभवशाली नृपति और उनके अपूर्व शानो-शौकत की बातें मन में आते ही यह खयाल होने लगता है कि वास्तव में इनका अस्तित्व था या यह केवल स्वप्न था। कुछ भी हो तुर्कों ने त्रिलोचनपाल को परास्त कर दिया। वह भागकर कश्मीर आया। कहने की आवश्यकता नहीं कि काबुल मुसलमानों के हाथ में पड़ गया। तुंग भी मुसलमानों से हारकर कश्मीर आ गया। कल्हण कहता है “तुंग ने अपने कृत्य से मुसलमानों के लिये भारतवर्ष में आने का मार्ग खोल दिया। यही भारतवर्ष के नाश का आदि कारण हुआ। संग्रामदेव को तुंग से बड़ी नफरत हो गई थी। उसके खिलाफ दरबार में भी बड़ा असंतोष फेला हुआ था। इसी से भरे दरबार में उसका खून हो गया। उसके पक्षवालों को भी प्राणों से हाथ धोना पड़ा। संग्राम 24 वर्ष राज्य कर मृत्यु को प्राप्त हुए। संग्रामसिंह के बाद उनका पुत्र हरिराज राजा हुआ। यह भी अपने पिता की तरह योग्य था। पर देव-दुर्योग से शीघ्र ही यह भी स्वर्गवासी हुआ।

महाराजा अनन्तदेव कश्मीर राज्य

हरिराज के बाद उनके पुत्र अनन्तदेव राज्यारूद हुए। काबुल के
पदच्युत राजा त्रिलोचनपाल के पुत्र रुद्रपाल, दिदपाल, क्षेमपाल,
और अनंगपाल, अनन्तदेव के साथी थे। संग्राम ने इनका अच्छा वेतन कर दिया था। पर ये लोग बड़े फजूल खर्ची थे। ये हमेशा द्रव्य की आवश्यकता में रहते थे। इसलिय लाचार होकर इन्हें प्रजा को सता सता कर चूसना पड़ता था। इतना होने पर भी कल्हण के कथनानुसार वे बड़े पराक्रमी थे। तुर्कों और अनन्तदेव के बीच जो युद्ध हुए थे, उनमें इन्होंने अनन्तदेव की बड़ी सहायता की थी। पर हिन्दुस्थान के लोगों की नित्य की आदत के अनुसार कश्मीर दरबार के एक असंतुष्ट सरदार ने अनन्तदेव का नाश करने केलिये तुर्कों को निमंत्रित किया। इस समय सात तुर्क-सरदार, डामरलोग, दरद का राजा, और कश्मीर का उक्त असन्तुष्ट सरदार ब्रह्मराज ने मिलकर अनन्तदेव के खिलाफ एक भयंकर षडयंत्र की सृष्टि की। सबने मिलकर इनको जमींदस्त करना चाहा। पर अनन्तदेव भी कुछ कम न थे। उन्होंने भी अपने शत्रुओं से जी खोलकर युद्ध किया। इस युद्ध में दरद का राजा मारा गया। कल्हण कहता है कि सातो म्लेच्छ सरदारों में कुछ तो मृत्यु-मुख में चले गये और कुछ कैद कर लिये गये। कहने को मतलब यह है कि तुर्को की सेना को पूरी तौर से ओंधे मुंह की खानी पड़ी। अनन्तदेव की रानी सूर्यमती जालंधर के राजा की कन्या थी। राजा ओर रानी दोनों ही धर्मात्मा थे। इन्होंने कई पुणय-कार्य किये। इसी समय मालवा के भोज राजा ने अपने नाम को चिर-स्मरणीय रखने के लिये वहाँ एक बड़ा कुंड बनवाया। इससे यह प्रतीत होता है कि उक्त दोनों बड़े राजाओं में बड़ा स्नेह संबंध था।

सूर्यमती देवी बड़ी बुद्धिमती और विदुषी थी। वह राज्य-्कार्य-भार में अपने पति की सहायता किया करती थी। दुख है कि इस सुखी ओर बुद्धिमान दम्पत्ति को आगे चलकर बड़े बड़े दुःख उठाने पड़े। इसका कारण यह था कि अनन्तदेव ने अपनी वृद्धावस्था में कलश नामक अपने पुत्र को राज्य सिंहासन देकर वान-प्रस्थाश्रम् ग्रहण किया। कलश बड़ा दुर्व्यसनी निकला। इसके दुराचरणों से दुखी होकर एक दिन अनन्तदेव ने इसे खूब फटकारा। इस पर कलश शिक्षा-ग्रहण करने के बजाय उल्टा नाराज हुआ। वह अपने माता- पिता के प्राण लेने की सोचने लगा। एक वक्त इसने अपने पिता के आश्रम में आग लगा दी। इस समय वृद्ध राजा रानी बड़ी चिन्ता में पड़ गये। वे बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचा सके। वे देश छोड़कर बाहर जाने लगे, पर प्रजा ने बडे आग्रह के साथ में उन्हें देश न छोड़ने दिया। उन्होंने अपने पौत्र हर्ष को अपने पास बुला लिया। हर्ष अपने पिता को छोड़कर बड़ी खुशी से अपने पितामह के पास रहने लगा। पर निष्ठुर कलश ने अपने पिता को दुःख देना न छोड़ा अन्त में तंग आकर अनन्‍तदेव ने आत्म-हत्या कर डाली। कलश इस ससय अपनी माता के साथ सांत्वना प्रकट करने के लिये उसके पास तक न गया। सूर्यमती एक पतितव्रता स्त्री की तरह अपने पति के शव के साथ सती हुईं। कलश भी सन् 1073 में इस संसार से चल बसा।

