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कथकली नृत्य

कथकली नृत्य – कथक नृत्य की वेशभूषा उत्पत्ति और इतिहास

भारत का केरल राज्य अपनी विविध कलाओं की वजह से दुनिया में बहुत मशहूर हुआ है। उन कलाओं में कथकली का स्थान सबसे प्रथम कहा जा सकता हैं। कथकली एक विशिष्ट नृत्य कलात्मक नाटकाभिनय प्रणाली हैं। इसे कथक नृत्य के नाम से भी जाना जाता है, इसमें अभिनय, नृत्य और संगीत इन तीनों का सुन्दर समावेश है। यह एक प्रकार की संवाद-शून्य एवं अभिनय-प्रधान नाटय कला है। यद्यपि इसको नाट्यकला के अन्तर्गत मानना ही पड़ता है, तो भी साधारण नाटकों की तरह कथकली में अभिनय करने वाले पात्र रंगमंच पर आकर एक दूसरे से वार्तालाप करने के लिए मौखिक एवं श्रव्य भाषा का उपयोग बिलकुल नहीं करते। वे गूंगों की तरह केवल सुख-मुद्राओं, हस्त-मुद्राओं और इशारों के सहारे अपने विचार और भाव एक दूसरे को समझा देने का प्रयत्न करते हैं। दर्शक लोग उन अभिनेताओं का अभिनय देखकर नाटक के प्रत्येक दृश्य की बातें समझ लेते हैं। कथक नृत्य के कलाकारों को नट कहते हैं। इन नटों के इशारों और मुख तथा हाथ के संकेतों का अध्ययन करने में दर्शकों को विशेष तत्पर रहना पड़ता है, तभी वे पूरी कथा ओर घटनाओं का व्यक्त परिचय पा सकेंगे। बहू विचित्रता ही कथकली की सबसे बड़ी विशेषता है।

कथकली नृत्य की उत्पत्ति काल – कथक नृत्य की शुरुआत कैसे हुई

कहा जाता हैं कि कथकली से मिलता-जुलता एक प्रकार का खेल पहले तमिलनाडु, कर्नाटक प्रदेश ओर आन्ध्र प्रदेश में भी यक्षगान नाम से प्रचलित था। कदाचित्‌ कहीं-कहीं उसके नाम में प्रादेशिक कारणों से थोड़ा-बहुत अन्तर रहा होगा। इस समय यह खेल सिर्फ दक्षिण कर्नाटक में कहीं-कहीं खेला जाता है। तमिलनाडु का ‘तेरुक्कत्तू” भी कथकली से कुछ मिलता-जुलता ज़रूर है। इसी तरह केरल में पालघाट जिलेके अन्दर कहीं-कहीं जो ‘कंसनाटकम्‌ और “मीनाक्षी नाटकम्‌ खेले जाते हैं वे भी कथकली से उत्पन्न माने जा सकते हैं। यद्यपि ये सभी खेल एक दूसरे से कई अंशों में समानता रखते हैं, तो भी यह निश्चित रूप से बताना कठिन प्रतीत होता है कि इनमें कौन-सा खेल पहले उत्पन्न हुआ और किससे प्रेरणा लेकर कौन आगे विकसित हो सका। कथकली नृत्य के उत्पत्ति-काल के सम्बन्ध में तथा उसके आविर्भाव के कारणों
के विषय में कई दन्तकथाएं प्रचलित हैं। लेकिन गवेषणा करने वाले विद्वानों के बीच में यद्यपि इन कथाओं को लेकर काफ़ी वाद- विवाद बराबर चलता रहता है तो भी अब तक निश्चित रूप से कोई मत स्वीकृत नहीं हो सका हैं। इसलिए उन दंत कथाओं का यहां विवरण देना उचित नहीं होगा।

