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कलादान नदी प्रदेश

कलादान नदी प्रदेश – जहां बसती है कुत्ते का मांस खाने वाली जनजाति

यह संसार कैसा विचित्र है इस में अनेक प्रकार के मनुष्य तथा भांति भांति की जन जातियां देखने को मिलती हैं। कैसे कैसे उनके रंग, कैसे कैसे वेश तथा प्रकार दिखाई देंगे यहां तक कि प्रत्येक गांव की भाषा, रहन-सहन, तथा खान-पान में भी थोड़ा बहुत अन्तर अवश्य पाया जाता है। जाने कितनी प्रकार के उनके समाज हैं और समाजों के रीति रिवाजों में भी प्रायः भिन्नता पाई जाती है। यह सब कैसे तथा क्‍यों है ? इसका कारण उस स्थान की स्थिति तथा जलवायु है। इन्हीं के आधार पर मनुष्य का विकास होता है। इन्हीं के आधार पर उसको अपना जीवन किसी विशेष रूप में ढालना पड़ता है। अब हम आप को एक प्रत्यन्त विचित्र मानव जाति के बारे में कुछ बताना चाहते हैं, क्या आप ऐसी जनजाति के बारे में जानते हैं जो कुत्ते का मांस खाती है आप में से बहुत कम लोगों ने इस जनजाति के बारे में सुना होगा परन्तु जो लोग उनके प्रदेश के आस पास रहते हैं, उन्हें उनके प्रति कुछ जानकारी प्राप्त है। ये लोग हैं कलादान नदी प्रदेश के निवासी हैं। इस से पूर्व कि इन लोगों के जीवन पर कुछ प्रकाश डाला जाये, हमारे लिये उनके प्रदेश की स्थिति का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। कलादान नदी वास्तव में अराकान पर्वत मालाओं के आंचल में बहने वाली एक बड़ी प्रसिद्ध नदी है। ये लोग उसी के आस पास के क्षेत्र में काफ़ी दूर तक आबाद हैं। वैसे तो यह नदी बरसाती है, और पहाड़ी क्षेत्र में ही बहने वाली है, परन्तु फिर भी थोडा बहुत पानी इसकी गोद में प्रायः बहा करता है। कलादान नदी पर बसने वाली जिस आदिम जनजाति के बारे में हम बताने जा रहे हैं, वे लोग कलादान नदी को बड़ा पवित्र मानते हैं तथा इसमें अपनी बड़ी श्रद्धा रखते हैं।

कलादान नदी प्रदेश में बसने वाली जनजाति

इस जाति के लोगों को ‘कुमी” कहा जाता है । “कुमी’ वास्तव में अराकानी भाषा का शब्द है, जिसका मतलब है “कुत्ता नर’। इन लोगों का यह नाम क्यों है इसका भी एक विचित्र इतिहास है। जिसके बारे में हम आगे बढ़ाएंगे। यहां तो इतना जान लीजिए कि वैसे तो ये लोग कुत्ते को एक पवित्र पशु मानते हैं। परंतु उसका मांस खाने में भी संकोच नहीं करते। इन्हें जितना स्वादिष्ट कुत्ते का मांस लगता है, उतना अन्य किसी भी पशु का नहीं लगता। वैसे ये लोग प्रायः मांसाहारी हैं इसलिए अनेक जानवरों और पक्षियों का मांस भी खाते हैं। यदि आप इनके आकार को देखो तो भयभीत हो उठो। अन्य पहाड़ी प्रदेशों में बसने वाली जनजातियों की तरह इनका कद छोटा नहीं होता। बल्कि ये लोग बड़े हष्टपुष्ट और भयानक आकृति के होते हैं। ये लोग शरीर पर ऐसे अलंकार धारण करते हैं, कि उन्हें देखकर ह्रदय से भर का संचार होने लगता है।