महाराजा हर्ष

कश्मीर के अन्तिम हिन्दू राजाओं में हर्ष का नाम विशेष उल्लेखनीय है। आप बड़े सहासी, खिलाड़ी और सब कलाओं में प्रवीण थे। संगीत-कला के साथ तो आपका विशेष प्रेम था। आपमे एक विशेषता यह थी कि जहाँ आप कठोर थे वहाँ दयावान भी थे, जहां आप उदार थे वहां कंजूसी भी आप में थी, जहाँ आप अपने मनकी मानी करने के लिये मशहूर थे वहाँ दूसरों की सिखावट में भी जल्द आ जाते थे। और जहाँ आप बडे चालाक कहे जाते थे वहाँ कुछ बुद्धि से भी कम ताअआलुक रखते थे। इस प्रकार आपके अन्दर इन परस्पर विरोधी तत्वों का बड़ा हीं सुन्दर सम्मिश्रण था। आपका दरबार बड़ा सुसज्जित रहता था और विद्वानों तथा कवियों के आप कद्रदान थे। कश्मीर के दक्षिण में जो पार्वत्य-प्रदेश है उस पर भी
आपका अधिकार था। दुर्भाग्य से आप के विरुद्ध कई षड़यन्त्र रचे जाने लगे जिन्हें दबाने के लिये आपको निर्देयतापूर्ण उपायों को काम में लाना पड़ा। यहाँ तक कि आपने अपने निर्दोष सौतेले भाई, भतीजों और कुछ अन्य सम्बन्धियों को भी मरवा डाला था। आप सेना-विभाग में बहुत बड़ी रकम खर्च करत थे और विलास सामग्री से भी आपका बडा प्रेम था। इसी कारण आगे चलकर आप के खजाने में रुपयों की कमी आ गई। इस कमी को पूरी करने के लिये आपने जिन उपायों का अबलम्बन किया वे बडे खराब थे। उनसे प्रजा में असन्तोष फैल गया। ये उपाय और कुछ नहीं मन्दिरों की सम्पत्ति पर हाथ साफ़ करना और प्रजा पर अनुचित कर लगाने के थे। उन्हीं दिनों काश्मीर राज्य में प्लेग चला जिसके कारण डकैतियाँ होने लगीं। इधर एक भयंकर बाढ भी आ गई जिसके फल स्वरूप अकाल पड़ गया। बस फिर क्या था, जो असन्तोष अब तक चिंगारी के रूप में था वह अब धधक उठा। राजा हर्ष के विरुद्ध बलवा खड़ा हो गया। राजा रणभूमि में काम आये। उनका सिर काट कर जला दिया गया और उनकी देह की वह दशा हुईं कि जो एक भीख मांगने वाले की देह की भी नहीं होती है। आखिरकार एक लकड़ी के व्यापारी का हृदय उसकी यह दशा देख कर पसीजा । उसने उस देह का अन्तिम संस्कार किया।

महाराजा विकुल

हर्ष के बाद विकुल कश्मीर राज्य की राजगद्दी पर बेठे पर उनकी भी वही दशा हुई जो कि उस गद्दी पर बेठने वालों की अक्सर होती आई थी। उनका छोटा भाई उनके विरुद्ध बलवा करने पर आमादा हुआ। सच पूछा जाए तो इस समय राज्य के वास्तविक भाग्य विधाता वहां के जागीरदार लोग बने हुए थे और इन्हीं जमींदारों ने राजा को भी गद्दी पर बिठाया था। राजा ने इन जमींदारों के दबाव से मुक्त होने की बड़ी कोशिशें की। उन्होंने उनके खास खास नेताओं को मरवा डाला और कइयों को देश निकाला दे दिया। जो बाकी बच रहे उनके अस्शस्त्र जबरन छीन लिये गये। उन्होंने अधिकारी वर्ग को भी तंग करना शुरू किया। पर प्रजा के लिये उनके हृदय में स्थान था। वे अपने प्रजाजनों का यथोचित सम्मान करते थे। थोड़े में हम यह कह सकते हैं कि राजा विकुल एक उदार, योग्य और पराक्रमी नरेश थे। हम ऊपर कह आये हैं कि इनकी भी वही दशा हुईं जो कि इनके पूर्व कालीन राजाओं की हुईं थी। एक रात को जब कि आप अपने कुछ साथियों सहित अन्तःपुर की ओर जा रहे थे, शहर के कोतवाल ने अपने भाई और बहुत से सहायकों समेत आप पर हमला कर दिया। राजा ने वीरता पूर्वक शत्रु का सामना किया पर अंत में वे शत्रु के हाथों मारे गये। यह घटना सन् 111 की है।

राजा विकुल के बाद कश्मीर का इतिहास

राजा विकुल का उत्तराधिकारी केवल कुछ ही घन्टों के लिये राज्य
कर पाया था कि उसका सौतेला भाई गद्दी का मालिक बन गया। यह भी केवल चार महीने राज्य कर सका। इसे इसके भाई ने कैद कर लिया और वह स्वयं राज्य-गद्दी पर बैठ गया। इस राजा ने 8 वर्ष राज्य किया। इसका राज्य जागीरदारों द्वारा किये गये बलवों और ग्रहकलह की एक शृंखला मात्र थी। बलवों को शान्त करने के लिये इसने अपने मंत्री को उसके तीन पुत्रों सहित फांसी पर लटका दिया था। जागीरदारों न बतौर जमानतके कुछ आदमी राजा के पास रखे थे। उन्हें भी उन्होंने मरवा डाले। बात यहाँ तक जा पहुँची कि उनके खिलाफ खुल्लम-खुल्ला बलवा हो गया। राजा श्रीनगर छोड़कर पंच नामक स्थान में चले गये | गद्दी को खाली देख एक दूसरा ही आदमी उसका वारिस बन बैठा। इसने भी एक वर्ष तक राज्य किया। इस समय राज्य में चारों ओर बलवाइयों की तूती बोलने लग गई थी। प्रजा चारों ओर से पिसी जा रही थी, व्यापार बिलकुल बन्द हो गया था और रुपयों की चारों ओर कमी आ गई थीं। जागीरदारों में भी इस समय फूट पड़ गई थी। राज्य की ऐसी दशा देख राजा पंच से वापस लौट आये और उन्होंने गद्दी पर फिर से अधिकार कर लिया। 5वर्ष तक इन्होंने फिर राज्य किया पर अन्त में ये भी शत्रुओं के हाथ के शिकार हुए, दुश्मनों ने इन्हें मार डाला।