कथकली नृत्य का रंगमंच

कथक नृत्य का रंगमंच बिलकुल मामूली एवं सादा रहता है। वहां प्रत्येक दृश्य दिखाने के लिए अलग-अलग प्रबन्ध नहीं करना पड़ता है। कई प्रकार के पर्दे आदि साधनों की आवश्यकता नहीं रहती। कथक नृत्य के लिए रंगमंच का विधान करना बहुत ही आसान हैं, क्योंकि एक छोटा-सा पंडाल मात्र सजाना काफी होगा। रंगमंच उसी पंडाल को कहते हैं। वहां एक बहुत ही बड़ा भारी देशी चिराग या दीपराज जलाये रखा जाता है। उसमें केवल नारियल का तेल भरा रहता है। दीपक के दोनों तरफ़ कपड़े के टुकड़ों से बनायी बड़ी-बड़ी बत्तियां जला देते हैं। उस बड़े दीपक की उज्ज्वल ज्वाला के पीछे खड़े होकर वह अपना अभिनय करते हैं। उन नटों या कलाकारों के पीछे बाजे बजाने वालों तथा गायक लोगों को खड़े रहने भर की जगह मिले तो रंगमंच की संपूर्ण व्यवस्था हो जाती है।

इसके अलावा दृश्य परिवर्तन और दृश्योद्घाटन आदि के लिए एक पर्दे की ज़रूरत है जिसको दो आदमी रंगमंच के दोनों तरफ़ खड़े होकर दीपक के पीछे और नटों के सामने पकड़े रहते हैं। रंगमंच पर नटों के आने के पहले ही दो आदमी उस रंग-बिरंगे बेल-बूटेदार पर्देकी दोनों छोर पकड़े चिराग के पीछे खड़े रहते हैं ओर नट आकर बाजों के ताल के अनुसार नाचते हुए उसे धीरे-धीरे हटा देते हैं ओर अपनी वेशभूषा और चेहरे के भाव-प्रकटन की झांकी दर्शकों को बड़े कलात्मक ढंग से दिखा देते हैं। इस पर्दे के हटाने के पहले के नृत्य और अभिनय में कलाकारों को अपनी मौलिकता दिखाने की स्वतन्त्रता दी जाती है। वे अपने-अपने ढंग से स्वतन्त्र नृत्य और अभिनय अवश्य दिखाते हैं जिसका विशेष सम्बन्ध कथा के साथ होना अनिवार्य नहीं माना जाता है। इसे रंग प्रवेश कह सकते हैं। उसके बाद ही नटों को अपना निश्चित भाग अभिनय करना होगा, जिसका संबन्ध कथा के साथ अवश्य रहेगा। साधारणत: कथकली के रंगमंच पर चटाई ही बिछायी जाती है जिसपर खड़े होकर या बैठे हुए कलाकार अपना अभिनय दिखाते हैं। कभी-कभी एक छोटी- सी बैठने की बेंच या तिपाई भी इस्तेमाल करते हैं। कुर्सी, चारपाई आदि की आवश्यकता ही नहीं रहती।

कथकली नृत्य
कथकली नृत्य

कथक नृत्य में पुरुष कलाकारों की वेशभूषा

कथक नृत्य के कलाकार मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं, जो
सत्व, रण ओर तमोगुण के अनुसार अलग-अलग प्रतिनिधित्व
रखते हैं। उनके पहनाव, वेशभुषा आदि के लिए भी अलग-अलग नियमों का पालन करना पड़ता है। आधुनिक नाटकों की तरह पात्रों के स्वाभाविक वेश और पोशाक हम कथकली के पात्रों में नहीं पा सकते। कथकली के कलाकार पच्चा, कत्ती, ताटी आदि नामों से पहचाने जाते हैं। पच्चा उस कलाकार को कहते हैं जिसके दोनों चेहरे पर खास प्रकार का हरा रंग लगाया जाता है ओर वह सात्विक स्वभाव वाला समझा जाता है। हरे रंग को सत्व गुण का चिह्न मानते हैं। पच्चा के अधर के नीचे से लेकर चिबुक तक चोड़ी और एक कान के नीचे से लेकर दूसरे कान के नीचे तक लम्बी सफेद चुट्टी नामक सख्त लकीरें चावल के गीले आटे में चूना घोलकर खींची जाती है। उसके दोनों होंठ लाल किये जाते हैं। पलकों और भौंहों पर काजल लगा देते हैं। पच्चा के सिर पर एक विशेष प्रकार का मुकुट पहनाते हैं जिसे ‘किरीटम्‌ या ‘केशभारम्‌’ कहते हैं। एक लाल रंग का कुर्त्ता जिसका हाथ कलाई तक लटका रहता है, पहनाया जाता है। कमर पर सफेद कपड़े के बड़े-बड़े टुकड़ों से बनायी हुई एक खास प्रकार की काछनी लपेट देते हैं जिसके नीचे का किनारा रंग-बिरंगे रेशमी बेल-बूटे तथा मणि-मोतियों से सजाया रहता है। साधारणत: श्रीराम, श्रीकृष्ण, अर्जुन, धर्मपुत्र, नल, अंबरीष आदि कथा के श्रेष्ठ नायकों का वेश “पच्चा” ही होता है। कभी पात्रों के अनुकूल मुकुट में अवश्य कुछ न कुछ अन्तर पाया जाता है। श्रीकृष्ण, श्रीराम आदि के मुकुट जिस प्रकार के होते हैं, उसी प्रकार के अर्जुन नल वगैरह के नहीं रहते है।