ये लोग शरीर पर कोई विशेष वस्त्र धारण नहीं करते, बल्कि एक साधारण सा कपड़ा कमर के गिर्द लपेट कर ऊपर से बंटा बांध लेते हैं। इनकी स्त्री को देखिए तो वे भी बिल्कुल नग्न शरीर ही दिखाई देगी। एक लुंगी ही तो कमर के चारों ओर अवश्य लपेटती है। इसके अतिरिक्त शरीर के और किसी भाग को नहीं ढकती। अधिक वस्त्र धारण करने में इन्हें आलस्य प्रतीत होता है। ये नारियां शरीर की इतनी कठोर होती हैं, कि भारी से भारी बोझ उठाने में भी नहीं हिचकिचातीं, बल्कि उसे अनायास उठा कर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाती हैं । इतना ही नहीं बल्कि खेतों का सारा काम भी इन्हीं पर निर्भर रहता है। पुरुष खेती के काम में अधिक समय नहीं दे पाते, क्योंकि उनके लिये और भी अनेक कार्य करने को होते हैं।

वास्तव में यदि इन कुमी लोगों के जीवन का भली प्रकार अध्ययन किया जाय तो आप को यह विदित होगा, कि शायद इस से बड़ी लड़ाकू जाति संसार में कोई कम ही होगी । कलादान प्रदेश में बसने वाली जनजातियों का जीवन क्‍या है ? सचमुच हर समय मृत्यु से खिलवाड़ करना है। इस प्रदेश में आप को बहुत से गांव तो ऐसे मिलेंगे, जहां दिन रात अपनी रक्षा के लिये लोग हथियारों से सज कर पहरा दिया करते हैं। पहरा देने का यह कार्य प्रत्येक गांव में नहीं होता, अपितु इन लोगों की प्रकृति इतनी झगड़ालू है, कि तनिक सी बात भी सह नहीं पाते, और इस तरह जरा जरा सी बात पर ही एक गांव की दूसरे गांव के लोगों से इस तरह ठन जाती है, कि जब तक एक दूसरे को परास्त न कर लें तब तक चेन नहीं लेते। हर समय यही भय रहता है, कि दिन या रात्रि को न जाने किस समय अचानक एक गांव के लोग दूसरे गांव के लोगों पर आक्रमण कर बैठे इस लिये ऐसी अवस्था में गांव की रक्षा के उदेश्य से 20 या 25 आदमियों की टोली हर समय पहरे पर नियत रहती है, और यह पहरा तब तक चलता है, जब तक कि हार जीत का निर्णाय न हो जाये। हार या जीत का निर्णय अथवा झगड़े का अन्त वार्तालाप द्वारा नहीं होता। एक की शक्ति दूसरे की शक्ति से कितनी भी कम क्‍यों न हो, फिर भी रक्‍त बहा कर ही हार, जीत का निर्णय किया जाता है।

कलादान नदी प्रदेश
कलादान नदी प्रदेश

कलादान प्रदेश के लोग इतने अधिक युद्ध-प्रिय हैं, कि इन की नस नस में गर्म रक्त प्रवाहित होता रहता है। इन के गांव या घरों को ही देखिये, तो वह भी एक प्रकार से गढ़ से मालूम पड़ते हैं। इन लोगों के गांव आप को कभी किसी पहाड़ी के आंचल में नहीं दिखाई पडेंगें, बल्कि ये लोग उन्हें सदा पहाड़ी की चोटियों पर किसी ऐसे स्थान पर बनाते हैं, जहां से चारों ओर के क्षेत्रों पर नज़र रखी जा सके। इस दृष्टि से इन लोगों के युद्धकोशल में अत्यन्त निपुण होने का पता चलता है। ये लोग अपने घर मिट्टी, ईट या पत्थर के नहीं बनाते, बल्कि लकड़ी के ही बनाते हैं, वैसे तो इन मकानों के निर्माण में हर प्रकार की मज़बूत लकड़ी का प्रयोग होता है परन्तु ये लोग बांस को ही अधिक महत्त्व देते हैं। इसके भी दो कारण हैं पहला तो यह कि यदि ये लोग बांस के अतिरिक्त किसी अन्य लकड़ी का प्रयोग करें, तो व्यय श्रधिक होता है, परन्तु ये इतने ग़रीब होते हैं, कि इन में खर्चा सहन करने की शक्ति नहीं होती। दूसरा कारण यह है , कि बांस इन क्षेत्रों में आवयकतानुसार काफ़ी मिल जाता है, तथा उसके मकान भी काफी हल्के-फुल्के रहते हैं, और अपनी आवश्यकता के अनुसार उन्हें छोटा बड़ा भी किया जा सकता है।

