संसार का कुछ ऐसा नियम सदा से चला आया है कि किसी महापुरुष के जीवन समय में बहुत कम लोग इस बात को जानने की परवाह करते हें कि वे कहाँ पैदा हुए, कैसी उनकी रहनी गहनी है, क्या उनमें विशेष गुण है और क्या गुप्त भेद मालिक और रचना का प्रकाश करने और परमार्थ का लाभ देने के लिये उन्होंने जीवन धारण किया है। लेकिन जब वे इस पृथ्वी को छोड़ देते हैं और उनका अद्भुत तेज जिससे संसार के तिमिर हटाने का लाभ प्राप्त होता था गुप्त हो जाता है तब बहुत से लोग नींद से जाग उठते हैं और उन महापुरुष के सम्बन्ध में अपनी बुद्धि के अनुसार तरह तरह की कल्पनायें करने लगते हैं और बहुत सी बातें बढ़ावे के साथ या नई गढ़ कर मशहूर करते हैं। इन्हीं कारणों से प्राचीन महात्माओं का विशेष कर उनका जिनकी बाबत उनके समय के लोगों ने कुछ नहीं बयान किया है ठीक ठीक जीवन-चारित्र लिखना बहुत कठीन हो जाता है। संत कबीर दास का जीवन परिचय भी इन्हीं कारणों से ठीक रीति से नहीं लिखा जा सकता परन्तु जहां तक मालूम हुआ वह संक्षेप में नीचे लिखते है।
संत कबीर दास का जीवन परिचय
ऐसा जान पड़ता है कि संत कबीर दास सिकंदर लोदी बादशाह के समय में वर्तमान थे। भक्तमाल और दूसरे ग्रंथों में लिखा है कि सिकंदर लोदी ने कबीर दास साहब को मरवा डालने का यत्न किया था, इस बात का इशारा कीन साहेब की पुस्तक टेक्स्ट बुक आफ इण्डियन हिस्टरी में भी किया है। “कबीर कसौटी” नाम की पुस्तक में एक साखी इस प्रकार की है ;–
पन्द्रह सो पचहत्तरा, कियो मगहर को गौन ।
माघसुदी एकादशी, रलो पौन में पौन ॥
इसके अनुसार सन् 1518 ईसवी में कबीर साहेब का देहान्त हुआ। सिकंदर लोदी 1517 ईस्वी में मरा था। इससे पक्का अनुमान होता है कि कबीरदास साहब सिकंदर लोदी के समय में थे। “कबीर कसौटी” में कबीर साहेब की अवस्था देहान्त के समय 120 बरस की होना लिखा है यदि यह ठीक है, तो कबीर दास का जन्म 1398 ईस्वी में ठहरता है।
कबीर दास के पिता का नाम नूरअली और माता का नाम नीमा था जो काशी में रहते थे। किसी का कथन है कि नीमा के पेट से कबीर साहेब पैदा हुए परन्तु विशेष कर ऐसा कहा जाता है कि नूरअली जुलाहा गंगा नदी अथवा लहरतारा तालाब के किनारे सूत धो रह था कि उसको एक बालक बहता दिखाई दिया उसने उसको निकाल लिया और अपने घर ला कर पाला-पोसा। पंडित भानुप्रताप तिवारी चुनारगढ़ निवासी जिन्होंने इस विषय में बहुत खोज किया है उनके अनुसार कबीर दास की असल माँ एक हिन्दू विधवा थी जो रामानंद स्वामी के दर्शन को गई। दंडवत करने पर रामानंद जी ने आशीर्वाद दिया कि तुमको पुत्र हो। स्त्री घबरा कर रोने लगी कि मैं तो विधवा हूँ म॒उझे पुत्र क्यों कर हो सकता है। रामानंदजी बोले कि अब तो मुँह से निकल गया पर तेरा गर्भ किसी को दिखाई न पड़ेगा। उसी दिन से विधवा को गर्भ रहा और दिन पूरा होने पर लड़का पैदा हुआ जिसे उसने लोक निंदा के डर से लहरतारा के तालाब में डाल दिया जहां से उसे नूर अली जुलाहा निकाल कर लाया। कबीर कसौटी के अनुसार जेठ की वड़सायत सोमवार के दिन नूर अली ने बच्चे को पाया।
