कम्पिल का इतिहास – कंपिल का मंदिर – कम्पिल फेयर इन उत्तर प्रदेश Naeem Ahmad, April 20, 2020March 14, 2024 कम्पिला या कम्पिल उत्तर प्रदेश के फरूखाबाद जिले की कायमगंज तहसील में एक छोटा सा गांव है। यह उत्तर रेलवे की अछनेरा – कानपुर शाखा के कायमगंज स्टेशन से 8 किमी दूर है। स्टेशन से गांव तक पक्की सड़क है। बस, तांगे, आटो आदि आसानी से मिल जाते है। कंपिल एक जैन तीर्थ स्थल है। कंपिल 13वें तीर्थंकर भगवान विमलनाथ का जन्म स्थान, तप स्थान, तथा केवलज्ञान प्राप्ति का कल्याणक क्षेत्र है। कंपिल का जैन मंदिर बहुत प्राचीन है। तथा कम्पिल जैन टेम्पल के साथ साथ कम्पिल मेला भी बहुत फेमस है। यहां बड़ी संख्या में श्रृद्धालु आते है।कंपिल कल्याणक क्षेत्र क्यों है – कम्पिला का महात्म्यकम्पिला में तेहरवें तीर्थंकर भगवान विमलनाथ का जन्म हुआ था। उस समय इक्ष्वाकुवंशी महाराज कृतवर्मा यहां के शासक थे। ये भगवान ऋषभदेव के वंशज थे। उनकी महारानी के गर्भ में ज्येष्ठ कृष्ण दसमी के दिन सहस्त्रार स्वर्ग के इंद्र का जीव आयु पूर्ण होने पर आया। देवो ने आकर भगवान का गर्भ कल्याणक उत्सव मनाया। नौ माह पूर्ण होने पर भगवान का जन्म हुआ। उस समय चारों निकाय के देवो और इंद्र ने भगवान को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर उनका जन्माभिषेक किया और पुनः कंपिल लाये जहाँ उनका जन्म कल्याणक महोत्सव मनाया। सौ धर्म इंद्र ने बालक का नाम विमलनाथ रखा।उज्जैन का इतिहास और उज्जैन के दर्शनीय स्थलबालक के शरीर में 1008शुभ सामुद्रिक लक्षण थे, किंतु इंद्र की दृष्टि सर्वप्रथम उनके पैरों के चिन्ह शूकर पर पड़ी थी। इसलिए उनका प्रतिक चिन्ह शूकर स्वीकार किया गया। देवो और इंद्र द्वारा भगवान का जन्मोत्सव कंपिला में बड़े समारोह के साथ मनाया गया। इस घटना से जनता अत्यंत प्रभावित हुई और उसने तभी से कंपिला को श्रृद्धावश शूकर क्षेत्र मान लिया।दिल्ली के जैन मंदिर – श्री दिगंबर जैन लाल मंदिर, नया मंदिर, बड़ा मंदिर दिल्लीयौवन अवस्था प्राप्त होने पर पिता ने विमलनाथ का विवाह कर दिया। और राज्यभिषेक कर मुनि दीक्षा धारण कर ली। विमलनाथ राज्य शासन करने लगे। एक दिन वे प्रकृति की शोभा देख रहे थे। शरद ऋतु का सुहावना मौसम था। आकाश में कही कही बादल थे। किंतु कुछ देर बाद उन्होंने देखा, कि बादल विलीन हो गये। इस साधारण सी घटना ने विमलनाथ प्रभु को बहुत प्रभावित किया। वे सोचने लगे संसार में सब भौतिक पदार्थ और रूप क्षणभंगुर है। इससे उन्हें आत्मकल्याण की प्रेरणा मिली और कम्पिल के बाह्य उद्यान में जाकर उन्होंने मुनि दीक्षा ले ली।कम्पिल जैन मंदिर के सुंदर दृश्यकंपिला का यह उद्यान सहेतुक वन था। देवो और इंद्र ने यहां आकर भगवान का दीक्षाकल्याणक महोत्सव मनाया। पश्चात स्वामी विमलनाथ अन्य क्षेत्रों में विहार करते रहे। तीन वर्ष पश्चात वे अपने दीक्षा वन में पधारे और दो दिन उपवास का नियम लेकर ध्यान रूढ़ हो गये और वहीं उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। कंपिल में एक अघातिया टीला है। यह अनुश्रुति है कि यही पर भगवान विमलनाथ ने घातिया रहित होकर अर्थात घातिया कर्मो का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया था। यह टीला किसी प्राचीन जैन मंदिर का ध्वंसावशेष है। खुदाई होने पर यहां कभी कभी जैन मूर्तियां मिल जाती है।