रजोगुण-प्रधान पात्रों के वेश को “कत्ती” कहते हैं। पच्चा की तरह कत्ती के दोनों चेहरे पर यद्यपि हरा रंग ही लगाया जाता है, तो भी कत्ती की चुट्टी और पच्चाकी चुट्टी में काफी अंतर रहता है। कत्ती की चुट्टी जरा भयानक रहती है। कुत्ती के ललाट और नाक पर एक छोटी-सी सफेद गोली भी लगायी जाती है जिसे “उण्टा’ कहते हैं। कत्ती की आँखें लाल की जाती हैं और पच्चा की तरह पलकों और भोंहों पर काजल भी लगाया जाता है। इन सबके अलावा कत्ती के भाल पर लाल रंग के कुछ बेलबूटे भी खींचे जाते हैं। पोशाक, मुकुट आदि बाकी बातें पच्चा की तरह ही हैं। रावण, कंस, दुर्योधन, कीचक आदि पात्रों का वेश कत्ती ही होता है।

कथा के तमोगुण-प्रधान दुष्ट पात्रों के वेश का नाम ताटी होता हैं। मलयालम में ताटी शब्द का अर्थ दाढ़ी भी हैं और ताटी के वेश में दाढ़ी को प्रधानता भी रहती है। ताटी वेश तीन प्रकार के हैं। उनमें पहला लाल ताटी है जिसकी दाढ़ी का रंग बेशक लाल रहता है। लाल ताटी वेशवाले के चेहरे पर हरे रंग के बदले लाल रंग लगाया जाता है। उसके ऊपर काले और सफ़ेद दाग तथा लकीरें भी खींचा करते हैं। कत्ती की तरह ललाट तथा नाक पर एक-एक छोटी-सी सफेद गोली भी लगा देते हैं। लाल ताटी का कुर्त्ता भी यद्यपि लाल रंग का ही होता है तो भी वह हिस्र जानवरों की खाल की भांति कांटेदार अथवा रोंगटे वाला होता है। उसके सिर पर के मुकुट का आकार बहुत बड़ा रहा करता है, जिसे कुट्टिच्चामरम्‌ कहते हैं। लाल ताटी का वेश देखने में काफी भयानक रहता है। यह वेश प्रतापी राक्षसों और असुरों के लिए नियत माना जाता है।

हम दूसरे प्रकार के ताटी वेश को उसके काले रंग की दाढ़ी से पहचान सकते हैं। उसे करुत्त ताटी कहते है। मुंह पर लाल रंग के स्थान पर काला रंग लगाते हैं और सफेद व लाल रंग के दाग आदि भी खींचते हैं। नाक और ललाट पर यथापूर्व गोलियों का होना आवश्यक है। कुर्त्ता काला और कांटेदार होता है। बाकी पोशाक आदि भी प्रायः काले रंग की ही होती है। करूत्त ताटी के सिर पर जो मुकुट पहनाया जाता है उसके आकार और रूप में भी थोड़ा बहुत फरक रहता हैं। यह वेश भी अवश्य देखने में बहुत भयानक लगता है। जंगल के किरात, व्याध, पिशाच आदि पात्रों का वेश करुत्त ताटी थर्थात्‌ काली दाढ़ी ही रहता है।