बालपने ही से कबीर दास ने वाणी द्वारा उपदेश करना आरम्भ कर दिया था। ऐसा कहते है कि कबीरदास रामाननंद स्वामी के जो रामानुज मत के अवलंबी थे शिष्य हुए। यद्यपि कबीरदास स्वतः संत थे और उनकी गति रामानंद स्वामी से कही बढ़़ कर थी तो भी गुरु धारण करने की मर्यादा कायम रखने को उन्होंने इनको गुरु बना लिया। कहते हैं कि रामानन्द स्वामी को अपने चेले की कुछ खबर भी न थी। एक दिन वह अपने आश्रम में परदे के भीतर पूजा कर रहे थे, ठाकुर जी को स्नान करा के वस्त्र और मुकूट पहिना दिया परन्तु फूलों का हार पहिनना भूल गये, इस सोच में पड़े थे कि यदि मुकुट उतार कर पहिनाते तो बेअदबी है और मुकुट के ऊपर से माला पहनाने से छोटी पड़ती थी इतने में ड्योढ़ी के बाहर से आवाज आई की माला की गाँठ खोल कर पहिना दो। रामानंद स्वामी चकित हो गये ओर बाहर निकल कर कबीर दास को गले लगा लिया और कहा कि तुम हमारे गुरु हो।
संत कबीर दास जीकबीरदास के रामानन्द जी का शिष्य होने से यह न समझना चाहिए कि वह उनके धर्म के अनुयायी थे, उनका ईष्ट सत्य पुरुष निर्मल चेतन्य देश का धनी था जो ब्रह्म और पारब्रह्म सब से ऊंचा है। उसी की भक्ति और उपासना उन्होंने बढ़ाई है और अपनी वाणी में उसी परम पुरुष ओर उसके धुन्यात्मक “नाम” की महिमा गाई है और इसके अतिरिक्त जो शब्द कबीरदास के नाम से प्रसिद्ध है वह पूरे या थोड़े बहुत क्षेपक है। कबीर दास ने कभी किसी प्रचलित हिन्दू या मुसलमान मत का पक्ष नहीं किया वरन् सभी का दोष बराबर दिखलाया। उनका कथन है —
हिन्दू कहत है राम हमारा, मुसलमान रहमाना।
आपस में दोउ लड़े मरत हैं, दुविधा में लिपटाना ॥
घर घर मंत्र जो देत फिरत हैं, महिमा के अभिमाना ।
गुरुवा सहित शिष्य सब डूबे, अंत काल पछिताना ॥
कहते हैं कि रामानंद स्वामी ने जो कर्मकांड पर भी चलते थे एक बार अपने पिता के श्राद्ध के दिन पिंडा पारने को कबीर दास से दूध मंगाया। कबीरदास जाकर एक मरी गाय के मुंह में सानी डालने लगे। यह तमाशा देख कर उनके गुरु भाइयों ने पूछा कि यह क्या कर रहे हो। मरी गाय कैसे सानी खायगी, कबीरदास ने जवाब दिया कि जैसे हमारे गुरु जी के मरे पुरषा पिंड खायंगे। मांस, मद्य वरन हर प्रकार के नशे का कबीरदास ने अपनी बाणी में निषेष किया है।
कबीरदास जुलाहा के घर में तो पले थे ही और आप भी कपड़ा बुनने का काम करते थे। वह गृहस्थ आश्रम में थे, ओर भेषों के डिम्ब पाखंड और अहंकार की बहुत निंदनीय कहा है। कबीर साहब की स्त्री का नाम लोई और बेटे और बेटी का कमाल और कमाली था। किसी किसी ग्रंथकारों का कथन है कि कबीर साहेब बाल ब्रह्मचारी थे और कभी ब्याह नहीं किया, एक मुर्दा लड़के और लड़की को जिंदा कर उनका नाम कमाल और कमाली रखा और उनके पालन का भार लोई को जो उनकी चेली थी सौंप दिया पर यह ठीक नहीं जान पड़ता।
