करमा पूजा आदिवासियों का विश्व प्रसिद्ध त्यौहार है। जहा भी आदिवासी है, करमा पूजा अवश्य करते है। यह पर्व भादपद की एकादशी, अनन्त चतुर्दशी के अवसर पर अनिवार्य रूप से मनाया जाता है।जो एक अनुष्ठान के रूप में चौबीस घण्टे तक चलता है प्रतिपदा के दिन जौ की जयी जमायी जाती है। ग्यारह दिन बाद उसे कटोरे मे रख कर अगरबत्ती, गुड, घी से उसकी पूजा करके स्त्रियां नाचती-गाती हुई करम देवता के समीप रखती हैं। करम देवता कदम्ब के वृक्ष के प्रतीक होते है जिन्हें नदी के तट से समारोह पूर्वक लाया जाता है।
करमा पूजा कैसे की जाती है
दस-पाच गाव की स्त्रिया, क्वारी कन्याएं जयी के साथ नृत्य करती हुयी वृक्ष के पास पहुचती है, उनमे से कोई एक बैगा की कन्या या बालक एक ही बार में वृक्ष की डाली काटती है काटने या आंगन मे चलने की अनुमति करम देव या करमा देवी से सिन्दूर टिकली, नैवेध चढ़ा कर एक दिन पूर्व माग ली गयी होती है। कटी हुई डाली जमीन पर गिरने से पूर्व हाथो हाथ लोक ली जाती है फिर उसे नाचते-गाते देव-स्थान पर लाया जाता है, उसे जमीन में गाड कर बैगा द्वारा दारू से पूजा जाता है।
करमा पूजाजिसका प्रसाद सभी पाते है और फिर उसके चारो ओर वे जो वृत्त बना कर नाचना शुरू करते है, तो चौबीस घन्टे तक नाचते ही रहते है। उनके पांवो मे जख्म,तक हो जाता है, अंगूठा खून से लथपथ हो जाता है पर नाचना बन्द नहीं करते। परंपरा यह भी थी कि जब किसी युवक के पाव का अंगूठा किसी अविवाहिता के अंगूठे से छू जाता तो वही विवाह-कार्य भी सम्पन्न हो जाता था। इनके यहां दहेज की कोई प्रथा नही है।
करमा पूजा कर्म यानी पुरुषार्थ का प्रतीक पर्व है। इसका आयोजन खरीफ की फसल बो दिए जाने के बाद उत्तम फसल होने तथा ‘सर्वे भवन्तु सुखिन” की मंगल कामना से किया जाता है जिसकी तैयारी लगभग छः माह पूर्व से प्रारम्भ हो जाती है।
सोनभद्र जिले मे करमा लगभग दस तरह से किया जाता है। गोडो का गोडी करमा, खरवारों का खरवारी करमा, धागरों का धागरी करमा, भुईया करमा, कोरवा करमा, पठारी करमा, घसिया करमा
आदि। हर्ष की बात है कि सोनभद्र के करमा को -अब राष्ट्रीय मंचों पर सम्मान प्राप्त हो चुका
कोरवा यहां की लुप्तप्राय जनजाति है। उसका करमा नृत्य पर्व अनोखा होता था। यह प्राय नंग-धडग रहने वाली जनजाति थी। इसके बारे मे डॉ. मजुमदार ने लिखा है कि एक आत्मा फसल के ऊपर तथा एक पशुओं के ऊपर तथा ऐसी अन्य अनेक आत्माए होती है जो कि वस्तुओं पर शासन करती है। इन्ही आत्माओं से प्रभावित होकर वे अपने पड़ोसियों, जनजातीय पुरोहितो, मुखिया तथा जनजातीय कार्यों के प्रति अपने दृष्टिकोण का निर्णय करते है। तात्पर्य यह है कि इनके ये पर्व इन्हे जीने की प्रेरणा देते है और आपसी भाई-चारा, प्रेम, सामंजस्य के साथ-साथ जीवन में पशु-पक्षियों, वृक्षों, वनस्पतियों, नदी-नालों तक की उपयोगिता को अंगीकार करते हैं।
करमा पूजा में गीतों का बडा महत्व है। हर अवसर के अलग अलग गीत निर्धारित है। इन गीतो के साथ उनके जीवन की संवेदनाए और रोगात्मक संबध जुड़े होते है। यहां कुछ पक्तियां
प्रस्तुत है:–
“गजऊवा के गोबरे हो अंगना लिपवले, गाड़े करम के डार।
बालकइ देवे हो दूध भात खोरवा।
चलइ बहिन करमा सेवे।
इन पक्तियों का भाव स्पष्ट है। करमा की तैयारी मे गोबर से आंगन लीपा जा रहा है और बालक को खोरा कटोरे में दूध-भात खाने को दिया जा रहा है।
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