हनुमान आदि वानरों के वेश को सफेद ताटी कहते हैं। यह वेश भी अपनी सफेद दाढ़ी और चेहरे के सफेद रंग से पहचाना जा सकता है। चेहरे पर के सफेद रंग के ऊपर लाल ओर काले रंग के दाग तथा नाक और ललाट पर की सफेद गोलियां आदि इस वेश के विशेष लक्षण हैं। इतना ही नहीं, सिर पर के मुकुट का रंग और रूप एकदम भिन्‍न रहते हैं। कुत्ता आदि पोशाक जानवरों के रोम वाले चमड़े की तरह है जिसका रंग अलबत्ता सफेद ही रहा करता है। वानर, सात्विक स्वभाव वाले दानव आदि के लिए सफेद ताटी का वेश ही उपयुक्त समझा जाता है। पच्चा , कत्ती ओर ताटी पुरुष पात्रों के लिए हैं। स्त्री पात्रों के वेश दूसरे प्रकार के होते हैं।

कथकली नृत्य में स्त्री कलाकारों की वेशभूषा

साधारण स्त्री-पात्रों के वेश में मुंह पर हरा रंग लगाने के बदले लाली मिश्रित पीला रंग ही लगाया जाता है। सिर पर मुकुट के बदले भड़कीले रेशमी कपड़े डालते हैं। स्त्री पात्रों के कर्णाभूषण छोटे होते हैं। कुर्त्ते आदि में भी थोड़ा-बहुत अन्तर अवश्य रहता है। “भद्गकाली ,, “यक्षी , भीलतनी, पिशाचित्त आदि भयानक स्त्रियों के वेश में स्वभावानुकल परिवर्तन किया जाता है। उसके लिए चेहरे का रंग, पोशाक, आभूषण आदि में आवश्यकतानुसार परिवर्तन ला सकते हैं। भयानक स्त्रियों के वेश को “करी” कहते हैं। उनके चेहरे पर काला रंग लगाते हैं जिसके ऊपर चावल के गीले आटे की सफेद बँदकियाँ, चेचक की फोड़ियों की तरह डाल कर उसे बहुत भयानक बनाते हैं। उनके सिर पर रेशमी वस्त्र ओढ़ने के बदले खास प्रकार के मुकुट पहना देते हैं।

अन्य अप्रधान पात्रों की वेशभूषा

कथकली के ब्राह्मण, ऋषि, राज, बढ़ई, नौकर-चाकर आदि फूटकल पात्रों के वेश में काफी स्वाभाविकता रहती है। उनके चेहरे पर साधारण स्त्री पात्रों की तरह पीला रंग ही लगाया जाता है। ऋषियों के सिवा बाकी वेशधारियों के सिरों पर पगड़ी पहना देते हैं। ऋषियों के सफेद दाढ़ी रहती हैं ओर सिर पर पगड़ी के बदले जटा-जूट पहना देते हैं, जिससे उनका वेश अत्यन्त स्वाभाविक सा लगता है। इन सब के वेश में साधारण कपड़ा या धोती ही काछनी के बदले इस्तेमाल करते हैं। कपड़े के रंग में पात्र अनुकूल आवश्यक परिवर्तन अवश्य किया जाता है। उपयुक्त वेश धारियों की छाती नंगी रहती है जिसपर कभी-कभी दो-चार मालाएं लटकती रहती हैं। ब्राह्मण और ऋषियों के वेश में जनेऊ अवश्य रहता है। ऋषियों के बदन पर भस्म का लगा रहना भी अनिवार्य माना जाता है।

यद्यपि कथक नृत्य के पात्र अभिनय के अवसर पर बिलकुल बोलते नहीं हैं तो भी कत्ती, ताटी और करीवेशवाले बीच-बीच में एक खास प्रकार का शोर भी कर सकते हैं। ताटी तथा करी वाले नट रौद्र रस का अभिनय करते समय बड़े जोर से गरज भी सकते हैं। लेकिन अन्य किसी भी वेशवाले को रंगमंच पर आकर बोलने या किसी प्रकार का शोर मचाने की आज़ादी नहीं रहती।आधुनिक काल में यद्यपि स्त्रियां भी कथकली में अभिनय करती हैं तो भी प्राचीन काल में प्रायः पुरुष ही इसके अभिनेता हुआ करते थे।