जो कुछ हो लोई कबीर साहेब की सच्ची और ऊंचे दर्जे की भक्त थी। एक बार का जिकर है कि कबीर साहब ने किसी खोजी को भक्ति का उदाहरण दिखाने के लिए अपने करगह में जहां वह लोई के साथ दोपहर को ताना बुन रहे थे धीरे से ढरकी अपनी बेहोली में छिपा ली और लोई से कहा कि देख ढरकी गिर गई उसे जमीन पर खोज श। वह उसे तुरंत ढूंढ़ने लगी। आखिर को हार कर काँपती हुई उसने अर्ज की कि नहीं मिलती। इस पर कबीरदास ने जवाब दिया कि तू पागल है रात के समय बिना दिया बाले ढूंढ़ती है कैसे मिले। अपने स्वामी के मुख से यह वचन सुनते ही उसको सचमुच ऐसा दरसने लगा कि अंधेरा है, बत्ती जलाकर ढूंढने लगी जब कुछ देर हो गई कबीरदास ने खफा होकर कहा कि तू अंधी है देख मैं ढूंढ़ता हूं ओर उसके सामने ढरकी बेहोली से गिरा कर उठा लिया और उसे दिखा कर कहा कि कैसे झटपट मिल गई। इस पर लोई रोकर बोली कि स्वामी क्षमा करो न जानें मेरी आंख में क्या पत्थर पड़ गये थे। तब कबीर साहब ने उस जिज्ञासु से कहा कि देखा यह रूप भक्ति का है कि जो भगवंत कहे वही भक्त को वास्तविक दरसने लगे।
प्रचलित कथाएं
बहुत सी कथायें कबीर दास की बाबत प्रसिद्ध हैं जिनका लिखना अनावश्यक है क्योंकि वह समझ में नहीं आती। इसमें संदेह नहीं कि भक्तजन सर्व समर्थ हैं शोर उनके लिए कोई बात असंभव नहीं है पर इसी के साथ यह भी है कि संत करामात नहीं दिखलाते अपने भगवंत की भांति अपने सामर्थ्य को प्रायः गुप्त रखते और साधारण जीवों की तरह संसार में बर्ताव करते हैं। तो भी थोड़े से चमत्कार जिनका भक्तमाल ओर दूसरे ग्रंथों में वर्णन है और महात्मा गरीबदास और दूसरे भक्तों ने भी उनको संकेत में अपनी वाणी में कहा है नीचे लिखे जाते हैं क्योंकि उन्हें न केवल सर्व साधारण पसंद करेंगे वरन् उन से महात्माओं की वाणी जहां यह कौतुक इशारे में लिखे है भली प्रकार से समझ में आयेगी।
- एक बार काशी के पंडितों ने जो संत कबीरदास से बहुत ईर्षा रखते थे कबीर साहब की ओर से भूखो के खिलाने का न्योता चारों ओर फेर दिया। हजारों आदमी कबीर दास के द्वार पर इकट्ठा हुए। जब कबीरदास को इसकी ख़बर हुई तो एक हांडी में थोड़ा सा भोजन बनवाकर ओर कपड़े से ढंक कर अपने किसी सेवक से कहा कि हाथ भीतर डाल कर जहां तक निकले लोगों को बांटते जाओ। इस प्रकार से सब न्योतदरी पेट भर कर खा गये ओर जब कपड़ा उठाया गया तो हांडी ज्यों की त्यों भरी निकली।
- जब कबीरदास की सिद्धि शक्ति की महिमा काशी में बहुत फेली ओर संसारियों की बड़ी भीड़ भाड़ होने लगी तो कबीरदास अपनी निंदा कराकर लोगों से पीछा छुड़ाने के हेतु एक दिन एक हाथ किसी वेश्या के गले में डाल कर ओर दूसरे हाथ में पानी से भरी बोतल, शराब का धोखा देने को, लेकर बाज़ार भर घूमे जिससे लोगों ने समझा कि वह पतित हो गये ओर उनके घर जाना छोड़ दिया।
- ऐसा ही रूप धरे कबीरदास काशिराज के दरबार में पहुंचे वहां किसी ने आदर सत्कार न किया। जब दरबार से लोटने लगे तो थोड़ा सा जल बोतल से धरती पर डाल कर सोच में हो गये। राजा ने सबब पूछा तो जवाब दिया कि इस समय पुरी के मन्दिर में आग लग जाने से जगन्नाथ जी का रसोइया जलने लगा था मैंने यह पानी डाल कर आग बुझा दी और रसोईये की जान बचा ली। राजा ने पुरी से समाचार मंगाया तो वह बात ठीक निकली।
