श्रीमती कमला देवी चट्टोपाध्याय आज के युग में एक क्रियाशील आशावादी और विद्रोहिणी नारी थी। इनके आदर्शों की व्यापकता जीवनपथ पर अग्रसर होने के लिए कुछ निश्चित सिद्धांत और बिना किसी साधन एवं सहायता के एक विशाल जनसंगठन के आयोजन का इनका अजेय साहस कुछ ऐसा निरालापन लिए था, कि जो बिना प्रभावित किए नहीं रहता था।इनकी विशेषता थी कि इन्होंने व्यवहार की सरलता को जीवन में उतार लिया था। ये मानव प्रेम की अग्रदूत और अपने विराट व्यक्तित्व एवं अदम्य क्षमता से प्रत्येक सुप्त मानस में व्यावहारिक जीन की प्रेरणा उत्पन्न कर देती थी।
इनके अंतरमन में विद्रोह की चिंगारियां सुलग रही थी। ये भारत की मरू जनता में अपनी क्रांति चेतना प्रक्षेपित कर उसके लड़खड़ाते पैरों में शक्ति और ओज भरना चाहती थी, और मुक्ति कामना के उदभासित कणों को बटोर कर जनता की स्तब्ध शक्ति को जागरूक करने का प्रयास करती रहती थी। उन्हीं के शब्दों में:- “जन क्रांति के पिछे जनता की शक्ति होनी चाहिए, जिसके लिए विदेशी राज्य के अंत का अर्थ है। सैकड़ो वर्षों के कष्टों का अंत होना । यदि हम अपने स्वतंत्रता संग्राम के इस पहलू को भूल जायेंगे और स्वतंत्रता का अर्थ केवल विदेशी शासन की समाप्ति को ही समझ लेंगे तो हमारी यह विजय सर्वग्रासी अधिनायक तंत्र में बदल जायेगी। नेताओं को और जनता को अपनी इस विजय को उस आदर्श के निकट पहुंचाने का प्रयत्न करना चाहिए, जिसके लिए हजारों ने अपना प्राणोत्सर्ग किया है। ब्रिटेन के साथ समझौता करने अथवा दूसरे शोषण की तुष्टि करने की वर्तमान नीति यदि शीघ्र नहीं छोड़ दी गई तो हमारे नब्बे वर्ष के संघर्ष का अंत प्रतिक्रांति और जनता के साथ विश्वासघात मे परिणात हो सकता है। यह हमें नहीं भूलना चाहिए”।
श्रीमती कमला देवी चट्टोपाध्याय की जीवनी
श्रीमती कमला देवी चट्टोपाध्याय का संबंध उन सैद्धांतिक प्रश्नों से है। जो विश्व की समस्त पूंजीवादी व्यवस्था पर कठोर प्रहार करते है। इनके समाजिक और राजनैतिक आदर्शों का आधार जनतंत्र के प्रगतिपूर्ण संघर्षों को स्वीकार कर सबको आर्थिक समानता प्रदान करना, जो सम्पूर्ण मानवता के लिए श्रेयस्कर और लाभप्रद है। वह लिखती है:–
“मानव मस्तिष्क को एक गढ़े हुए ढ़ाचे में ढ़ाल कर विशेष ढ़ंग से सोचने और समझने के लिए विवश नहीं करना चाहिए वरन् उसे स्वतंत्र विचारों को ग्रहण करने के लिए उत्साहित करना चाहिए। और व्यक्तिगत विभिन्नता को विभाजन रेखा न मानकर सहयोग पूर्ण सामूहिक जीवन का स्त्रोत मानना चाहिए। स्वतंत्रता की भांति लोकतंत्र भी केवल नारे लगाने से अनुभवगम्य नहीं होता, उसे जीवन में बरतना पड़ता है। पारस्परिक उत्तरदायित्व की सुदृढ़ परम्परा का विकास सर्वाधिक आवश्यक है। इस उत्तरदायित्व में दयालुता और सुविचार का योग भी निश्चित है। यह उत्तरदायित्व बौद्धिक एवं सामाजिक दृष्टि से आविच्छित्र है”।
कहने की आवश्यकता नहीं कि वर्तमान सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था में छटपटाते व्यक्ति जीवन निषेधों और रूढिग्रस्त अंधविश्वासों से प्रताड़ित मानव और व्यक्तिवादी एवं समूहवादी आदर्शों के बीच जहाँ वैपरीत्य, वैषम्य है। वहां इन्होंने कठोर और उद्धत नियंत्रण द्वारा अपनी विरोध भावना और असहमति व्यक्त की है। अपने कर्तव्य की जवाबदारी का दायित्व ये पग पग पर स्वयं महसूस करती थी। यही कारण था कि इनके जीवन और लेखों में वैयक्तिक और सामूहिक हित की भावना सवर्त्र दृष्टिगत होती थी।