देवगढ़ का इतिहास – दशावतार मंदिर, जैन मंदिर, किला कि जानकारी हिन्दी मेंइस प्रकार कम्पिला में भगवान विमलनाथ के गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान। ये चार कल्याणक हुए थे। अतः यह स्थान उनके समय से ही तीर्थ क्षेत्र माना जाता है। पंचाल जनपद में भगवान आदिनाथ, पार्शवनाथ और महावीर के विहार का भी उल्लेख मिलता है। यहां इन तीर्थंकारों का समरसरण आया है।प्राचीन कम्पिल जैन टेम्पल – कंपिल का मंदिरइस तीर्थ क्षेत्र की मान्यता अति प्राचीन काल से है। इसलिए प्रागैतिहासिक काल में यहाँ भगवान विमलनाथ का कोई मंदिर अवश्य रहा होगा। चैत्य निर्माण की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। किंतु प्रागैतिहासिक काल का कोई मंदिर वर्तमान मै उपलब्ध नहीं है। सम्भव है, अगर यहाँ ऐसा मंदिर कभी रहा हो तो वह नष्ट हो गया होगा। फिर भी वर्तमान में एक बहुत प्राचीन मंदिर बस्ती के बीच पश्चिमोत्तर भाग में विद्यमान है। इसका निर्माण काल 492 ईसा बताया जाता हैं। अर्थात यह मंदिर डेढ़ हजार से ज्यादा वर्ष पुराना है। यह मंदिर धरातल से लगभग 10 फुट ऊंची चौकी पर बनाया गया है।मंदिर की प्राचीन प्रतिमाएंइस मंदिर में भगवान विमलनाथ की मूलनायक प्रतिमा है। इसका वर्ण खाकी, आवगाहना दो फुट, पाषाण की पद्मासन मुद्रा में है। छाती पर श्रीवत्स और हथेली पर श्रीवृक्ष का चिन्ह है। पहले यह मंदिर के गर्भगृह भाग में थी। वहां से उठाकर अब इसे ऊपर संगमरमर की नयी वेदी में विराजमान कर दिया गया है। प्रतिमा पर लेख है। किंतु पढा नहीं जा सकता, घिस गया है। भक्त जनता इसे चतुर्थ काल की मानती है। किंतु इस की बनावट शैली और पाषाण आदि का सूक्ष्म निरीक्षण करने पर तथा श्रीवत्स से लगता है। कि यह गुप्तकालीन है। प्रतिमा का भावांकन अत्यंत सजीव है। मुद्रा की सहज मुस्कान भी समूचे परिवेश में उभरते हुए विराग को दबा नही पायी, हां विराग में मुस्कान और भी अधिक प्रभावक हो गयी है। मानो वह कह रही है कि संसार और भोगों का परित्याग मेरे लिए हंसी का खेल है। मैं लिप्त ही कब हुआ था इनमें? यह प्रतिमा गंगा में से निकली थी। पानी में पड़े रहने से इसके मुख, पेट, और छाती पर दाग पड़ गये है।मरसलगंज प्राचीन दिगंबर जैन मंदिर आतिशय क्षेत्र तीर्थमुख्य वेदी पर 5 पाषाण की और 13 धातु की प्रतिमाएं है। एक पाषाण प्रतिमा जिसका वर्ण भूरा है। आवगाहना 15 इंच है। यह पद्मासन मुद्रा में है। और काफी प्राचीन प्रतीत होती है। इस पर कोई लाछन या चिन्ह नही है। परंपरा से इसे भगवान अन्नतनाथ की प्रतिमा कहा जाता है।दो पाषाण प्रतिमाएं आठ इंच की है। एक भूरे पाषाण की है और दूसरी कृष्ण पाषाण की। लेख या लाछन बिल्कुल घिस चुके है। एक प्रतिमा महावीर स्वामी की और दूसरी ऋषभदेव की कही कही जाती है। एक अन्य पाषाण प्रतिमा 2008 की है।