कुमी लोग अपने मकान गांव के आंगन के चारों ओर मिला कर बनाते हैं कि सिवाय मुख्य द्वार के, जो कि विशेष तौर पर बड़ा मज़बूत बनाया जाता है, अन्य कोई भी मार्ग बाहर निकलने के लिये नहीं होता। यह द्वार मज़बूत लकड़ी के मोटे मोटे लट्ठों को जोड़ कर बनाया जाता है। गांव के चारों ओर इसी प्रकार के लट्ठटों को जोड़कर एक दीवार भी बनाई जाती हैं, जो कि गांव की रक्षा के लिये काफ़ी उपयोगी सिद्ध होती है। प्रत्येक गांव में एक ऐसा सभा भवन भी होता है, जहां बैठ कर कुमी लोग समय समय पर आवश्यकतानुसार अपनी समस्याओं पर दृष्टिपात करते हैं। इसके अतिरिक्त ये लोग ऊंचे ऊंचे वृक्षों पर भी कुछ ऐसे छोटे छोटे मकान बनाते हैं, जिन में प्रवेश के लिये छोटे छोटे द्वार होते हैं, जिन पर किवाड भी लगे होते हैं। यह मकान अन्य मकानों की अपेक्षा कहीं अधिक मज़बूत तथा अंधकार पूर्ण होते हैं। इन मकानों में चारों ओर छोटे छोटे छिद्र रखे जाते हैं, जिनका युद्ध के समय बड़ा महत्त्व होता है। इन छिद्रों से ये लोग अपने शत्रु पर दृष्टि रखने, तथा उन पर चोट करने का प्रबन्ध करते है। वृक्षों पर इतने ऊंचे मकान बनाने का अभिप्राय भी यही होता है, कि शत्रु के जोरदार आक्रमणों को रोका जा सके। जब भी इन लोगों को किसी दूसरे गांव के लोगों की ओर से आक्रमण होने का सन्देह होता है, तो ऐसी स्थिति में ये लोग अपने हथियारों से सुसज्जित हो कर अपने अपने मोर्चों पर डट जाते हैं, तथा कुछ विशेष योद्धाओं को शत्रु का आक्रमण विफल बनाने के लिये इन मकानों पर नियुक्त कर दिया जाता है, और ऐसा देखा गया है, कि इस प्रकार ये लोग श्रपने उदेश्य में काफी कुछ सफल भी हो जाते हैं। वृक्षों पर बहुत से मकान तो इतने अधिक ऊंचे बनाये जाते हैं, कि इनकी ऊंचाई सौ फ़ूट तक पहुंच जाती है इन मकानों पर चढ़ने के लिये सीढ़ियों का उपयोग किया जाता है। युद्ध के समय यह सीढ़ियां ऊपर खींच ली जाती हैं, ताकि शत्रु को इन्हें नष्ट-भ्रष्ट करने का अवसर प्राप्त न होने पाये।

