कन्नौज का युद्ध कब हुआ था? कन्नौज का युद्ध 1540 ईसवीं में हुआ था। कन्नौज का युद्ध किसके बीच हुआ था? कन्नौज का युद्ध हुमायूं और शेरशाह सूरी के बीच हुआ था, ऐसे ही अनेक प्रश्नों के उत्तर हम अपने इस लेख में जानेंगे, इससे पहले हम इस भीषण युद्ध से पहले का स्थिति को बारे में विस्तार से जानेंगे
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बाबर ओर भारत के दूसरे राज्य
सन् 1528 ईसवी मेंराणा सांगा को पराजित करने के बाद,
बाबर के सामने भारत के दूसरे राज्यों का प्रश्न पैदा हुआ। उन दिनों में दिल्ली और चित्तौड़ ही भारत के शक्तिशाली राज्यों में थे और दोनों ही राज्य बाबर के साथ युद्ध करके पराजित हो चुके थे।उस समय भी इस देश में छोटे-छोटे बहुत से राजा और बादशाह थे। लेकिन उनमें कोई अधिक शक्तिशाली न था। एक-एक करके उन सबको जीतकर बाबर भारत में अपना साम्राज्य कायम करना चाहता था।
इसी उद्देश्य से बाबर का ध्यान दूसरे राज्यों की ओर आकर्षित
हुआ। जनवरी सन् 1528 ईसवी में मालवा और राजपूताना को
विजय करने के लिए वह अपनी सेना लेकर रवाना हुआ। उसने सब से पहले मेदिनी राय के चन्देरी किले को जीतने का इरादा किया। बयाना के युद्ध में पराजित होने के बाद राणा साँगा अपने कुछ सरदारों के साथ इसी तरफ चला आया था और बाबर के साथ एक बार फिर युद्ध करने के लिए वह तैयारी कर रह था।परन्तु उसके सरदार और सामन्त साँगा से सहमत न थे। बाबर के साथ युद्ध करने के लिए उनका साहस और विश्वास काम न करता था। उन्होंने अनेक बार साँगा का विरोध किया। लेकिन उसने उनकी बातों को स्वीकार न किया। उसके हृदय में पराजय के अपमान की एक चिता जल रही थी। उसकी यह चिता विजय अथवा मृत्यु के साथ ही बुझ सकती थी। इसीलिए सरदारों और सामन्तो की सहमति न मिलने पर भी वह युद्ध की तैयारी में लगा
था।
राणा सांगा की मृत्यु का रहस्य
साँगा के सम्बन्ध में बाबर को कुछ भी पता न था। फिर भी एक
विशाल सेना के साथ बाबर की रवानगी का समाचार जानकर साँगा के सरदारों का विश्वास हो गया कि बाबर राणा साँगा के साथ युद्ध करने के लिए आ रहा है। उन्होंने इस संघर्ष को बचाने के लिए अनेक उपाय सोच डाले। लेकिन उनको सफलता मिलती हुई दिखाई न पड़ी। उनको यह विश्वास था कि साँगा को युद्ध से रोका नहीं जा सकता। बयाना के युद्ध-क्षेत्र से राणा को किसी प्रकार यहाँ लाने का कार्य उसके चतुर सरदारों ने किया था। उस समय साँगा के शरीर में सैकड़ों भयानक धाव थे श्रौर अन्त में वह अचेत अवस्था में यहाँ लाया गया था।
विरोध करने पर भी साँगा के न मानने पर सरदारों ने युद्ध को
रोकने की कोशिश की और उनका जब कोई उपाय न चला तो उन्होंने साँगा को विष देकर समाप्त कर दिया। बयाना की पराजय के बाद भी मेवाड़ राज्य की जो आशा बाकी थी, वह भी जाती रही और साँगा की मृत्यु के साथ ही चित्तौड़ के स्वाभिमान और वैभव का अन्त हो गया, बाबर दिल्ली से रवाना हो चुका था। चन्देरी के किले पर उसने आक्रमण किया। वहाँ के राजपूतों ने बाबर की सेना के साथ युद्ध किया और उसने जीवन का मोह छोड़ कर अपनी स्वधीनता की रक्षा के लिए उन्होंने अपने प्राणों की आहुतियाँ दीं। उनकी शक्तियाँ बाबर की सेना का सामना करने के योग्य न थीं। फलस्वरूप चन्देरी के राजपूतों की हार हुई।