देवगढ़ का इतिहास – दशावतार मंदिर, जैन मंदिर, किला कि जानकारी हिन्दी मेंबायी ओर की वेदी में बादामी या खाकी वर्ण की एक पद्मासन प्रतिमा। इसकी आवगाहना एक फुट दस इंच है। इसके ऊपर लेख या लाछन कुछ नहीं है। परंपरा से यह महावीर स्वामी की कही जाती है। इस वेदी पर दो प्रतिमाएं संवत् 1548 की और तीसरी कृष्ण वर्ण प्रतिमा 1960 की है। दांयी ओर बरामदे में एक चबुतरे पर चार चरण युगल स्थापित है। सहन के पास बरामदे में भी एक वेदी है। जिसमें श्वेत पाषाण की एक पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। बांयी ओर बरामदे मैं एक सर्वतो भद्रिका प्रतिमा रखी हुई है। बीच में से इसके दो भाग हो गये है। दोनों भागो में दो दो प्रतिमाएं है। सभी खंडित अवस्था में है। पाषाण खंड इस प्रकार हुए है कि एक प्रतिमा की बांह दूसरे भाग में रह गई है। पाषाण भूरे वर्ण का है। ये प्रतिमाएं पद्मासन मुद्रा में है। इनकी आवगाहना ढाई फुट है। लाछन और लेख नही है। छाती पर श्रीवत्स भी नही है। ऐसा लगता है कि यह प्रतिमा कुषाण काल की है। मथुरा से प्राप्त सर्वतो भद्रिका प्रतिमाओं से इसकी रचना शैली में बहुत साम्य दिखाई पड़ता है। उक्त प्रतिमा के बगल में एक और खंडित प्रतिमा रखी है। यह खडगासन मुद्रा में है। घुटनो से चरणों तक का भाग नहीं है। इसका वर्तमान आकार छः इंच का है। यह भी सर्वतोभद्रिका प्रतिमा की तरह प्राचीन लगती है।आगरा जैन मंदिर – आगरा के टॉप 3 जैन मंदिर की जानकारी इन हिन्दीमंदिर का शिखर विशाल है उसमें एक लम्बा चौडा सहन है। जिसके तीन ओर दालान है। और एक ओर गर्भगृह है। मंदिर के सामने ही एक धर्मशाला है। जिसमें कई कमरे है। एक दो मंजिला जैन धर्मशाला बस्ती के दूसरे सिरे पर बनी है। यह बहुत विशाल है। इसमें पक्की पांडुक शिला बनी हुई है। जो मेले के अवसर पर भगवान के अभिषेक के लिए काम आती है।पौराणिक कम्पिल का इतिहास – कम्पिल हिस्ट्री इन हिन्दीकम्पिल भारत की अत्यंत प्राचीन सांस्कृतिक नगरी है। प्राचीन भारत में भगवान ऋषभदेव ने 52 जनपदों की रचना की थी। भगवान महावीर से पूर्व से 16 महा जनपदों का भी उल्लेख जैन और बौद्ध साहित्य में मिलता है। उनमें पांचाल जनपद भी था। महाभारत युद्ध से पूर्व सम्पूर्ण पांचाल जनपद पर राजा द्रुपद का अधिपत्य था। उनकी स्त्री का नाम भोगवती या दृढ़रया था। द्रौपदी उनकी अनुपम सुन्दरी पुत्री थी, बाद में यह अर्जुन को विवाही गई। उस समय अखंड पांचाल की राजधानी कंपिल थी। इस काल में राजमहल से गंगा नदी तक एक कलापूर्ण सुरंग बनायी गयी, जिसमें 80 बड़े द्वार और 64 छोटे द्वार थे। कहते है कि उसमें ऐसी तकनीक लगी हुई थी जिसमें एक कीला ठोकते ही सभी द्वार स्वतः बंद हो जाते थे। अनन्तर उत्तर पंचाल पर द्रौणाचार्य का आधिपत्य हो गया था। दक्षिण पंचाल को द्रुपद के शासन में रहा। उत्तर पांचाल की राजधानी अहिच्छत्र थी और दक्षिण की कंपिला। पांचाल को इन दोनों भागों में गंगा नदी विभाजित करती थी। उस समय कपिल राज्य की सीमा गंगा से लेकर दक्षिण में चर्मण्वती (चंबल) तक थी। पंचाल के दोनों भागो की राजधानियों में कंपिला अधिक प्राचीन है।