अब राजा जयसिंह कश्मीर के राज्यासन पर आरूढ़ हुए। ऐसी
अशान्ति और अराजकता के समय में भी आपने 21 वर्ष तक राज्य किया।अपने सम्पूर्ण राज्य-काल तक आप विद्रोहियों का दमन करने छे व्यर्थ प्रयास करते रहे। राजा जयसिंह जी के बाद कश्मीर की गद्दी पर कोई ऐसा पराक्रमी राजा नहीं हुआ जिसने चिरकाल तक शान्ति-पूर्वक राज्य किया हो। कभी जागीरदार बलवा करते तो कभी फौज सिर उठाती, कभी मंत्री राज्य को हड़प जाते तो कभी राजा के रिश्तेदार सिंहासन प्राप्ति के लिये षड़यन्त्र रचते। हाँ, यदि बीच में कोई पराक्रमी राजा पैदा हो जाता था तो वह कुछ समय के लिये सबको शान्त दर देता था, पर स्थायी शान्ति कोई भी स्थापित नहीं कर सका था। लगातार 200 वर्षों तक यही मेंढ़की रफ्तार जारी रही यहाँ तक कि अन्त में कश्मीर का राज्य मुसलमानों के हाथ चला गया।

कश्मीर का प्रथम मुसलमान शासक

जिस समय कश्मीर राज्य में इस प्रकार की अराजकता फैली हुई
थी, उस समय उसके आसपास के प्रदेशों में मुसलमानी धर्म का प्रचार जोरों के साथ बढ़ रहा था। कश्मीर राज्य भी उसकी क्रूर दृष्टि से नहीं बचा। सन् 1339 में शाहमीर नामक एक मुसलमान ने कश्मीर के अन्तिम हिन्दू राजा की विधवा रानी को गद्दी से हटाकर उस पर अपना अधिकार कर लिया। आरम्भ ही से कश्मीर राज्य पर मध्य एशिया अथवा भारतवर्ष की ओर से आक्रमण होते आये थे अतएवं वह विदेशी शासन का आदि हो गया था ओर इसलिये शाहमीर को वहाँ के शासन-सूत्र में अधिक फेरबदल करने की आवश्यकता न हुई। शाहमीर ने कश्मीर का शासन-सूत्र पहले की तरह ब्राह्मण वर्ग के हाथों ही में रहने दिया। शाहमीर के बाद कई मुसलमान नरेश कश्मीर की गद्दी पर बेठे पर वे सबके सब अत्यन्त अयोग्य और कमजोर निकले। हां सन् 1420 में जो राजा गद्दी पर बैठा वह अवश्य राज कहलाने के योग्य था। उसका नाम था जैनुलाअबदीन। वह दयालु ओर उदार प्रकृति का रईस था। किसानों का तो वह दोस्त था। उसने कई नहर ओर पुल बनवाए। वह बड़ा खिलाड़ी था और ब्राह्मणों पर बड़ी कृपा रखता था। ब्राद्मणों से जो पोल टेक्स लिया जाता था वह उसने माफ कर दिया था। इतना ही नहीं, उसने कई ब्राह्मणों को जागीरें भी प्रदान की थीं। मुसलमान होते हुए भी उसने कई हिन्दू-मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया था और हिन्दुओं की विद्या को उत्तेजन दिया था। उसने विदेशों से कई प्रकार की कारीगरी की उत्तम उत्तम वस्तुएं मंगवाकर एकत्रित की थीं। उसके दरबार में कवियों, गाने-वालों और खेल-तमाशा करने वालों की भीड़ लगी रहती थी।

जैनुल आबुदीन के बाद फिर वही सिलसिला जारी हो गया। कम- जोर और अयोग्य राजा एक के बाद एक गद्दी पर बिठाये जाने लगे। इसी बीच सन् 1532 में मिर्जा हैदर नामक एक मुगल सरदार ने कश्मीर पर आक्रमण किया। आक्रमण सफल हुआ और मिर्जा हैदर कश्मीर की गद्दी का मालिक बन गया। कुछ वर्ष राज्य करने के उपरान्त इसका देहान्त हो गया और कुछ समय के लिये कश्मीर फिर अराजकता ओर अशान्ति का क्रीड़ा स्थल बन गया। यह अशान्ति तब तक ज्यों की त्यों बनी रही जब तक कि सम्राट अकबर ने कश्मीर राज्य को मुगल सल्तनत में नहीं मिला लिया।

मुगल साम्राज्य में कश्मीर राज्य का इतिहास

सन् 1586 में सम्राट अकबर ने कश्मीर राज्य पर विजय प्राप्त की। अब कश्मीर मुगलों के झंडे के नीचे आ गया। स्वयं सम्राट अकबर तीन बार कश्मीर गये थे। वहां उन्होंने हरिपर्वत नामक एक किला बनवाया था। अकबर के बाद जहाँगीर राज्य-सिंहासन पर बेठे। इनका तो कश्मीर पर बड़ा ही प्रेम था। कश्मीर का शालिमार बगीचा और निशात-बाग जहांगीर द्वारा ही बनवाये गये थे। मुगलों का शासन साधारणतया सुसभ्य था और जो कानून कायदे उस समय उपयोग में लाये जाते थे वे भी बढ़े उत्तम थे।औरंगजेब के शासन-काल में सुप्रसिद्ध प्रवासी बर्नियर कश्मीर में आया था। उसने वहाँ के उस समय के लोगों का जो वर्णन किया है उससे मालूम होता है कि कश्मीर की प्रजा उस समय सुखी और समृद्धिशाली थी। उसने लिखा है कि “कश्मीर निवासी हिन्दुस्थानियों से बहुत अधिक बुद्धिमान और निपुण हैं। वे कविता बताने की शक्ति ओर अन्य कलाओं के ज्ञान में पर्शियन लोगों को भी मात देते हैं और बड़े फुर्तीले तथा मेहनती भी हैं। आगे चलकर उसने वहाँ के शालों की भी प्रशंसा की है। कश्मीर के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन करते हुए उसने कहा है कि यह ( कश्मीर ) भारतवर्ष का नन्‍दन कानन है। सारा देश एक खुशनुमा बगीचे के समान साहस होता है जिसमें स्थान स्थान पर तरह तरह के फूल, अंगूर की बेलें और गेहूँ तथा चांवल के खेत बड़े भले मालूम होते हैं।”