अफग़ानों का विद्रोह
चन्देरी को जीत कर बाबर मालवा कि ओर बढा। वहाँ पर अभी
कितने ही सामन्त और सरदार थे, जिनके राज्यों और किलों को जितने के बाद, बाबर मेवाड़-राज्य में प्रवेश करना चाहता था। चन्देरी से आगे बढ़ने के बाद ही बाबर को समाचार मिला कि अवध और पूर्व के अफग़ानों ने विद्रोह कर दिया है और विद्रोहियों ने कन्नौज़ से मुगल सेना को मार कर भगा दिया। इस समाचार के पाते हो बाबर राजस्थान के सरदारों सामन्तों और राजाओं को विजय करने बात भूल गया। किसी भी अ्रवस्था में उसका कन्नौज पहुँचना आझ्रावश्यक हो गया। राजपूताना के राजाओं और सरदारों को जीतने के लिए जब बाबर अपनी सेना लेकर रवाना हुआ था, उन्हों दिनों में नुसरत शाह बंगाली ने आजमगढ़ और बहराइच तक जाकर अधिकार कर लिया था। बाबर चन्देरी के आगे जाकर लौट पड़ा और कापली के रास्ते से होकर वह सीधा कन्नौज की ओर बढ़ा। वहाँ पर अफ़ग़ान विद्रोहियों ने बढा उपद्रव मचा रखा था और वे मुगलों की सत्ता को वहाँ पर जमने नहीं देना चाहते थे। बाबर ने कन्नौज पहुँच कर विद्रोही अफ़ग़ानों के साथ मार-काट आरम्भ कर दी। कुछ समय तक अफ़ग़ानों ने बाबर के सैनिकों का सामना किया। लेकिन अन्त में उनकी पराजय हुई। उनकी शक्तियाँ मुगल सैनिकों के सामने डट न सकीं और उनको कन्नौज छोड़कर भाग जाना पड़ा।
बाबर ने फिर से कन्नौज में अधिकार कर लिया और वहाँ को रक्षा
के लिए उसने अपनी एक छोटी सी सेना छोड़ दी। गर्मी के भयानक दिन समाप्त हो रहे थे और बरसात के दिन निकट आ गये थे बाबर अपनी सेना के साथ वहाँ पर आस-पास घूमता रहा और उसने जौनपुर तथा बक्सर तक आक्रमण करके वहाँ के समस्त प्रदेशों के अपने राज्य में मिला लिया अपने पिछले लेख बयाना के युद्ध में लिख चुके है कि महमूद लोदी, दिल्ली के सुलातन इब्राहीम लोदी का वंशज था और दिल्ली-पतन के पश्चात वह राणा साँगा से जाकर मिल गया। बयाना के युद्ध में बादशाह बाबर के विरुद्ध युद्ध करने के लिए सांगा के साथ, महमूद लोदी भी गया था। राणा साँगा जब तक जीवित रहा, महमूद लोदी उसके साथ रहा। उसके मर जाने के बाद वह पूर्व की ओर चला गया था। अफ़गानों को मिलाकर उसने मुग़लो के साथ विद्रोह शुरूआत की थी।

कन्नौज का विद्रोह शान्त करके और वहाँ से विद्रोहियों को भगाकर बाबर लौटकर चला गया। उसके वहाँ से हटते ही विद्रोह की आग फिर सुलग उठी। लोहानियों से बिहार को छीन कर महमूद लोदी ने वहाँ पर अपनी राजधानी बनायी। उसने अपनी शक्तियों का संगठन किया ओर मुगलों के साथ मार-काट आरम्भ कर दी। बनारस और गाजीपुर में मुगलों ने अपना प्रभुत्व कायम कर लिया था। महमूद लोदी ने वहाँ पर आक्रमण किया और भीषण संघर्ष के बाद वहाँ पर अधिकार करके वह अपनी विद्रोही सेना से साथ चुनार ओर गोरखपुर पहुँच गया। विद्रोहियों के इन समाचारों को पाकर, बाबर 1529 ईसवी के आरम्भ में फिर पूर्व की ओर लौटा। उसके आते ही विद्रोहियों के साथ मारकाट आरम्भ हुई। कुछ समय संघर्ष चलता रहा। अन्त में विद्रोही अफ़गान इधर उधर भाग गये। बाबर ने इस बार युद्ध के भयानक अत्याचार किये उन अन्यायों से घबरा कर लोहानी नेता जलाल खां ने बाबर के साथ सन्धि कर ली और एक करोड़ वार्षिक कर देना स्वीकार करके वह बाबर की स्वीकृति से वहां का शासक हो गया।