प्राचीन शस्त्रों के साथ साथ यह लोग आधुनिक हथियारों का प्रयोग भी करते हैं, आधुनिक हथियारों में बन्दूक का इनके लिये बड़ा महत्त्व है। इतने भयानक हथियार रखने के लिये यह कोई लाइसेंस आदि नहीं बनाते, बल्कि लाइसेंस रहित हो कर ही उनका उपयोग उठाते हैं। इसके कई कारण हैं। एक तो यह कि ये लोग पूर्ण निरक्षर होते हैं, और लाइसेंस आदि बनवाने में इन्हें बड़ा झंझट प्रतीत होता है तथा ग़रीबी के कारण हर एक व्यक्ति लाइसेंस की फ़ीस भी नहीं दे पाता, किन्तु इनका जीवन इतना कठोर तथा भयानक होता है कि बिना शस्त्र के ये लोग जीवित नहीं रह सकते। हर समय मौत का सामना करना पड़ता है इस लिये अपनी सुरक्षा के लिये इन्हें उसे हर हालत में रखना ही पड़ता है। दूसरा कारण यह है, कि यह लोग नगरों से दूर भयानक वनों में रहते हैं, जहां साधारण मनुष्य तो पहुंच भी नहीं पाता, इसलिये सरकारी कर्मचारियों की नज़र से बचे रहते हैं। वैसे सरकार ने अब इनके शस्त्रों पर प्रतिबंध लगा दिया है, तथा इनके लिये शस्त्र रखने पर लाइसेंस प्राप्त करना अनिवार्य घोषित कर दिया है। यह
लाइसेंस इन्हें बिना किसी बाधा के प्राप्त हो जाते हैं, परन्तु फिर भी आधे से अधिक कुमी लोग ऐसे हैं, जो अब भी सरकारी कर्मचारियों की नजरों से छुपा कर बिना लाइसेस के शस्त्र रखते हैं । यह केवल अविद्या का ही प्रभाव है, शिक्षित समाज अभी तक इनके नेत्रों ने कभी देखा ही नहीं । आज का सभ्य जगत इनकी स्थिति से कोसों दूर है। अभी ये लोग उसके गुणों से परिचित नहीं हो पाये। किन्तु आज हमारी सरकार ने इनके जीवन को सुधारने का निश्चय किया है ओर शिक्षा ही एक ऐसा साधन है, जिसके द्वारा इनके अंधकार पूर्ण जीवन में सभ्यता की ज्योति जलाई जा सकती है। यदि इन लोगों को शिक्षित किया जाये, तो ये लोग जंगली स्वाभाव को त्याग कर अपने जीवन को उन्नतिशील बनाने में सफल हो सकते हैं। इसी विचार से सरकार इनमें शिक्षा का प्रचार करने के लिये प्रयत्न कर रही है। यह ठीक है, कि अभी इन लोगों ने इस विषय में विशेष रुचि का प्रदर्शन नहीं किया, इसलिये कम ही सफलता प्राप्त हो पाई है, परन्तु इतना निश्चय-पूर्वक कहा जा सकता है कि इस मामले में जितना अधिक श्रम सरकार को करना पड़ रहा है, वह किसी न किसी दिन फल श्रवश्य ही देगा।

कितना पिछड़ा हुआ और मौत से घिरा हुआ जीवन है इन “कुमी’ लोगों का यह सब क्यों है ? क्‍यों यह लोग इतनी अधिक भयानक तथा युद्ध-प्रिय प्रकृति के हैं ? इसका उत्तर स्पष्ट है। यदि हम लोग इनके सामाजिक जीवन पर दृष्टि पात करें, तो हमें पता चलता है, कि यह लोग हमारी तरह अपने पूर्वजों का कभी आदर नहीं करते। आदर न करने का यह मतलब नहीं, कि यह लोग उनकी आज्ञाओं का पलन नहीं करते, या उनका अपमान किया करते हैं अपितु ऐसी कोई रीति इन में प्रचलित नहीं है। इसी कारण यह लोग ऐसा नहीं करते, अन्यथा ये लोग तो उनके लिये अपना रक्त तक बहा देते हैं। उनकी सुरक्षा के लिये ये लोग अपनी मौत से भी लड़ते हैं। फिर आदर न करने का आशय क्या है ?