मुगल सम्राटों की ओर से कश्मीर राज्य में जो सुबेदार नियुक्त किये जाते थे उनमें से बहुत से बढ़े सभ्य रहते थे। वे इस बात की कोशिश करते रहते थे कि जिससे प्रज्ञा आराम में रहे। पर ज्यों ज्यों मुगल साम्राज्य ढीला होता गया त्यों त्यों ये सुबेदार भी अधिकाधिक स्वतन्त्र होते गये। हिन्दू सताये जाने लगे, अधिकारी गण आपस में झगड़ने लगे और कश्मीर में पुनः अव्यवस्था ने अपना अड्डा जमा लिया। अन्त में वह समय आ गया जब कि कश्मीर को अफ़गानों के अमानुषिक शासन के नीचे आना पड़ा। अफ़गानों का शासन कश्मीर के लिये इश्वर का अभिशाप था। वहाँ जितने अफ़गान सूबेदार नियुक्त किये गये वे सबके सब स्वार्थी और पेटू थे। वे प्रजा का खून चूसने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते थे। कहा जाता है कि अफगानों के लिये एक आदमी का सिर काट लेना एक फूल तोड़ने के कार्य से अधिक महत्व नहीं रखता था। ये लोग हिन्दुओं को बोरों में भर भर कर तालाब में फिकवा दिया करते थे। इसके अतिरिक्त हिन्दुओं पर धार्मिक कर लगा दिया गया था। इन कई कारणों की वजह से सैकड़ों हिन्दू काश्मीर छोड़ कर भाग गये थे। जुल्म यहाँ तक बढ़ा कि काश्मीर वासियों को पंजाब के प्रतापी महाराजा रणजीत सिंह जी का आश्रय लेना पड़ा। रणजीत सिंहजी ने कश्मीर पर अधिकार करने का प्रयत्न शुरू कर दिया। आरम्भ में तो उन्हें असफलता मिली, पर सन् 1818 में उनका मनोरथ सफल हुआ। इस वर्ष जम्मू नरेश गुलाब सिंह जी की सहायता से उन्होंने कश्मीर पर अधिकार कर लिया। काश्मीर एक बार फिर हिन्दू शासन में आ गया पर एस समय तक
वहाँ की 1/10 जन संख्या इस्लाम धर्म ग्रहण कर चुकी थी।

यद्यपि सिख जाति अफगानों के समान दया-माया हीन न थी तथापि वह कठोर अवश्य थी। सन् 1824 में मूरक्रॉफ्ट नामक एक अंग्रेज ने कश्मीर का भ्रमण किया था। अपने इस भ्रमण का वृत्तान्त लिखते हुए वे कहते हैं कि “कश्मीर के लोगों की दशा बड़ी शोचनीय हो रही है । सिख सरकार ने उन पर भारी भारी कर लगा रखे हैं और अधिकारीगण भी उन्हें खूब तंग किया करते है। राज्य की उपजाऊ भूमि का 15 वाँ हिस्सा भी इस समय जोता बोया नहीं जाता है ओर वहाँ के निवासी एक बहुत बड़ी तादाद में हिन्दुस्तान की ओर जा रहे हैं।’ आगे चलकर वे फिर कहते हैं कि “किसानों की दशा अत्यन्त शोचनीय है। पहले सरकार को जमीन की पेदावार का 1/2 भाग दिया जाता था पर अब भाग 1/3 तक पहुँच गया है। प्रत्येक साल पर 26 रु० सैकड़ा के हिसाब से महसूल लगा दिया गया है। कोतवाल को अपनी नियुक्ति के लिये 30 हजार रुपये प्रति वर्ष के हिसाब से सरकारी खजाने में जमा करने पड़ते हैं। यह रकम जमा करने पर वह मनमाने अत्याचार प्रजा पर कर सकता है। सिख लोग कश्मीर निवासियों को पशुओं से अधिक नहीं समझते हैं। यदि कोई सिक्ख किसी कश्मीरी को मार डालता है तो उसके दंड स्वरूप उसे केवल 16 अथवा अधिक से अधिक 30 रू० जमा कर देने पड़ते हैं। यदि मरा हुआ आदमी हिन्दू हुआ तो उक्त दण्ड के रूपयों में से उसके कुटुम्ब को 4 रु० ओर यदि वह मुसलमान हुआ तो 2 रू० दे दिये जाते हैं।”

विहग्ने नामक एक अन्य यूरोपियन प्रवासी ने की कश्मीर राज्य
का ऐसा ही हुद॒य-द्रावक वर्णन किया है। यह प्रवासी सन् 1835 में कश्मीर गया था। सन् 1841 में महाराणा रणजीत सिंह का देहान्त हो गया। इसी समय कश्मीर स्थित सिक्ख सैनिकों ने बलवा किया और वहाँ के सूबेदार को मार डाला। यह समाचार जब जम्मू-नरेश गुलाब सिंह जी ने सुना तो उन्होंने तुरंत 5000 सैनिकों की एक टुकड़ी रणजीत सिंह जी के उत्तराधिकारी की ओर से काश्मीर का बलवा शान्त करने के लिये भेजी। अंग्रेज इस समय सतलुज नदी के दक्षिण तक के प्रदेश पर अपना अधिकार कर चुके थे ओर अब वे काबुल पर विजय प्राप्त करने का व्यर्थ प्रयत्न करने में लगे हुए थे। गुलाब सिंहजी की सेना ने कश्मीर पहुँच कर बलवे को शान्त किया और अपना सूबेदार वहाँ नियुक्त कर दिया। इसी समय से कश्मीर जम्मु के सिक्ख राज्यवंश के हाथ में आ गया। सन् 1846 तक लाहौर का भी उस पर अधिकार था, पर केवल नाममात्र के लिये।