विद्रोह का अन्त
लोहानियों के साथ सन्धि हो जाने के बाद भी मुग़लों के विरुद्ध जो
विद्रोह हो रहे थे, उनका अन्त न हुआ। नूसरत शाह बंगाली के उत्पात इसके बाद भी कुछ समय तक जारी रहे। बाबर ने बंगालियों को दबाने का प्रयत्न किया और जब वे आसानी के साथ न दबे तो वह अपनी सेना लेकर उनके विनाश के जिए रवाना हुआ। नूसरत शाह को जब मालुम हुआ कि बाबर अपनी सेना के साथ आ रहा है तो वह तैयार होकर गणडक के पास पहुँच गया और वहाँ के चौबीसों घाटों को रोक कर वह युद्ध के लिए डट गया । बाबर अपनी सेना के साथ जौनपुर से घाघरा की तरफ रवाना हुआ और गणडक के पास पहुँच कर 1529 ईसवी में उसने नूसरत शाह बंगाली की सेना पर आक्रमण किया। दोनों ओर से सेनाओं का सामना हुआ और कुछ समय तक भयानक मार हुईं। बाबर के साथ होशियार बन्दूकची थे। उनकी गोलियों की मार के सामने नूसरत शाह की सेना के बहुत-से आदमी मारे गये।
बन्दूकों की मार के सामने बंगाली ठहर न सके। उनकी हार हो गयी। इस लड़ाई के एक महीने के भीतर ही नूसरत शाह ने बाबर के साथ संन्धि कर ली । नूसरत शाह के साथ होने वाला घाघरा का युद्ध, बाबर के जीवन का अन्तिम युद्ध था। इन दिनों में उसका राज्य भारत में बहुत विस्तृत हो गया था और उसका साम्राज्य बदरुशाँ से लेकर बिहार तक फैल गया था। सन् 1529 ईंसवी में उसके संघर्षों, उत्पातों और विद्रोहों का अन्त हुआ और उनके साथ-साथ उसका भी अन्त हो गया। सन् 1530 ईसवी में बाबर की आगरा में मृत्यु हो गयी और उसके मृत-शरीर को काबुल में लेजाकर दफनाया गया।
हुमायूं का राज्याभिषेक
बाबर के चार लड़के थे। हुमायूं सब से बड़ा था। उसकी अवस्था
बाबर की मृत्यु के समय तेईस वर्ष की थी। यौवन के बहुत-से दिन उसने अपने पिता के साथ बिताएं थे और उन दिनों में बाबर की प्रसिद्धि समस्त संसार में थी। उसके साथ रहकर हुमायूं कों काबूल और भारत में युद्ध करते का अवसर मिला था। उसने न केवल पिता के शासन-काल में युद्धों का अनुभव प्राप्त किया था, बल्कि पिता के शौर्य और प्रताप ने जन्म से उसके जीवन को प्रकाश पहुँचाया था। कदाचित इसीलिए उसका नाम हुमायूं रखा गया था । हुमायूँ का अर्थ भाग्यशाली होता है। उसके भाग्यशाली होने में किसे सन्देह हो सकता है। जिसके पिता का साम्राज्य, बदख्शाँ से लेकर भारत तक फैला हुआ था, उसे सौभाग्यशाली होना ही चाहिए। लेकिन जन्म से न तो कोई भाग्यशाली होता है और न कोई भाग्यहीन। किसी के भाग्य और दुर्भाग्य का निर्णय उसके जीवन के समस्त दिन मिलकर किया करते हैं। जीवन की सफलता से सौभाग्य का और असफलता से दुर्भाग्य का निर्माण और निर्णय होता है, जन्म से नही।
बाबर का दूसरा लड़का कामरान था। उसे बाबर ने अपने जीवन-
काल में ही काबुल और कन्धार का सूबेदार बना दिया था। वह आरम्भ से ही लालची, अभिमानी और छली था। उसके पिता ने उसे राज्य का जो हिस्सा सौंप दिया था, उसमें उसे सन्तोष न था। वह सदा हुमायूं के साथ ईर्षा किया करता था। बाबर के तीसरे पुत्र का नाम अस्करी और चौथे का नाम हिन्दाल था उसके ये दोनों लड़के कायर निर्बल और बुद्धिहीन थे। इन दोनों लड़कों में इतनी भी योग्यता न थी कि वे अपनी बद्धि पर चल सके।