स्वभाव से ही ये लोग प्रत्यन्त घमण्डी होते हैं ओर इसी घमंड का यह प्रभाव है, कि ये लोग संसार के सब से पूज्य महापुरुष के आगे भी सिर नहीं झुकाते। झुक कर चलना यह नहीं जानते। इन की माताएं बचपन से ही इन्हें ऐसी शिक्षा देती हैं, जिसके प्रभाव से इनका स्वभाव प्रत्यन्त स्वाभिमानी हो जाता है, और फिर क्या मजाल, कि यह लोग किसी के समाने झुके। कोई भी हो, चाहे वह इनका पिता भी क्‍यों न हो, यह उसके सामने भी नहीं झुकते। इन्हें बालपन में ही जैसी शिक्षा दी जाती है, वह इस बात से स्पष्ट हो जाती है, कि जब कोई बालक पैदा होता है, तो रीति-अनुसार उसका नाम रखा जाता है। इसके बाद माता कच्चे सूत के धागे के साथ बालक के हाथ बांधती है, फिर उसे श्राशीर्वाद देती है, कि “हे प्रिय पुत्र ! तुम एक बहादुर योद्धा बनो, हर जगह तुम्हारे बाहु-बल की कीर्ति बढ़े, प्रत्येक दिशा में तुम्हारी जीत हो, तथा तुम किसी के आगे न झुको।’ माता ही नहीं, अपितु जीवन के अनेक अवसरों पर आशीर्वाद के समय, इनके पूर्वंज भी इन्हें ऐसे ही आशीर्वाद दिया करते हैं।

पूर्ण अशिक्षित होने के कारण ये लोग उसकी वस्तविकता को नहीं समझ पाते, और बालपन से ही इन्हें अपना लहु इतना तुच्छ दिखाई देने लगता है, कि हर समय शीश पर कफ़न बांधे लड़ने मरने को तैयार दिखाई देते हैं। किसी भी अन्य व्यक्ति की बात सहन कर पाना इन्होंने नहीं सीखा इसलिये या तो स्वंय कट मरते हैं, और या उपेक्षा करने वाले को मृत्यु के घाट उतार देते हैं। जहां किसी ने इनके प्रति विरोध की तनिक भी भावना प्रदर्शित की, तो चाहे वह सत्य ही क्यों न हो, परन्तु ये लोग उसे किसी प्रकार सहन कर लें, ऐसा देखने में नहीं आता। तुरन्त भयंकर संग्राम छिड़ जाता है, और तब तक उसकी समाप्ति नहीं हो पाती, जब तक कि एक ओर के दल का पूर्ण रूप से नाश न हो जाये। इने लोगों में मनुष्य का मूल्य बहुत सस्ता है, अविद्या के कारण ये लोग इतने भयानक कार्य करने में कोई संकोच नहीं करते। परन्तु जहां ये लोग इतने अधिक जंगली तथा भयानक हैं, वहां इन में कुछ विशेष गुण ऐसे हैं, जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि इनका अतीत भी कभी गौरवमय रहा होगा।