स्वतंत्रता सेनानी कमला देवी चट्टोपाध्यायइन्हें आरम्भ से ही किसी प्रकार का भी प्रतिबंध अरूचिकर नहीं रहा है। बैंगलोर में मद्रासी ब्राह्मण परिवार में कमला देवी चट्टोपाध्याय का जन्म 3अप्रैल 1903 बैंगलोर (मद्रास) में हुआ था। तत्कालीन सामाजिक प्रथा के कारण अत्यंत बाल्यावस्था में ही कमला देवी चट्टोपाध्याय का विवाह कर दिया गया और पुनः नियति के क्रूर विधान के कारण ये कुछ दिन बाद ही विधवा हो गई तो इन्हें उसी दारूणा स्थिति में जीवन बिताने के लिए विवश किया गया। स्त्री की स्वतंत्रता सत्ता उन दिनों किसी भी प्रकार मान्य नहीं थी। किन्तु उस पिछड़े हुए जमाने में भी ये जीवन प्राप्ति की प्रतिद्वंद्वीता में पिछे नहीं रहने पाई।
यह पढ़ लिखकर स्वयं अपने पैरों पर खड़ी हुई और अध्ययन काल में ही श्रीमती सरोजिनी नायडू के सहोदर भ्राता पश्री हरीन्द्रनाथ भट्टाचार्य के साथ इन्होंने अपना दूसरा विवाह कर लिया। कमला देवी चट्टोपाध्याय के पति स्वंय एक अच्छे कवि, लेखक और राजनीतिज्ञ थे। विवाह के पश्चात दोनों पति पत्नी विदेश चले गए और वहां से लौटकर पुनः राजनीति के कांटों भरे क्षेत्र में उतर पड़े। उन्हें अनेक कठनाईयों से गुजरना पड़ा। देश में जो नवीन धारा बह रही थी, उससे पृथक रहना अधिक संभव न था। अतएवं सन 1930 में भारतीय स्वतंत्रता युद्ध में इन्होंने सक्रिय भाग लिया। उन दिनों बम्बई में इन्होंने जो चमत्कार दिखाए उसकी अनेक कहानियां प्रचलित है। कुछ स्वयं सैनिकों के साथ ये बम्बई स्टॉक एक्सचेंज की परिधि में धड़धड़ाती हुई घुस गई और एक घंटे से भी कम समय में गैरकानूनी नमक की छोटी छोटी पुडिया बेचकर चालीस हजार रूपये एकत्र कर लिए कानून की रक्षा के लिए जब उन्हें बंदी बना लिया गया तो निर्भिक होकर मैजिस्ट्रेट के सामने सिंह गर्जना करने लगी कि उसे इस नौकरशाही से त्यागपत्र देकर जन आंदोलन में शामिल हो जाना चाहिए। सबसे आश्चर्य की बात तो यह थी कि उसकी उपस्थिति में ही इन्होंने नमक की पुडिया बेचनी आरम्भ कर दी और वह विस्मय में डूबा हुआ आंखे फाड़ कर इस सहासी महिला को देखता रहा।
इस घटना के कारण इन्हें नौ महीने का कठिन कारावास भुगतना पड़ा, किन्तु ये अपने निर्धारित मार्ग से क्षण भर के लिए भी विचलित नहीं हुई। परिस्थियां इन्हें अधिका अधिक उद्दंड बनाती गई। एक बार छात्र सम्मेलन के अध्यक्ष पद के निमंत्रण पर जब ये श्रावणकोर जा रही थी तो इन्हें राज्य की सीमा पर ही रोक लिया गया और बंदी बना लिया गया। इससे समस्त राज्य में खलबली मच गई और श्रावणकोर की प्रजा भड़क उठी, जिसके दमन के लिए बाहर से फौज तक बुलानी पड़ी। अंत में इन्हें छोड़ दिया गया और इन्होंने एक सफल राजनितिज्ञ की भांति नहीं वरन् सफल सेनापति की भांति विजय पाई। विगत स्वतंत्रता महायुद्ध के समय जब ये अमेरिका से भारत वापिस आ रही थी तो बीच में जापान में भी उतरी थी और इन्होंने एक विशाल जन समूह के समक्ष चीन पर जापानी आक्रमण का तीव्र विरोध किया था। अपनी निर्भिक वक्तृत्व शक्ति के कारण ए बार हॉगकॉग में ये बंदी भी बना ली गई थी।
प्रारंभ से ही स्त्रियों की दुरवस्था की ओर विशेष रूप से आकर्षित होने के कारण इन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय नारी आंदोलन की प्रगति और उसके उत्थान में लगाया। दीर्घकाल में नारी की शक्ति का ह्रास देखकर इनका ह्रदय मूक क्रन्दन करने लगता था। और निरीह, अबोध कन्याओं के बाल विवाह, अनमेल विवाह और वैधव्य की अमंगल स्थिति पर ये विचलित हो उठती थी। इनके आदर्श और दृष्टिकोण इतने व्यापक थे कि जीवन की परिमिति से ये इतनी ऊपर उठ गई थी कि वैवाहिक बंधन और ग्रहस्थिक प्रेम की परीधि इन्हें अपनी सीमा में आब्द्ध नहीं रख सकी। एक पुत्र प्राप्ति के पश्चात कमला देवी चट्टोपाध्याय वैवाहिक दायित्व से भी मुक्त हो चुकी थी।