सन् 1530 ईसवी में हुमायूँ दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। इस
राज्याधिकार के बदले में हुमायूं के भाई कामरान को बदरुशाँ, कन्धार काबूल और पंजाब मिला। बाबर ने दिल्ली का राज्य प्राप्त करके भारत के कितने ही दूसरे राज्यों पर अधिकार कर लिया था और उन दिनों में कोई भारतीय राजा और बादशाह न था, जो आसानी के साथ बाबर के विरुद्ध भारत में युद्ध की घोषणा करे। इस अवस्था में भी राजपूताना और मालवा के राजाओं पर बाबर का आधिपत्य न हो सका था और भारत के पूर्व में जो अफ़ग़ानों के विद्रोह आरम्भ हो गये थे, बाबर के बार-बार दमन करने पर भी उनकी आग बुझ ने सकी थी। अवसर पाकर वह फिर सुलग उठती थी।
कन्नौज का युद्ध से पहले देश की परिस्थितियां
सन् 1526 ईसवीं के पूर्व, जब दिल्ली का सुलतान इब्राहीम लोदी
बाबर के साथ युद्ध में पराजित न हुआ था, उस समय भारत की राजनीतिक परिस्थितियाँ कुछ और थीं। लेकिन जब बाबर ने इब्राहीम को परास्त किया और वह दिल्ली की गद्दी पर बैठा, उस समय देश की परिस्थितियों का परिवर्तन आरम्भ हुआ। उसके एक वर्ष के बाद, राणा साँगा के पराजित होते ही, देश की परिस्थितियाँ बिलकुल बदल गयीं। ऐसा मालूम होने लगा कि भारत के दूसरे राजाओं का प्रभुत्व नष्ट हो जायेगा और समूचे भारत में मुग़लों का ही आधिपत्य रह जायगा।
मेवाड़ में राणा साँगा के पश्चात् उसका छोटा लड़का राजा रतनसिंह गद्दी पर बैठा था। उसका बड़ा भाई भोजराज–मीराबाई का पति साँगा से पहले मर चुका था। साँगा’ के शासन-काल में मेवाड़ के वैभव की वृद्धि हुई थी। लेकिन उसके परास्त होने के वाद वह एक साथ लुप्त हो गयी। मालवा के महमूद खिलजी के साथ चित्तौड़ का संघर्ष आरम्भ हो गया। बाबर के मरने के पहले ही भारत के पश्चिम में बहादुर शाह की शक्तियाँ बढ़ रही थीं सन् 1529 ईसवी में बाबर से बिहार का शासन वापस लाने के बाद जलाल खां लोहानी ने अपने पैर फैलाने शुरू कर दिये और बाबर की बीमारी के दिनों में उसने चुनार के किले पर अधिकार कर लिया था। राणा रतनसिह और नूसरत शाह बंगाली की मृत्यु के पश्चात् बहादुर शाह जफर का दबदबा शुरू हुआ। उसका गुजरात में शासन था और इन दिनों में उसने पुर्तगालियों के साथ अपना सीधा सम्बन्ध कायम कर लिया था। इससे तोपों के पाने में उसको बड़ी सुविधा हो गयी थी। उसके पड़ोसी राज्य निर्बल हो गये थे। रतनसिंह का भाई विक्रमाजीत चौदह वर्ष की अवस्था में चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठा। उसकी अयोग्यता, निर्बलता और अव्यावहारिकता के कारण मेवाड और मालवा के अनेक सरदारों और सामन्तों ने असंतुष्ट होकर उसका साथ छोड़ दिया था। विक्रमाजीत की इस अयोग्यता का लाभ दूसरे राजाओं और बादशाहों ने उठाया और मेवाड-राज्य के कितने ही इलाके बहादुर शाह के अधिकार में चले गये। इसके बाद भी बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया और अलाउद्दीन खिलजी की तरह उसने चित्तौड़ का विनाश एवम विध्वंस किया।
बाबर के मरने के बाद, भारत को राजनीतिक स्थितियों में फिर