चन्द्रवाड़ अतिशय क्षेत्र प्राचीन दिगंबर जैन मंदिर – चन्दवार का प्रसिद्ध युद्ध, इतिहाससाहित्य में इस नगरी के कई नाम मिलते है। कम्पिला, काम्पिल्य। कही कही इसका नाम भोगपुर और भाकन्दी भी आया है। फिर समय के साथ बिगडते हुए नाम कंपिल, कम्पिल कंपिला आदि है।श्रवणबेलगोला कर्नाटक मे स्थित प्रमुख जैन तीर्थ स्थलकम्पिला प्राचीन काल में अत्यंत समृद्ध और विशाल नगरी थी। इसकी विशालता का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि ” काशिरूवृत्ति” में कंपिला और संकाश्य को एक नगर के दो भाग बताया है। इसी प्रकार “बृहज्जातक” की महीधर टीका में कपित्थक में कम्पिला का सन्निवेश बताया गया है। अर्थात कंपिल और संकाश्य दोनों मिलकर एक नगर बनाते हैं।उज्जैन महाकाल – उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर – अवंतिका तीर्थ में सप्तपुरी,प्रसिद्ध स्थान अथवा केंद्र होने के कारण यहां अनेक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक घटनाएं घटी। तीर्थंकरों के कल्याणक और विहार के अतिरिक्त यहां हरिकेश चक्रवर्ती भी हुए, जिनके पिता पद्यभान ने नगर के मनोहर उद्यान में अनन्त वीर्य जिनेन्द्र से मुनि दीक्षा ली और दीक्षा वन में तपस्या कर केवलज्ञान प्राप्त किया। आचार्य यविषेणे ने हरिकेश चक्रवर्ती के संबंध में लिखा है कि काम्पिल्य नगर में इक्ष्वाकुवंशी राजा हरिकेतु और रानी के हरिषेण नाम का दसवां चक्रवर्ती हुआ। उसने अपने राज्य की समस्त पृथ्वी को जैन प्रतिमाओं से अलंकृत किया था तथा भगवान मुनि सुब्रतनाथ के तीर्थ में सिद्ध पद प्राप्त किया था। इसी प्रकार यही पर बाहरवां चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त भी हुआ जिसने सम्मपूर्ण भारत क्षेत्र पर विजय प्राप्त कर कंपिल को राजनीतिक केंद्र बनाया। यह चक्रवर्ती भगवान नेमिनाथ और भगवान पार्शवनाथ के अन्तवर्ती काल में हुआ था। वाल्मीकि रामायण और बौद्ध ग्रंथ महा उम्मग्ग जातक में भी इस राज्य के संबंध में वर्णन मिलता है। विषय लम्पटी होने के कारण इसके नरक में जाने का उल्लेख मिलता है। महाभारत के युद्ध के बाद कम्पिला अध्यात्म विद्या केंद्र बन गया।कंपिल मेला – कम्पिल फेयर इन उत्तर प्रदेशकम्पिल क्षेत्र पर चैत्र कृष्णा अमावस्या से चैत्र शुक्ल तृतीया तक मैनपुरी वालों की ओर से मेला लगता है। और रथ यात्रा निकलती है। इस समय बाहरी चौक के दालान में बनी हुई शिखरबद्ध वेदी पर मूलनायक प्रतिमा विराजमान की जाती है। पहले यह मेला चैत्र कृष्ण दसमी से होता था। एक मेला आश्विन कृष्ण द्वितीय को होता है। इस अवसर पर जल विहार और मस्तकाभिषेक होता है। यहा पर एक श्वेतांबर जैन मंदिर भी है। इसका निर्माण सन् 1904 में हुआ था।जैन धार्मिक स्थलों पर आधारित हमारे यह लेख जरूर पढ़ें:—[post_grid id=”7632″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new 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