कथकली नृत्य में उपयोग किए जाने वाले बाजे और संगीत

अब कथकली के बाजे के विषय में भी थोड़ा परिचय देना आवश्यक है। रंगमंच पर नटों के पीछे दो गायक खड़े होकर कथा के पद, गीत, कीर्तन आदि का आलाप करते हैं। उनके गानों में प्रसंगानुकूल विभिन्‍न राग-रागिनियों का आलाप भी किया जाता है। उन गायकों में एक के हाथ में चेंगला (A resounding song ) नामक बाजा रहता है, जिसे वह अपने गानों के ताल के आधार पर बजाता है। दूसरे गायक के हाथ में चेंगला के बदले इलत्तालम्‌ ( A pair of clanking cymbals ) रहते हैं। इसके अलावा दो प्रकार के अलग-अलग बाजे भी बजाये जाते हैं जिनमें एक का नाम चेण्टा ( A cylindrical drum with a loud and powerful sound ) है, और दूसरे का मद्दलम (A very big mridangam ) हैं। बाजा बजाने वाले और गायक लोग अभिनय और नृत्य के मुताबिक ताल ओर लय के साथ अपने बाजे बजाते हैं ओर गाते हैं। साधारण नियम है कि जब पुरुष पात्रों का अभिनय होता है तभी “चेण्टा” और “मद्दलम” दोनों बजाये जायें ओर स्त्री-पात्रो के अभिनय के समय सिर्फ मददलम ही बजाया जाय। लेकिन इसका पूर्णरूप से पालन कभी-कभी नहीं किया जाता है।

कथकली नृत्य
कथकली नृत्य

कथक नृत्य में अभिनय का कार्यक्रम

प्रायः कथक नृत्य रात के करीब नौ बजे शुरू होती है। दर्शक लोग पूरी रात जागते रहने के लिए तैयार होकर नौ बजे के पहले आ जाते हैं। उनको कथकली की सूचना देने के लिए सबसे पहले रंगमंच पर बाजे बजाने वाले तथा गायक आकर खड़े होते हैं और मंगलाचरण के साथ खूब बाजे बजाते हैं। इस प्रथा को केलिकोट्टु अर्थात्‌ प्रारंभ में खेल की सूचना देने का बाजा कहते हैं। केलिकोट्टु के समय बाजे बजाने वाले ही अपनी कला का विशेष प्रदर्शन करते हैं। गायक चुपचाप खड़े रहते हैं ।

कैलिकोट्ट के बाद आधे या पूरे घण्टे का समय अणियरा या नेपथ्य की तेयारी तथा विश्राम के लिए मिलता है। उसके बाद तोटयम्‌ अर्थात्‌ प्रारंभ बजाते हैं। केलिकोट्टु और तोटयम्‌ में इतना ही अंतर है कि तोटयम्‌ के अवसर पर गाने वाले भी कुछ न कुछ गाते हैं। मंगलाचरण के गीत, कीर्तन आदि उसी समय गाने पड़ते हैं क्योंकि कथकली के बीच में उसके लिए मौका नहीं नसीब होता है। तोटयम्‌ करीब एक घण्टे तक रहता है। उस समय भी बाजे वाले अपनी पूरी दक्षता दिखा सकते हैं। तोटयम्‌ के बाद एक पच्चा और एक या दो स्त्री-वेश रंगमंच पर आकर पद के पीछे खड़े हो जाते हैं और प्रार्थना, पूजा आदि के बाद खास प्रकार के तालों के अनुसार नाचते हुए धोरे-धीरे पर्दे को हटाने लगते हैं। इसमें वे अपनी कला चातुरी का प्रदर्शन करने के लिए थोड़ा ज्यादा समय लिया करते हैं। इस कार्यक्रम को पुरप्पाटु कहते हैं। पुरुप्पाटु में एक दो पात्रों का प्रथमप्रवेश मात्र मनाया जाता हैं। इसका कथा के साथ कोई विशेष सम्बन्ध नहीं रहता। पुरप्पाटु के बाद ही सचमुच कथा का अभिनय प्रारंभ होता है। उस समय गाने वाले कथकली नाटक के मंगलाचरण गाते हैं और अन्य दो-तीन गीतों के दूवारा कथा का प्रसंगपरिचय प्रदान करते हैं।