परिवर्तन हुआ। जिस बाबर ने भारत की समस्त शक्तियों को निर्बल बना दिया था, उसके मरते ही, उसके लड़के हुमायूं के अनेक शत्रु पैदा हो गये। बहादुर शाह चित्तौड़ को समाप्त करके दिल्ली की ओर बढ़ना चाहता था। इसके पहले ही हुमायूं के शासन-काल में वह दिल्ली राज्य के कई प्रदेशों पर अधिकार कर चुका था और वहाँ से हुमायूँ तथा बहादुर शाह के बीच में एक भीषण शत्रुता पैदा हो गयी थी। जिन दिनों में बहादुर शाह की शक्तियाँ चित्तौड़ का सर्वनाश करने में लगी थीं, हुमायें दिल्ली से मुगलों की एक विशाल सेना को लेकर रवाना हुआ और कालपी, चन्देरी, रायसेन होता हुआ वह उज्जैन पहुँच गया। इसका समाचार जब बहादुर शाह को मिला तो वह चित्तौड़ से अपनी फौज के साथ रवाना हुआ और फरवरी सन् 1535 ईसवी में
दोनों का मन्दसौर में सामना हुआ। दो महीने तक वहाँ पर दोनों की और से मोर्चाबन्दी होती रही और अनेक बार दोनों सेनाओ के बीच लड़ाइयाँ हुई। अन्त में बहादुर शाह साहस छोड़ कर अपनी सेना ओरस रदारों के साथ वहाँ से भागा और हुमायू ने गुजरात तथा मालवा पर अधिकार कर लिया।
अस्करी हुमायूं का छोटा भाई था। कुछ दिनों से दोनों के बीच में
असन्तोष जनक व्यवहार चल रहे थे। मन्दसौर में जिन दिनों हुमायूँ और बहादुर शाह का संघर्ष चल रहा था, अस्करी ने हुमायूं के विरुद्ध अनेक उत्पात पैदा किये और अन्त में उसने विद्रोह कर दिया। मन्दसौर में बहादुर शाह की पराजय हो चुकी थी और गुजरात तथा मालवा पर हुमायू ने अधिकार कर लिया था लेकिन वहाँ पर वह ठीक-ठीक व्यवस्था ने कर सका था। इसी मौके पर अस्करी के विद्रोह का समाचार पाकर हुमायूं दिल्ली को रवाना हो गया। बहादुर शाह जफर को जब मालूम हुआ कि हुमायूँ दिल्ली में आपसी झगड़ों में फंसा हुआ है, उसने गुजरात और मालवा पर सन 1436 ईसवी में फिर से अधिकार कर लिया। इसके बाद बहादुर शाह बहुत थोड़े दिनों तक जीवित रहा। पुर्तगालियों ने अपनी सहायता के मूल्य में बहादुर शाह से बम्बई, और बसई के टापू लेकर उन पर अपना अधिकार कर लिया था। सन 1537 ईसवी में पुर्तगालियों के साथ बहादुर शाह के झगड़े शुरू हुए आर मौका पाकर उन्होंने बहादुर शाह को धोखे में मरवा डाला।
कन्नौज के युद्ध से पहले चौसा का युद्ध
बहादुर शाह की मृत्यु हो चुकी थी। लेकिन हुमायूं के अनेक शत्रु
थे, जो अनुकूल अवसरों की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्हीं में एक शेर खाँ भी था। इसी लेख में पहले लिखा जा चुका है कि जलाल खाँ लौहानी ने बाबर से सन्धि कर ली और उसको अधीनता स्वीकार करके वह बिहार का बादशाह बन गया था। उन दिनों में शेर खाँ उसका मन्त्री था। कई वर्षों के बाद जलाल खाँ लौहानी और उसके मन्त्री शेर खाँ के बीच एक संघर्ष पैदा हुआ। जलाल खाँ अपने राज्य बिहार से भाग कर महमूद शाह बंगाली की शरण में चला गया और उसने शेर खाँ पर आक्रमण करने का निश्चय किया । महमूद शाह बंगाली की सेना लेकर उसने शेर खाँ पर चढ़ाई की और बंगाल-बिहार के बीच में क्यूल नदी के किनारे पर सूरजगढ़ के पास शेर खाँ की सेना के साथ उसने युद्ध किया। उसमें जलाल खाँ की हार हुई और उसके बाद शेर खाँ बिहार का बादशाह हो गया। इसके पश्चात शेर खाँ ने अपने