कश्मीर राज्य के महाराजा साहब इन्हीं श्रीमान्‌ जम्मू “नरेश गुलाब” सिंहजी के वंशज थे। अतएव जम्मू-राजवंश का यहाँ कुछ परिचय देना अनुचित न होगा। महाराजा गुलाब सिंहजी डोगरा राजपूत थे। पंजाब और कश्मीर के बीच का प्रदेश डोगरा कहलाता है और यहां रहने के कारण गुलाब सिंह जी के पूर्वज डोगरा कहलाये। आपके पूर्वज पहले अवध ओर राजपूताने में रहते थे। वहाँ से धीरे धीरे पंजाब की ओर बढ़े और अन्त में डोगरा प्रदेश के मीरपुर नामक ग्राम में रहने लग गये। यहाँ से यह वंश तीन शाखाओं में विभाजित हो गया। एक शाखा ने चम्बा को, एक ने काँगड़ा को और एक ने जिसमें कि स्वयं गुलाब सिंह जी उत्पन्न हुए जम्मू को अपना निवास-स्थान बनाया। अठारहवीं सदी के मध्य में जम्मू वाली शाखा में ध्रोवदेव हुए। ये पड़े पराक्रमी थे। इनके पुत्र ने सन् 1775 में जम्मू में एक राजमहल बनवाया था। इसके 3 वर्ष बाद अर्थात्‌ सन् 1778 में रणजीत सिंह की सेना ने जम्मू पर आक्रमण किया। इस समय महाराजा गुलाब सिंहजी ने ऐसा पराक्रम दिखलाया कि जिससे रणजीत सिंह के हृदय में उनके लिये स्थान हो गया। गुलाब सिंह जी ने रणजीत सिंह के यहाँ नौकरी कर ली। धीरे धीरे दोंनों के बीच का प्रेम बढ़ता ही गया, यहाँ तक कि जब जम्मू राज्य पर सिक्खों का अधिकार हो गया तब रणजीत सिंह ने वह राज्य गुलाबसिहजी को दे डाला और साथ ही उन्हें राजा का सम्मान सूचक खिताब भी दे दिया। गुलाब सिंहजी के एक भाई महाराजा रणजीत सिंह जी के दीवान थे, वे पंच प्रान्त के राजा बना दिये गये और तीसरे भाई को रामनगर का राज्य मिला। राज्य मिलने के समय से 10 वष के अन्दर अंदर तीनों भाइयों ने मिलकर आसपास के तमाम छोटे छोटे सरदारों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। सरदार जोरावर सिंह की ‘अधीनता में कुछ सेना बदख और बलूचिस्तान भेजकर ये प्रान्त भी हृस्तगत कर लिये गये। इतना ही नही, सिक्ख सेना ने तिब्बत पर भी आक्रमण किया था पर दुर्भाग्य से जोरावर सिंह वहाँ मारे गये और उनकी सेना तहस नहस हो गई।

इस्र प्रकार यद्यपि रणजीतसिंह की मृत्यु के समय गुलाबसिहजी
सिक्ख साम्राज्य के अन्तर्गत एक सामान्य रईस गिन जाते थे तथापि जम्मू और उसके आसपास की रियासतों तथा बदख ओर बलूचिस्तान पर उनका अबाधित अधिकार हो गया था और कश्मीर राज्य भी एक प्रकार से उन्हीं के राज्य में था। व्हिग्ने नामक एक अंग्रेज प्रवासी का कथन है कि “राजा गुलाब सिंह जी तेज मिजाज के रईस थे और कुछ अंशों में जुल्मी भी थे, पर उस आराजकता के समय में राजाओं को ऐसा होना भी पड़ता था।” आगे चलकर उक्त यात्री यह भी कहता है कि “वे धार्मिक मामलों में बड़े उदार और सहिष्णु थे। इतना होते हुए भी मनुष्य उनसे भय खाते थे।” कुछ भी हो हम तो यह कहेंगे कि उनमें अटूट साहस और अपूर्व शक्ति थी और उन्होंने योग्यता-पूर्वक राज्य को चलाया । रणजीत सिंह जी की मृत्यु के बाद कुछ समय के लिये ऐसा मालूम होने लगा था कि गुलाबसिंहजी का सितारा अब बहुत दिनों तक तेज नहीं रह सकेगा। अपने भाई की मृत्यु कर डालने के कारण लाहोर के दरबार में उनका कुछ भी वजन नहीं रह गया था । वे बड़ी तेजी के साथ पतन की ओर जाते हुए मालूम होते थे। पर एकाएक उनके भाग्य ने पलटा खाया। वे न केवल अपने पराक्रम द्वारा विजित किये गये प्रदेशों ही के मालिक बने रहे वरन्‌ कश्मीर भी उनके हाथ लग गया। हां काश्मीर के लिये उन्होंने 7 लाख स्टर्लिंग एक मुश्त दिये थे और साथ ही साथ 1 घोड़ा, 7 बकरियाँ और 6 शाल-जोड़ी प्रति वर्ष देना भी उन्होंने स्वीकार किया था।

यह सब फेसला अंग्रेज सरकार की माफत हुआ था। बात यह हुई
थी कि रणजीत सिंहजी की मृत्यु के बाद पंजाब में अशान्ति फेल गई थी। राज्य का उत्तराधिकारी असंयम के कारण असमय में ही काल का ग्रास बन गया था। यह दशा देख रणजीत सिंहजी के पुत्र शेरसिंह ने लाहौर पर आक्रमण कर दिया और राज्याधिकार अपने हाथ में ले लिया। इस समय पंजाब का शासन सैनिक समितियों द्वारा संचालित किया जाता था। इसी बीच गुलाबसिंहजी के भाई ध्यानसिंहजी ने शेरसिंह का खून कर डाला पर ध्यानसिंहजी भी अजितसिंह नामक एक सिक्‍ख सरदार द्वारा मार डाले गये। अजितसिंह भी बहुत दिनों तक राज्य नहीं कर सके। उन्हें भी सिक्ख सैनिकों ने मार डाला। अब महाराजा दिलीप सिंहजी राज्य सिंहासन पर बिठाये गये। आपकी आयु इस समय 5 वष की थी। इस समय सेना का जोर और भी बढ़ गया। सारा राज्य प्रबन्ध सैनिक-समिति के इशारे पर चलाया जाने लगा। ध्यानसिंहजी के पुत्र हीरा सिहजी इस समय दीवान के पद पर थे, पर उनकी एक भी नहीं चलती थी। उन्होंने सेना की टुकड़ियों को इधर उधर भेज देना चाहा पर सेना ने राजधानी छोड़ने से इन्कार कर दिया। उल्टे हीरासिंह जी को राजधानी छोड़कर भाग जाना पड़ा, पर वे भागने भी न पाये। रास्ते ही में पकड़ कर मार डाले गये। उनका सिर काट कर लाहोर लाया गया था। हीरासिह जी की मृत्यु हो जाने पर शासन की बागडोर बालक राजकुमार दिलीप सिंहजी के मामा ओर लालसिंह नामक एक ब्राह्मण के हाथों में चली गई। इन लोगों ने सेना को खुश रखने के लिये उनकी तनख्वाह बढ़ा दी और इसलिये कि वह कोई ओर उपद्रव न कर बेठें, उसे जम्मू के राजा
गुलाबसिदजी के विरद्ध भड़का दिया | गुलाबसिह जी लाहोर लाये गये। यहाँ एक करोड़ रुपया जमा करने पर आप बन्धन मुक्त हो सके। अब सेना मुल्तान भेज दी गई। इसी बीच रणजीत सिंह जी के एक दूसरे पुत्र ने गद्दी के लिये बलवा किया पर दिलीपसिंहजी के काका ने उसे मार डाला। ये काका भी कुछ ही समय में दुश्मनों के हाथ से मारे गये। अब राजमाता ने अपने सेना-नायक तेजसिंह ओर दीवान लालसिंह की सहायता से राजसूत्र अपने हाथ में ले लिया। इस समय सेना की शक्ति इतनी बढ़ गई थी कि उसका निकम्मा बेठे रहना राज्य के लिये हानिकर प्रतीत होने लगा।अतएव यह निश्चय किया गया कि अंग्रेजी राज्य पर आक्रमण किया जाये। सन् 1845 के नवम्बर मास में 6000 सिक्ख सेना ने सतलुज नदी पार की। सेना के पास 750 तोपें भी थीं। 16 वीं दिसम्बर के दिन यह सेना फिरोजपुर के पास जा पहुँची। यह किला अंग्रेजों के अधिकार में था अतएव इसकी रक्षा के लिये 10000 अंग्रेजी सैनिक भी वहाँ मौजूद थे। 18 वीं दिसम्बर के दिन मुदकी नामक स्थान पर सिक्ख और अंग्रेजी सेना का मुकाबला हो गया। भीषण युद्ध हुआ पर विजय अनिश्चित रही। इसी मास की 21 तारीख के दिन फिरोजशाह में फिर युद्ध हुआ। सिक्ख सेना ने ऐसा जम कर मुकाबला किया कि अंग्रेजी सेना के छक्के छूट गये। स्वयं गर्वनर जनरल लॉर्ड हार्डिंग ने सेना संचालन का कार्य किया। इसमें उनके 5 शरीर-रक्षक काम आये और 4 घायल हुए। पर इस युद्ध से भी काई स्थायी निर्णय नहीं हुआ। 28 जनवरी को अलीवाल नामक स्थान पर फिर एक संग्राम हुआ। कहा जाता है कि अबकी बार सिक्ख सेना के पैर उखड़ गये।सिक्ख सरकार को अब विजय की आशा नहीं रही। लालसिंह मंत्री के पद्‌ से च्युत कर दिया गया और जम्मू-नरेश राजा गुलाब सिंहजी गवर्नर-जनरल के साथ सलाह मशविरा करने के लिये बुलाये गये।