इसको मेलप्पटम कहते हैं। मेलप्पटम के बाद कथा के दृश्यों का अभिनय क्रमश: शुरू होता है। कथा के आरंभ से लेकर अन्त तक की तमाम घटताओं का अभिनय पच्चा, कत्ती, ताटी आदि वेशधरें कलाकार अपने-अपने निश्चित समय पर रंगमंच पर आकर करते हैं। प्रत्येक दृश्य के बाद पर्दे को पूर्ववत्‌ उठाये दो आदमी दीपक के पीछे खड़े रहते हैं ओर दुसरे कलाकार आकर अपने दृश्य के लिए पर्दे हटाने का नृत्य आदि करने के बाद उसे हटा देते हैं ओर उसके बाद ही नया दृश्य शुरू होता हैं। यही कथकली में दृश्य- परिवर्तन का क्रम कहा जा सकता है। रंगमंच पर जब पात्र अभिनय करते रहते हैं तब उनके पीछे खड़े होकर गायक कथा के पद ओर गीत गाते हैं और बाजे वाले अपने बाजे बजाते हैं। गायकों के पद ओर गीतों का मतलब हीं अभिनेता लोग अपनी विविध मुद्राओं तथा इशारों के द्वारा प्रकट कर देते हैं। उनके संकेतों को समझने के लिए गानों का मतलब जानना विशेष उपयोगी होगा। कभी-कभी कलाकार अपनी ओर से स्वतन्त्रता पूर्वक कथा-प्रसंगों का अभिनय भी अवश्य करते हैं। इस प्रकार कथा के विविध दृश्यों का अभिनय रात भर होता रहेगा और अन्त में प्रार्थनागान और ध्यान-नृत्य के बाद प्रातः:काल कथकली समाप्त होगी। यही कथकली के अभिनय का संक्षिप्त परिचय है।

साहित्य ओर नाटय

वास्तव में कथकली में नाटक ओर नृत्य दोनों का सुन्दर समावेश है। इसमें साधारण नृत्य की अपेक्षा नाटकाभिनय की ही प्रधानता रहती है। कथकली का साहित्य भी अत्यन्त श्रेष्ठ है। कथक के प्रबंध-काव्यों के आधार पर ही अभिनय कार्य सम्पन्न किया जाता है। उन काव्यों के गीत और पद उच्च कोटि के होते हैं जिनका अभिनय कथक में किया जाता है। मलयालम का कथक साहित्य काफी ऊंचा माना जाता है। वह ज्यादा पोराणिक आख्यानों को लेकर हुआ है। संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध कवि और गायक जयदेव के गीतगोविन्द की तरह कथकली के काव्य भी संगीत-शास्त्र के अनुकूल रचे गये काव्य हैं। गीतगोविन्द में नायक और नायिकओं का संभाषण सुमधुर गीतों द्वारा कराया गया है। इसी तरह कथक के काव्यों में भी गीतों, दण्डकों, पदों तथा श्लोकों के ज़रिये कथोप-कथन का कार्य सम्पन्न किया जाता है। कथकली के काव्य
प्रबन्ध-काव्य ही होते हैं, जिनमें नाटकीय ढंग से किसी सुन्दर
आख्यान का संपूर्ण वर्णन मिलता है जो सुखान्त था दुःखान्त भी अवश्य हुआ करता है। उतर काव्यों के पद, श्लोक, गीत आदि अत्यन्त प्रभावोत्पादक एवं मार्मिक ढंग से गाये जा सकते हैं।