राज्य का विस्तार करना आरम्भ किया। जिन दिनों में बहादुर शाह के साथ हुमायूँ की लड़ाई चल रही थी और दिल्ली में आपसी झगड़े पैदा हो गये थे, शेर खाँ को एक अच्छा अवसर मिला। उसने मंगेर और भागलपुर में अधिकार कर लिया और गौड़ पर उसने चढ़ाई की। वहाँ पर महमूद शाह ने तेरह लाख अशफ्रियाँ देकर उसके साथ सन्धि कर ली और शेर खाँ वहाँ से लौट आया। परन्तु कुछ समय बाद उसने गौड़ के किले पर फिर आक्रमण किया। शेर खाँ के इस आक्रमण का समाचार पाकर हुमायूं अपनी सेना के साथ गौड़ की तरफ रवाना हुआ। शेर खाँ अपनी एक सेना वहाँ पर छोड़ कर चुनार चला गया था। यह जान कर हुमायूं सीधा चुनार पहुँचा और वहाँ पर युद्ध करके उसने शेर खाँ को पराजित किया और चुनार पर अधिकार कर लिया। उसके बाद हुमायूं ने गौड़ के लिए प्रस्थान किया।लेकिन शेर खाँ ने गौड़ छोड़ दिया और वह झारखंड चला गया।
अभी तक शेर खाँ ने चुनार को छोड़ कर डट कर कहीं भी हुमायूं
के साथ युद्ध नहीं किया था। हुमायूँ चुप हो कर बैठ गया था। शेर खाँ ने अवसर पाकर सम्पूर्ण बिहार और जौनपुर में अधिकार कर लिया। इन दिनों में हुमायूं अपनी सेना के साथ गौड़ में मौजूद था। वह अपनी सेना लेकर गौड़ से रवाना हुआ। गंगा नदी के किनारे चौसा नामक स्थान के पास शेर खाँ ने हुमायू का रास्ता रोक दिया। हुमायूं शेर खाँ का पीछा करते-करते थक गया था। उसने शेर खाँ के साथ सन्धि करने का विचार किया और अपने इस उद्देश्य के लिए उसने अपना एक मुराल दूत शेर खाँ के पास भेजा। हुमायू का वह दूत जब शेर खाँ के पास पहुँचा तो उसने देखा कि शेर खाँ अपने साधारण सिपाहियों के साथ फावड़ा लिए खंदक खोद रहा है। दूत के पहुँचने पर शेर खाँ ने फावड़ा चलाना बन्द कर दिया और वहीं पर बैठ कर मुग़ल दूत के साथ वह सन्धि की बातचीत करने लगा। बादशाह हुमायू की ओर से सन्धि की एक-एक बात को दूत ने शेर खाँ के सामने रखी। दोनों के बीच बहुत देर तक परामर्श होता रहा और अन्त में सन्धि हो जाने की पूरी परिस्थिति उत्पन्न हो गयी। यद्यपि विचारणीय कोई भी बात बाकी न रह गई थी, फिर भी दोनों के बीच एक बार फिर मिलना निश्चय हुआ। शेर खाँ के साथ बहुत देर तक बातें करने के बाद दूत बिदा होकर
अपनी सेना की ओर रवाना हुआ सन्धि में किसी प्रकार का कोई
सन्देह न रह गया था। शेर खाँ बिहार और बंगाल का कुछ हिस्सा अपने लिए सुरक्षित रखना चाहता था। दूत को इस बात का विश्वास था कि हुमायू शेर खाँ की इस माँग को स्वीकार कर लेगा।
मुगल सेना में पहुँच कर दूत ने बादशाह हुमायूं को सन्धि की
सारी बातें बतायीं। हुमायूं कुछ देर तक बातें करता रहा और उसकी समझ में आ गया कि शेर खाँ सन्धि के लिए तैयार है। वह स्वयं सन्धि करना चाहता था। उसकी समझ में बाधा पैदा करने वाली कोई बात रह न गयी थी। शेर खाँ की माँग को दूत के मुंह से सुन कर हुमायूं को किसी प्रकार का असन्तोष नहीं हुआ उसने स्पष्ट शब्दों में उसे स्वीकार कर लिया। हुमायूं को मालुम हो गया कि दूत एक बार फिर मिल कर सन्धि के विषय में अन्तिम निर्णय कर लेगा और युद्ध की परिस्थिति उसके बाद सामाप्त हो जायगी। सन्धि लगभग तय हो चुकी थी इसलिए हुमायूं ने सन्तोष के साथ अपने शिविर में विश्राम किया। मुग़ल सेना के मनोभाव भी बदल गये। सन्धि के समाचार ने सैनिकों को एक तरह से युद्ध की परिस्थिति से अलग कर दिया। सब के सब हँसने-खेलने और तरह-तरह के मनोरंजन में अपना समय व्यतीत करने लगे।