बस यहीं से गुलाबसिंहजी का सौभाग्य-सू्र्य चमका। गुलाब सिंह जी ने अंग्रेजों के पास सन्धि का पेगाम भेजा पर अभी तक सिक्ख सेना ने पराजय स्वीकार नहीं की थी। सोब्रऊँ नामक स्थान पर वह अंग्रेजी सेना के साथ फिर भिड़न्त कर बैठी। अबकी बार वह पूर्ण रूप से पराजित हुई। अंग्रेजी सेना ने लाहोर पर अधिकार कर लिया। 9 मार्च को सिक्ख और अंग्रेज सरकार के बीच लाहौर ही में एक सुलहनामा हुआ। इस सुलहनामे के अनुसार सिक्खों ने कश्मीर, हजारा ओर साथ ही व्यास और सिन्धु नदी के बीच का समस्त पर्वतीय प्रान्त अंग्रेज सरकार को दे डाला। इस सन्धि में महाराजा गुलाबसिंहजी का प्रधान हाथ था, अतएव उन्हें भी इससे काफी फायदा हो गया। वे एक स्वतन्त्र शासक बना दिये गये और महाराजा खड़ग सिंहजी के समय में उनके अधिकार सें जितना मुल्क था उतना ही कायम रखा गया। इस सुलहनामे के एक सप्ताह बाद राजा गुलाबसिंहजी और ब्रिटिश सरकार के बीच एक और सुलहनामा हुआ। इस सुलहनामे के अनुसार राजा गुलाब सिंहजी पुश्त दर पुश्त के लिये सिन्धु नदी के पूर्व और रावी नदी के पश्चिम के तमाम मुल्क जिनमें चम्बा और लाहोल भी शामिल है, स्वामी बना दिये गये। राजा गुलाब सिंह जी ने इसके बदले में ब्रिटिश सरकार को 75 लाख रुपया एक मुश्त तथा एक घोड़ा 13 बकरियाँ और 3 शाल-जोड़ियाँ प्रति वर्ष देना स्वीकार किया। साथ ही तय हुआ कि अपने निकटवर्ती पहाड़ी प्रदेशों में जरूरत आ पड़ने पर गुलाबसिंहजी अपनी सम्पूर्ण सेना के साथ अंग्रेजों की सहायता करेंगे और ब्रिटिश सरकार भी बाहरी आक्रमणकारियों से उनकी रक्षा करेगी।

इस प्रकार कश्मीर राज्य महाराजा गुलाबसिंहजी के हाथ में आया, पर वे सरलता के साथ कश्मीर पर अधिकार नहीं कर सके। सिक्ख सरकार की ओर से जो सूबेदार कश्मीर में नियुक्त किया गया था उसने वहाँ से अपना अधिकार हटा लेने से इन्कार कर दिया। इतना ही नहीं, उसने अपनी अधीनस्थ छोटी मोटी रियासतों की सहायता से गुलाबसिंहजी की सेना पर आक्रमण कर दिया। गुलाबसिंहजी ने इस बात की सूचना ब्रिटिश सरकार के पास भेजी और सहायता के लिय लिखा। सूचना के अनुसार ब्रिटिश सेना जम्मू आ पहुँची। स्वयं सर हेनरी लॉरेन्स गुलाब सिंहजी को श्रीनगर ले गये। सन् 1846 के अन्त तक वहाँ का शासन गुलाबसिंह जी को दिलवा कर वे वापस लौट आये। जिस समय महाराजा गुलाबसिंह जी ने कश्मीर का शासन-सूत्र अपने हाथों में लिया, उन्हें वहाँ की हालत बहुत बिगड़ी हुईं मिली। इस समय किसानों से उनकी पैदावार का 1/2 और कभी कभी 1/3 हिस्सा लगान के रूप में से लिया जाता था जो कि लगान की दर से करीब तिगुना होता है। इस पर भी सजा यह कि सब की सब रकम सरकारी खजाने में जमा नहीं होती थी–इसका एक बहुत बड़ा हिस्सा स्वार्थी और पेट अधिकारियों की जेबों ले जाता था। लगान वसूल करने के नियम ही एसे बने हुए थे कि जो अधिकारियों को घूस खाने के लिए उत्तेजित करें। यदि महाराजा गुलाबसिंह जी अधिक समय तक जीवित रहते तो शायद इन शासन सम्बन्धी कुरीतियों को मिटाने की चेष्टा करते, पर सन् 1857 में उनका स्वर्गवास गवास हो गया। उनके पुत्र रणवीर सिंहजी अब राज्य के उत्तराधिकारी हुए। इसी समय प्रसिद्ध भारतीय-विद्रोह हुआ जिसमें महाराजा रणवीरसिह जी ने अंग्रेजी सरकार को बहुमूल्य सहायताएँ पहुँचाई। इन सहायताओं से प्रसन्न होकर ब्रिटिश सरकार ने आपको दत्तक लेने का अधिकार प्रदान कर दिया। पर दुर्भाग्य से सन् 1885 में आप सदा के लिये इस संसार से चल बसे।