अपने प्रति इन लोगों ने एक लोक-कथा भी घड़ रखी है, जिस में यह लोग अपनी जाति की उत्पत्ति का वर्णन करते हैं। इनका विश्वास है, कि सब से पहले इस सौर मण्डल में ईश्वर था, तथा उसी ने चन्द्र, सूर्य आदि बनाये, तथा सब से अन्त में पृथ्वी बनाई। जब पृथ्वी बन कर तैयार हो गई, तो विधाता ने खड़िया मिट्टी की दो मूर्तियां बनाई। जब ईश्वर इन मूर्तियों को बना चुका, तो थक जाने के कारण उसे नींद आ गई। इतने में एक बड़ा भयानक सर्प आया ओर ईश्वर को सोते देख अवसर पा कर उन्हें निगल कर लोप हो गया। जब ईश्वर की निंद्रा टूटी, तो मूर्तियों को न पा कर उन्हें बड़ा कष्ट हुआ, परन्तु जब उनकी समझ में उनके खोये जाने का कोई कारण न आया, तब विवश हो कर उन्होंने और दो दूसरी प्रकार की मूर्तियां बनाईं। परन्तु जैसे ही भगवान इन मूर्तियों को बना कर पूर्ण कर पाया, वैसे ही उसे फिर नींद आ गई। इस बार भी वही सर्प न जाने कहां से आया, ओर फिर इन मूर्तियों को निगल गया। इस बार भी आंख खुलने पर जब भगवान को उसकी मूर्तियाँ न मिलीं, तो वह बड़ा दुखी हुआ। इन मूर्तियों को बनाने में भगवान को पूरा एक दिन लगाना पड़ता था। जाने कितने श्रम के पश्चात वह पूर्ण हो पाती थीं, फिर भी निद्रा की अवस्था में उनकी सुरक्षा न हो पाती ओर उन को खो देना पड़ता । ऐसा भगवान ने अनेक बार किया, परन्तु हर बार निराशा ही प्राप्त हुई, और उनकी रक्षा किसी प्रकार भी नहीं की जा सकी।

अन्त मे एक दिन भगवान ने यह निर्णय कर लिया कि इन मूर्तियों की सुरक्षा भनिवार्य है, इसलिये किसी ऐसे प्रहरी की आवश्यकता है, जो जब भी कोई भय हो, मुझे जगा दिया करे। यही एक ऐसा उपाय था जिस से उन मूर्तियों की रक्षा की जा सकती थी। अन्त में एक दिन भगवान ने सोचा, कि मनुष्य की मूर्ति बनाने से पूर्व किसी ऐसे जानवर की सृष्टि की जाये, जो बहुत आज्ञाकारी हो। इस लिये भगवान ने सब से पहले एक जानवर बनाया, जिसे कुत्ता कहते हैं। अब फिरभगवान ने मनुष्य की दो मूर्तियां बनाईं, जिनमें एक पुरुष तथा दूसरी स्त्री थी। इस बार जब वह सोया, तब वही सर्प फिर कहीं से निकल कर मूर्तियों को निगलने के लिये आया
किन्तु कुत्ता पहरे पर था, इसलिये उसने सर्प को देख कर बड़े ज़ोर ज़ोर से भौंकना प्रारम्भ कर दिया। ज्यों ही कुत्ता भौंका, वैसे ही भगवान की निद्रा भंग हो गई भर वह जाग उठा। यह देख सर्प भयभीत हो कर भाग गया, और इतना भयभीत हुआ, कि फिर कभी लौट कर नहीं झाया। इन मूर्तियों में ही प्राण डाल कर भगवान ने इन्हें मनुष्य रूप दिया, जिन के द्वारा हम सब लोगों की उत्पत्ति हुई है।

कितनी अनोखी तथा रोचक है इन लोगों की सृष्टि की कहानी, जो प्रायः इन के मुख से सुनने को मिलती है। हो सकता है कि यह पूर्ण मन घड़न्त हो, परन्तु इस में गम्भीर विचारों का समावेश है। यह कथा अन्य सभ्य जातियों की लोक-कथाओं से किसी प्रकार भी कम महत्त्व नहीं रखती। आज के महान विद्वानों ने जिस प्रकार मनुष्य को पशुओं की संतति माना है, तथा मनुष्य से पहले जानवरों की उत्पत्ति ठीक मानी है, उसी प्रकार इन्होंने भी मनुष्य को पशुओं की संतति तो स्वीकार नहीं किया, परन्तु उस से पूर्व पशुओं की उत्पत्ति अवश्य मानी है, जिसके स्पष्ट दर्शन इनकी उपयुक्त सृष्टि सम्बन्धित लोक कथा में प्राप्त होते हैं। यह लोक कथा इनके प्राचीन गौरव का एक ऐसा दृढ़ स्रोत है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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