शेर खाँ के साथ मुगल दूत की दूसरी भेंट भी हो गयी और सन्धि का अन्तिम निर्णय हो गया। शेर खाँ ने सन्धि के सम्बन्ध में दूत से बातें करते हुए प्रसन्नता प्रकट की और हुमायूँ के साथ मित्रता के सम्बन्ध को जोड़ कर वह बातें करता रहा।दूत ने लौट कर सन्धि का सुखद समाचार अपने बादशाह हुमायूँ को सुनाया। उसने सन्तोष प्रकट किया। मुगल सेना के सैनिकों और सरदारों ने सन्धि की अन्तिम स्वीकृति को सुन कर खुशियाँ मनायीं। जिस दूत सन्धि पत्र पर दोनों ओर से हस्ताक्षर लेने थे, उसके एक दिन पहले शेर खाँ ने चुपके से अपनी सेना को लेकर आधी रात को उसने समय मुग़ल सेना पर आक्रमण किया जब वह गम्भीर निद्रा में सो रही थी। मुगल सैनिकों को शेर खां की ओर से अब किसी प्रकार की आशंका न थी। ठीक यही अवस्था हुमायूं की भी थी। रात्रि की भीषणता में अफगान सेनिकों ने मुगल सेना के अधिकांश सैनिकों का संहार किया। जागने के बाद भी हुमायूं के बहुत-से आदमी जान से मारे गये। शेर खाँ ने मुगल शिविर को तीन ओर से घेर लिया था। इसलिए जो आदमी बच गये थे, वे गंगा की तरफ भागे और प्राणों के भय से वे जल में कूद पड़े। उस समय भी अफ़ग़ान सेना ने उन पर आक्रमण किया। गंगा में तैरते हुए कई हजार आदमी मारे गये और बहुत-से गिरफ्तार कर लिये गये।
हुमायूं भी अपने प्राण बचाने के लिये गंगा की तेज धारा में कुद
पड़ा था और जिस समय उसके सैनिक तैरते हुए मारे काटे जा रहे थे, किसी प्रकार धारा के साथ तैर कर वह दूर निकल गया। एक स्थान पर गंगा के किनारे अपनी मशक में पानी भरता हुआ एक भिश्ती मिला। उसने हुमायूं को अपनी मशक की सहायता से गंगा नदी के बाहर निकाला। उस समय हुमायूँ की दशा बड़ी भयानक हो गयी थी। किसी प्रकार उसको जान बची।
कन्नौज का युद्ध और हुमायूं की पराजय
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चौसा के मैदान में विजयी होकर और दिल्ली के अनेक प्रदेशों पर
अधिकार करके शेर खां 1539 ईसवी में शेर शाह के नाम से गौड़ के सिंहासन पर बैठा। हुमायूँ के अधिकार में अब दिल्ली-राज्य के बहुत थोड़े प्रदेश रह गये थे। चौसा की पराजय से वह बहुत भयभीत हो गया था। उसमे अपने भाई कामरान से शेर शाह के विरुद्ध सहायता मांगी। लेकिन उस सहायता से हुमायूं को निराश होना पड़ा। उस समय भी भाइयों के साथ उसके आपसी झगड़े चल रहे थे। हुमायूं की निर्बलता और विवशता शेर शाह से छिपी न थी। उसे यह भी मालूम हो गया था कि उसके भाई कामरान ने युद्ध में सहायता देने से इनकार कर दिया है। उसे यह भी मालूम हो गया था कि इन समस्त बातों का कारण हुमायूं के भाइयों का आपसी झगड़ा है। शेर शाह सूरी ने इन्हीं दिनों में भारत के समस्त मुग़लों को निकाल देने का निर्णय किया।
हुमायूं को जब मालूम हुआ कि शेर शाह सूरी अपनी सेना के साथ