महाराजा रणवीरसिह जी बड़े सीधे सादे, लोक-प्रिय और साधु-प्रकृति के राजा थे। आपने राज्य में बहुत से सुधार भी किये थे । आप प्रतिदिन खुले दरबार में बेठ कर अपने गरीब से गरीब प्रजा-जन की बात भी बड़े ध्यान से सुनते थे। दुर्भाग्य यही था कि आपके पास अधिकारी वर्ग की कमी थी। सदियों से जहाँ का शासन बिगड़ा हुआ आ रहा था उस व्यवस्थित करने के लिये बढ़े योग्य अधिकारियों की आवश्यकता थी। यह वह कार्य था जिसे मामूली श्रेणी के अधिकारी नहीं कर सकत थे। इतना होते हुए भी उस समय वहाँ खाद्य-सामग्री बड़ी सस्ती थी। एक रुपये में 40 सेर से लेकर 50 सेर तक चावल, 6 सेर गोश्त और 30 सेर दूध मिल सकता था। शहतूत, सेब तथा अन्य फल इतनी अधिक तादाद में पैदा होते थे कि वे झाड़ों के नीचे पड़े पड़े सड़ जाते पर कोई उठाने वाला नहीं मिलता था। अपराध बहुत कम होते थे और शराब की बिक्री भी कम होती थी। श्रीमान्‌ महाराजा साहब ने 50000 रू० शिक्षा-प्रचार में और 50000 रु० सड़कों की दुरुस्ती में खर्च किये थे। लगान की दर में भी कुछ रद्दो-बदल किया गया था। इतना सब कुछ होते हुए भी कश्मीर राज्य की दशा अभी पूर्णरूप से सुधरी नहीं थी। बहुत सी बातें ऐसी थीं जिनमें अभी भी सुधार की बड़ी आवश्यकता रह गई थी। सन् 1877 में काश्मीर में अति वृष्टि होने के कारण महा भयंकर अकाल पड़ा। जिसके कारण वहाँ की जन-संख्या का संहार हो गया। गाँव के गाँव उज़ड़ गये और श्रीनगर शहर की आबादी आधी रह गई। इस भयंकर नर संहार को देखकर महाराजा साहब का दिल दहल उठा। उन्होंने तुरन्त इस दशा को सुधारने के यत्न किये। लगान की दर में कमी कर दी गई और व्यापार की सुगमता के लिये बहुत सी नई सड़कें इधर-उधर बनवा दी गई। इस भयद्भुर दुर्भिक्ष के की वर्ष बाद महाराजा रणबीरसिंहजी ने अपनी इस लोक यात्रा समाप्त की।

महाराजा सर प्रताप सिंह कश्मीर राज्य

महाराजारणवीर सिंह जी की मृत्यु के पश्चात उनके ज्येष्ठ पुत्र महाराजा प्रताप सिंह जी राज्य-गद्दी पर बैठे। आपका जन्म सन् 1850 में हुआ था। बचपन में आप अपने पितामह के बड़े प्रेमपात्र थे। वयस्क होने पर आपने संस्कृत भाषा का अध्ययन करना शुरू किया। इसके अतिरिक्त आपने अंग्रेजी, कानून और औषधि-शास्त्र को भी अभ्यास किया। विद्याध्ययन पूर्ण हो। जाने पर आपने शासन के प्रत्येक विभाग का अनुभव प्राप्त किया।आप रेव्हेन्यू, ज्युडिशियल और मिलिट्री विभागों के नीचे से लगाकर ऊंचे से ऊंचे पद के कार्य से वाकिफ हो गये। जिस समय आप इस राज्य की गद्दी पर आसीन हुए उस समय आपकी उम्र 35 वर्ष की थी। शासन-सूत्र धारण करने के पश्चात्‌ आपने अपनी शासन-प्रणाली में सुधार करने शुरू कर दिये। पहले आपने अपने राज्य के अल्प वेतनभोगी कुर्को’ की सुध ली। इन कुर्को’ को पहले त्रैमासिक या अर्धवार्षिक वेतन दिया जाता था। इससे इन्हें अत्यन्त कष्ट उठाने पड़ते थे। आपने यह प्रथा बिलकुल बन्द कर दी और हर मास की पहली तारीख को तनखा देने का हुक्म दिया। इतना ही नहीं, आपने उनकी तनखाहों में वृद्धि भी की। इसके पश्चात्‌ आपने जमा खर्च की पद्धति में सुधार किया। आपने अपने राज्य से अनेक कर उठा दिये। बहुत सी चीजों पर लिया जाने वाला महसूल भी आपने साफ कर दिया। आपने बेगार की प्रथा भी बिलकुल बन्द कर दी थी। आपके राज्यारूढ़ होने से पहले प्रजा से शिक्षा आदि की व्यवस्था के लिये जो कर लिया जाता था, वह भी आपने माफ कर दिया था। इसके पश्चात्‌ आपने मिलिट्री विभाग में भी सुधार किया और स्यालकोट से जम्मू तक रेलवे लाइन खुलवाई। यहाँ यह कह देना अनावश्यक में होगा कि आप उपरोक्त सुधारों को पूरी तौर पर अमल में भी न ला सके थे कि आपको राज्य-शासन से 5 वर्ष के लिये अवसर ग्रहण करना पड़ा । शासन-सूत्र धारण करने के समय ही से आपके और अंग्रेज सरकार के बीच दिल-सफाई न थी। अतएव आपको 5 वर्ष के लिये राज-कारोबार से हाथ खींचना पडा। इसके पश्चात्‌ अंग्रेजी सरकार ने शासन-कार्य संभालने के लिये एक कोंसिल नियुक्त की। इस कौंसिल के अध्यक्ष-पद पर कुछ दिनों तक तो आपके कनिष्ठ भ्राता राजा अमरसिंहजी ने कार्य किया। किन्तु सन् 1893-94 से फिर आप इस कौसिल के अध्यक्ष की हैसियत से राज्य-शासन करने लगे। सन् 1892 में आपको जी० सी० एस० आई की तथा सन् 1996 में मेजर जनरल की उपाधियाँ प्राप्त हुई । सन् 1905 के अक्टूबर मास तक शासन कार्य इसी कोंसिल के द्वारा संचालित हुआ। इसके पश्चात्‌ वह तोड़ दी गई और फिर से आपने सम्पूर्ण शासन-कार्य अपने हाथों में लिया।