- सिकंदर लोदी बादशाह ने कबीर साहेब को मार डालने के लिए सिक्कड़ से बंधवा कर गंगा जी में डलवा दिया, पर न डूबे तब आग में डलवाया पर एक बाल बांका न हुआ, फिर मस्त हथी उन पर छोड़ा वह भाग गया।
कबीर दास के गुरमुख शिष्य जो संत गति को प्राप्त हुए धर्मदास जी। एक प्रसिद्ध वैश्य साहूकार थे। वह पहले सनातन धर्म के अनुयायी थे और ब्राह्मणों की उनके यहां बड़ी भीड़ भाड़ रहा करती थी। उनसे संत कबीरदास मिले और संत मत महिमा गाई इस पर धर्मदासजी ने उनका काशी के पंडितों से शास्त्रार्थ कराया जिसमें यह लोग पूरी तरह परास्त हुए और धर्मदास जी ने कबीर दास को गुरु धारण करके उनसे उपदेश लिया और बहुत काल तक उनका सतसंग और सुरत शब्द का अभ्यास करके आप भी संत गति को प्राप्त हुए। उनकी वाणी वचन से उनकी गुरु भक्ति, अपूर्व प्रेम और गति विदित होती है।
कबीर दास ने मगहर में जो काशी से कछ दूर बस्ती के जिले में है देह त्याग की। उनके गुप्त होने का समय जैसा कि ऊपर लिख आये हैं सन् 1518 जान पड़ता है। उनके मगहर में शरीर त्याग करने के बहुत से प्रमाण हैं, संत धर्मदास जी ने अपनी आरती में इस भांति लिखा है।:–
अठई’ आरती पीर कहाये। मगहर आगी नदी बहाये॥
संत नाभा जी ने कहा है—
भजन भरोसे आपने, मगहर तज्यों शरीर।
अविनाशी की गोद में, विलस दास कबीर॥
संत दादू दयाल का वाक्य है–
काशी तज मगहर गये, कबीर भरोसे नाम।
सन्नेही साहब मिले, दादू पूरे काम॥
कबीर दास की मृत्यु कब हुई
कबीर दास के अंत काल के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि हिन्दुओं ने इनके सतक शरीर को जलाना और मुसलमानों ने गाड़ना चाहा इस पर बहुत झगड़ा हुआ अंत को चादर उठा कर देखा तो सतक स्थान पर शरीर नदारद था, केवल सुगंधित फूल पड़े थे। तब हिन्दुओं ने फूल लेकर मगहर में उनकी समाधि बनाई और मुसलमानों ने कब्र। यह समाधि और कब्र अब तक वर्तमान हैं और इस बात को जताती हैं कि यह सब वर्ण के झगड़े संतों ने तुच्छ और केवल संसारियों के योग्य विचार कर उन्हीं के लिए छोड़ दिये।
इसमें संदेह नहीं कि कबीरदास स्वतः संत थे जिन्होंने संसार में कर्म भर्म मिटाने और सच्चे परमार्थ का रास्ता दिखाने कोकलियुग में पहला संत अवतार धरा जैसा कि कबीर की वाणी वचन से जिसमें पूरा भेद पिंड, ब्रह्मांड और निर्मल चेतन्य देश का दिया है विदित है। इसके प्रमाण में दो शब्द “कर नेनों दीदार महल में प्यारा हैं” और “कर नेनों दीदार यह पिंड से न्यारा है”। कबीरदास की वाणी जैसे मधुर, मनोहर और प्रेम से भिनी हुई है उसका असर पढ़ने से मालूम होता है, उससे किसी बड़े से बड़े कवि या विद्वान की वाणी का मुकाबला नहीं हो सकता क्योंकि संतमुख वाणी अनुभवी है और कवियों की वाणी विद्या वृद्धि की है।
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