गीतों, दण्डकों तथा पदों के अलावा अच्छे-अच्छे कीर्तन भी
कथक के प्रबन्ध-काव्यों में बहुत मिलते हैं, जिनका गान विविध राग-रगिनियों में बड़ी सफलता से किया जाता है। उन गीतों, कीर्तनों आदि की भाषा संस्कृत-मिश्रित मलयालम अर्थात्‌ “मणिप्रवालम्‌’ शैली की है। बीच-बीच में शुद्ध संस्कृत के श्लोक और कीर्तन भी अवश्य पाये जाते हैं। कथकली की कविताएं प्रायः अनुप्रयासयुक्त एवं प्रसादगण-विशिष्ट होती हैं। प्रसंगानुकूल ओज ओर माधुयपूर्ण रचनाएं भी उनमें कम नहीं। उन सब कविताओं में विविध भावों की सूृक्ष्मतम अभिव्यक्ति बड़ी सरसता से की जाती है जिनका अभिनय करना ही कथकली के नटो का मुख्य कार्य माना जाता है। नटों के पीछे खड़े होकर जब गायक गाने लगते हैं तब उन गीतों के भाव के आधार पर ही नट कथा की तमाम बातें हस्त-मुद्राओं तथा मुख-मुद्राओं के द्वारा बड़ी कुशलता से अभिनय करके अपने सामने बेठे दर्शकों को समझा देते हैं। कथक के कलाकार अपनी इस अद्भुत मूक-भाषा के द्वारा प्रकृति के मनोहर दृश्यों का भी रोचक वर्णन कर दिखाने की क्षमता रखते हैं। ऊंचे पहाड़, स्वच्छ जल वाली नदियां, सुन्दर सरोवर, कुसुमित कानन, अपार और अगाध समुद्र, विशाल आकाश आदि का सरस एवं सुन्दर कल्पनापूर्ण वर्णन कथक के कलाकार अपनी विविध मुद्राओं तथा संकेतों द्वारा करने तथा उनका अभिनय विविध प्रकार से कर दिखाने की असाधारण कला का ज्ञान रखते हैं। उनका अभिनय देखकर अप लोग भी तन्मय हो उठते हैं।

कथकली के नट नव रसों का अत्यन्त स्वाभाविक अभिनय जितनी आसानी से करके लोगों पर सहज प्रभाव डाल सकते हैं, उतनी आसानी से साधारण नाटकों के कलाकार शायद ही कर सकेंगे। कथक नृत्य के कुछ प्रसिद्ध कलाकार अपनी एक आंख से श्रृंगार रस प्रकट करते हुए, उसी समय दूसरी आंख के द्वारा रोद्र, वीभत्स आदि किसी अन्य विरोधी रस का अभिनय भी कर दिखाने की अपूर्व क्षमता रखते हैं। इस प्रकार के कठिन अभिनय को एकलोचनाभिनय कहते हैं। तिरुवितांकूर के सुविख्यात नट “गुरु शंकरन नम्पूतिरी’ ऐसे व्यक्ति थे जो यह अभिनय खूब दिखाया करते थे। आधुनिक नटों में ‘कलामंडलम कृष्णन नायर, ‘कुंचु कुरुप आदि भी यह विचित्र अभिनय करने की क्षमता रखते हैं। शंकरन नम्पूतिरी की अभिनय-कला को देखकर विश्वविख्यात नृत्य कला प्रवीण श्री उदयशंकर भी अत्यन्त प्रभावित हुए और उनके अधीन रहकर करीब छः महीने तक उन्होंने कथक नृत्य की विशेष शिक्षा ली। उन दिनों कथकली के विषय में उदयशंकर ने यह कहा है:—

The kathakali actors in their dumb show portray all the horror of fighting and killing, all the pulsating urges of love and passion, all the pathos and pangs of separation and bereavement. a part use of symbolic gestures these actors can convey straight to the audience there feelings by means of their facial expression which behave like a rubber ball, judging from the minutest repple which can be shown.

कथकली नृत्य की शिक्षण व्यवस्था

पुराने ज़माने में कथकली को केवल मंदिरों और राजघरानों में ही विशेष प्रोत्साहन मिलता था। केरल के प्रसिद्ध जमींदार नम्पूतिरियों के महल अर्थात्‌ “इल्लम्‌’ से प्रायः त्योहारों और शादियों के अवसर पर कोई न कोई कथक नृत्य का अभिनय करना आवश्य समझा जाता था। इसके लिए वे नम्पूृतिरि लोग अपने यहां कथक नृत्य संघ नामक एक दल को तैयार कर रखा करते थे। बड़े-बड़े राजाओं ओर धनी जमींदार नम्पूतिरियों के यहां एक-एक कथकली संघम्‌ का रहना उनकी प्रभुता ओर प्रतिष्ठा के लिए भी अत्यन्त आवश्यक समझा जाता था। प्राचीन काल में ऐसे कई कथकली संघम्‌ केरल में थे। प्रत्येक संघम्‌ में आवश्यकतानुसार अभिनेताओं और नटों को ही नहीं, बल्कि गायकोंओर बाजा बाजाने वालों को भी खूब प्रोत्साहन देकर शामिल किया जाता था। उनका पूरा खर्च वे राजा या नम्पूतिरि लोग उठाते थे। वे उनको इनाम और पुरस्कार भी खूब देते थे। संघम्‌ में जो लोग शामिल किये जाते थे, उनकी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था भी उन्हीं राजाओं भौर नम्पूतिरी लोगों को पहले ही करनी पड़ती थी।