आक्रमण करने आ रहा है तो उसने युद्ध करने की तैयारी की। हुमायूं बाबर के साथ अनेक युद्धों में रह चुका था। बाबर के समय की तोपें अब भी उसके अधिकार में थीं। अपने लश्कर के साथ उसने अपनी समस्त तैयारी कराई और विशाल सेना को साथ में लेकर वह शेरशाह सूरी के मुकाबले के लिए रवाना हुआ। अपनी सेना के साथ शेर शाह कन्नौज में मौजूद था। अपने साथ एक लाख वीर सैनिकों की सेना लेकर, हुमायूं ने एक लम्बा रास्ता पार किया और 1540 ईसवी में कन्नौज के निकट पहुँच कर उसने अपनी सेना का मुकाम किया। हुमायूँ ने बड़ी तत्परता के साथपानीपत का प्रथम युद्ध औरबयाना का युद्ध की तरह अपनी सेना की ब्यूहरचना की। मजबूत जंजीरों से बांध कर उसने तोप गाड़ियों की पंक्ति सब से आगे खड़ी की। जिस समय हुमायूं अपने सैनिकों को श्रेणी बद्ध खड़ा कर रहा था। अचानक शेर शाह सूरी की दस हजार अफ़गान सेना ने धावा बोल दिया।
मुगल-सेना अभी तक अव्यवस्थित अवस्था में थी। तोपों का संचालन मिर्जा-हैदर को सौंपा गया था। इसी समय अफ़ग़ान सेना दाहिने और बायें से आकर टूट पड़ी और उसने मुग़ल सैनिकों को काट-काटकर ढेर कर दिये। दिल्ली से आयी हुई समस्त तोपें बेकार हो गयी। बिना किसी तैयारी के मुग़ल सेना आधी से अधिक मारी गयी। यह दूसरा मौका था कि मुग़ल-सेना को अफ़ग़ानों के साथ युद्ध करने का अवसर न मिला और उसके समस्त सैनिकों का संहार किया गया। जो सैनिक बचे उन्होंने भाग करे अपनी जान बचायी। हुमायूँ स्वयं यहाँ से भाग कर आगरा की तरफ चला गया। हुमायूं की पराजय का एक कारण यह भी था कि उसके साथ जो विशाल सेना थी, वह पहले से ही शेर शाह की अफ़गान सेना से भयभीत थी। चौसा के युद्ध से मुग़ल सैनिकों का साहस टूट गया था। कन्नौज के युद्ध में शेर शाह ने जो कुछ किया, वह चौसा की पुनरावृत्ति थी। इस प्रकार का भय मुग़ल सैनिकों को पहले से ही था, जिसने उनको निर्बल, भीरु और कर्त्तव्याभिमुढ़ बना दिया था। शेर शाह ने अपनी विजयी सेना के साथ मुग़लों का पीछा किया। ग्वालियर के मुग़ल सेनापति का वहां के किले पर अधिकार था। इस लिए अफग़ान सेना ने ग्वालियर के किले पर घेरा डाल दिया। शेर शाह सूरी मुग़लों का पीछा करता हुआ पंजाब तक पहुँच गया था। वहां पर कामरान का अधिकार था। शेरशाह के भय से वह पंजाब छोड़कर काबुल चला गया। हुमायूं आगरा होकर पंजाब पहुँचा ही था कि उसने अफग़ान सेना के आने की खबर सुनी, वह तुरन्त वहाँ से सिन्ध की तरफ चला गया मिर्जा हैदर इधर-उधर भटकता हुआ काश्मीर की ओर निकल गया।
जिस विशाल और विस्तृत राज्य को बाबर ने अपने बड़े बेटे
हुमायूं के अधिकार में देकर इस संसार से बिदा ली, उसके योग्य
हुमायूं न था। जीवन की अनेक बातों में उसकी प्रशंसा की जा सकती है, वह दयालु था, दानी था और परम धार्मिक था। जीवन की अनेक अवसरों के लिए उसमें असाधारण शक्ति थी। यह सब-कुछ उसमें था। लेकिन उसमें चरित्र और दृढ़ता का अभाव था। वह स्वयं जिस बात का निर्णय करता था, उसे वह स्वप्न की भांति भूल जाता था अथवा उस निर्णय का महत्व उसके निकट अपने आप कम हो जाता था। स्थिरता, दृढ़ता और विचार शीलता की उसमें बहुत कमी थी। एक साधारण मनुष्य की तरह वह प्रशंसनीय था। परन्तु शासक के रूप में वह सदा असफल रहा। शासन की योग्यता, दूसरी योग्यताओं से भिन्न होती है। हुमायूं के जीवन की असफलता का प्रमुख कारण यही था।