अपने पति श्री हरीन्द्रनाथ भट्टाचार्य के साथ और कई बार अकेले भी इन्होंने यूरोप का भ्रमण किया था। तीन बार यह विश्व यात्रा भी कर चुकी है। अपने विगत सार्वजनिक जीवन में ये अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की अध्यक्षता भी चुनी गईं और सन् 1939 में स्टॉकहोम में होने वाले अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मेलन और जनेवा में होने वाले अंतरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में इन्होंने भारत की ओर से प्रतिनिधित्व भी किया है। बर्लिन, प्रेग, एलिसनोर, कोपेनहेगन आदि स्थानों में समय समय पर होने वाले अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में कमला देवी चट्टोपाध्याय भारत की प्रतिनिधि बनाकर भेजी गई थी।
यहां यह लिखना अप्रसंगित न होगा कि अपनी स्वान्तः प्ररेणा से ही इन्होंने जीवन साधना आरंभ की थी और उसी के भरोसे मुसीबतों और अड़चनों में भी ये कदम बंढ़ाती हुई अग्रसर होती रही। कमला देवी हमेशा समाज की उन्नति एवं नव निर्माण के लिए प्रयत्नशील रही साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और जराग्रस्त सामाजिक व्यवस्था की थोपी प्राचीर को ये धराशायी कर देना चाहती थी। ये शासन – योजना का अनियंत्रित व्यक्तिवाद और मानवता की परिभाषा बदलकर समयानुकूल परिवर्तन की कायल थी।
ये लिखती हैं:— ” जीवन की भयानक यथार्थताएं मनुष्य को डराकर उसके सुंदर सपने तोड़ देती है। उजला पर्दा फाड़ देती हैं जो उसके नित्य के प्रति के जीवन के लिए अनिवार्य और जो जिन्दगी में उसकी दिलचस्पी बनाएं रखती है”
सम्मान
कमलादेवी चट्टोपाध्याय को भारत के उच्च सम्मान पद्म भूषण (1955), पद्म विभूषण (1987) से भी सम्मानित किया गया था। वर्ष 1966 में उन्हें एशियाई हस्तियों एवं संस्थाओं को उनके अपने क्षेत्र में विशेष रूप से उल्लेखनीय काम करने के लिए दिया जाने वाला ‘रेमन मैगसेसे पुरस्कार भी प्रदान किया गया। कमलादेवी ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर कई किताबें लिखीं हैं। उन्होंने ‘द अवेकिंग ऑफ इंडियन वुमन ‘जापान इट्स विकनेस एंड स्ट्रेन्थ, ‘अंकल सैम एम्पायर (Uncle Sam Empire ), ‘इन वार-टॉर्न चाइना और ‘टुवर्ड्स ए नेशनल थिएटर जैसी कई किताबें भी लिखीं।
अंत में यह कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा की श्रीमती कमला देवी ने दुनिया को नया दृष्टिकोण नया जीवन और नई विचारधारा दी है। इनके मूल सिद्धांतों के विवेचन से ज्ञात होता है कि जिस समाजवाद का नेतृत्व ये करती थी वह मानव विकास और क्रांति पूर्ण शासन समानता और स्वतंत्रता का घोतक है। इसमें संदेह नही कि इनका साहस उत्साह और अदभुत कर्मशीलता प्रत्येक भारतीय के लिए आज गर्व की वस्तु बन गया है। अपनी इसी अनमोल देन और यादो को देकर श्रीमती कमला देवी चट्टोपाध्याय इस दुनिया से चली गई, कमला देवी चट्टोपाध्याय की मृत्यु 29 अक्टूबर सन् 1988 को मुम्बई में हुई। भारतीय स्वतंत्रता सेनानी कमला देवी चट्टोपाध्याय की जीवनी आज भी हर भारतवासी के लिए प्ररेणा का श्रोत है।
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