जब तराई और आभोर की घाटी में युद्ध करने के लिये अंग्रेज सरकार की सेना पहुँची थी, तब आपने भी अपनी सेना को उसकी मदद करने के लिये भेजा था। आपकी सेना ने इस समय अपनी वीरता का अच्छा परिचय दिया था। इसके पश्चात्‌ आपने श्रीनगर में बिजली की रोशनी का प्रबंध किया और जम्मू से श्रीनगर तक रेलवे लाइन खोलने की स्कीम तैयार करवाई। आपने श्रीनगर म्युनिसिपालिटी में भी समुचित सुधार किया। आपके शासन में इस राज्य में प्रजाहितेषी संस्था्ों की संख्या बहुत बढ़ गई। आप के समय में श्रीनगर में दो हाईस्कूल, एक कला-भवन, एक नॉर्मल स्कूल आदि थे। इसके अतिरिक्त राज्य में 7 एँगलो वनोक्यूलर स्कूल, 12 मिडिल स्कूल और 150 प्राइमरी स्कूल थे। इतना ही नहीं राज्य के खास शहर श्रीनगर में तीन कन्या पाठशालाएँ भी थीं और अनेक प्राइवेट स्कूल भी थे। इन प्राईवेट स्कूलों को सरकार की ओर से भी मदद मिलती थी। इन पाठशालाओं में 12000 से अधिक विद्यार्थी शिक्षा-लाभ करते थे । इसी प्रकार श्रीमान्‌ ने औषधि-विभाग में भी अच्छा सुधार किया था और श्रीनगर में एक कुष्ठाश्रम भी खोला था। यहाँ यह कहना आवश्यक न होगा कि कश्मीर राज्य के सदृश प्रकृति-देवी के सुन्दर कानन में उत्तम फलों की उपज बहुतायत से होती है। यह राज्य अति प्राचीन काल से रेशम के कारखाने और शाल के लिये प्रसिद्ध है। इस कारण यहाँ के व्यापार की हालत अच्छी है।सड़कों के अभाव के कारण इस व्यापार की उन्नति में प्रौत्साहन न मिलता था। अतएव आपने इस अभाव की पूर्ति के लिये कई उपायों की योजना की। ऊपर कही हुई रेलवे लाइन की स्कीम तैयार करवाने के अतिरिक्त आपने 15 लाख रुपये खर्च करके अपने राज्य में लम्बी-चौड़ी सड़के बनवाई।

सन् 1910 में आपके शासन के 15 वर्ष पूरे हो गये थे। अतएव
आपकी प्रजा ने बड़ा उत्सव मनाया। इसके पश्चात्‌ सन् 1911 के देहली दरबार के समय आप जी० सी० आाइ० इ० की उपाधि से विभूषित हुए थे। सन् 1912 की 12 वीं जनवरी को आपने जम्मू में एक दरबार कर जम्मू और कश्मीर की म्युनिसिपालिटियों में निर्वाचन-प्रथा प्रचलित की थी। इसके अतिरिक्त आरोग्यता के लिये विशेष उपायों की योजना करने के लिये आपने 5 लाख रुपयों की रकम प्रदान की थी। इस समय आपसे अपने राज्य के कृषकों को भी विशेष हक प्रदान किये थे। आपको ऐतिहासिक बातों में बडी दिलचस्पी थी। अपने राज्य के अन्तर्गत आपने पुरातात्विक इमारतें और स्तभों की अच्छी मरम्मत करवाई थी। आपको अपने शासन में अपने दोनों कनिष्ठ भ्राताओं की बड़ी सहायता मिलती थी। आपके दोनों भ्राताओं का नाम राजा सर राम सिंह जी और राजा सर अमर सिंह जी था। आपके कोई पुत्र न था। सिफ राजा अमरसिंह जी के एक पुत्र थे जिनका नाम महाराजा हरिसिंह जी था । ये ही बाद में काश्मीर के नरेश हुए।

महाराजा हरिसिंह जी कश्मीर राज्य

महाराजा प्रतापसिंह जी के स्वर्गवास के पश्चात्‌ उनके भतीजे महाराजा हरिसिंह जी कश्मीर के सिंहासन पर अधिष्ठित हुए। आपने अजमेर के मेयो कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की। कॉलेज में आप एक तेजस्वी और प्रतिभावान विद्यार्थियों गिने जाते थे। सन् 1926 में आपका राज्यरोहण उत्सव बड़े ही धूमधाम से हुआ। जिसमें अनेक राजा महाराजाओं के अतिरिक्त पूज्य पंडित मालवीय जी भी पधारे थे। राजपद पर अभिषिक्त होते हीमहाराजा हरिसिंहजी ने शासन सुधार में दिलचस्पी लेना शुरू किया। आपने छोटे छोटे गांवों तक में घूम घूमकर गरीब किसानों की दशा का निरिक्षण किया। किसानों के लिए अनेक हितकारी कानून बनाएं। उनके लिए शिक्षा का समूचित प्रबंध किया। उच्च पदों परप्रजा हितैषी अफसरों को नियुक्त किया। कहने का मतलब यह है कि महाराजा हरिसिंह जी अपने आपको एक उच्च श्रेणी के नरेश सिद्ध करना चाहते थे और अगर आपको अनुकूल परिस्थितियां प्राप्त हो गई होती तो हमें आशा थी कि आपके राज्य काल में कश्मीर राज्य समुचित उन्नति पथ पर होता।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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