संघम्‌ में भर्ती होने वाले कलाकारों को उत्तम प्रशिक्षण देने की पूरी ज़िम्मेदारी वे लोग उन दिनों के प्रसिद्ध कथकली नृत्य विद्वानों तथा कलाकारों पर छोड़ देते थे। कथक नृत्य की शिक्षा देने वाले उन प्रमुख गुरुओं को आशान्‌ कहा करते थे। प्रत्येक प्रधान आशान् की कथक पाठशालाका नाम कळरी था। केरल में पहले ऐसी अनेक उत्तम कळरियाँ थीं, जिनमें शामिल होकर लोग ‘कथकली कला की शिक्षा पाते थे। उन कळरियों में कलाकारों को कथकली के विशिष्ट नृत्यों तथा मुद्राओं की शिक्षा दी जाती थी। एक प्रधान आशान्‌ के एक या दो सहायक भी आवश्यकतानुसार रहा करते थे। इस तरह कथक नृत्य की प्रारंभिक शिक्षा प्रत्येक्त नट को कम से कम तीन या चार साल तक पाना आवश्यक था। उसके बाद ही किसी नट या अभिनेता को संघम्‌ में प्रवेश मिल सकता था। अतः कळरी में सात या आठ वर्ष के बालकों को भी प्रवेश दिया जाता था। प्रशिक्षित नटों को संघम्‌ में शामिल होने के बाद किसी मंदिर में जाकर पहली बार दर्शकों के सामने किसी कथक नाटक में अपना पार्टखेलना पड़ता था। उस प्रथम बार के अभिनय को अरडडेट्टम् कहते थे। संघम्‌ की तरफ़ से खेली जाने वाली प्रत्येक कथा के प्रथम अभिनय को भी अरडडेट्टम्‌ कहा जाता था। आजकल भी यह अरडडेट्टम पहली बार प्रायः किसी मंदिर में ही किया जाता है। इस प्रकार की कळरी और संघम्‌ को ही हम कथक नृत्य की शिक्षण संस्थान मान सकते हैं।

कलामंडलम्‌

इन कळरियों को केरल में पहले जो प्रोत्साहन मिलता था वह धीरे धीरे कम होने लगा और उनकी संख्या भी घटने लगी। नतीजा यह हुआ कि केरल के चार-पांच प्रमुख राजाओं तथा सात-आठ धनी नम्पूतिरियों को छोड़कर दूसरों के यहां कलरियों और संघों को किसी प्रकार का प्रोत्साहन नहीं मिला। कथक के प्रति यह उपेक्षा और अवज्ञा कई सालों तक जारी रही। उन दिनों सिर्फ मंदिरों के मेलों मे या किसी धनी नम्पूतिरी के “इल्लम्‌’ में त्योहार के अवसर पर ही कथक का अभिनय किया जाता था। फलस्वरूप साधारण जनता का ध्यान कथक की तरफ से हटने लगा। यह दशा देखकर कुछ सुधारवादी कथक नृत्य प्रेमी लोगों ने कथक का उद्धार करने की कोशिश अवश्य की थी। लेकिन वास्तव में सर्वाधारण जनता को कथकली का महत्व समझाने और उनके बीच में कथक नृत्य का प्रचार करने का प्रयत्न आधुनिक काल में ही ज़्यादा हुआ है। इस महान कार्य में मलयालम्‌ के प्रसिद्ध महाकवि वत्लत्तोल नारायण मेनोनकी सेवाएं सबसे ज्यादा प्रशंसनीय मानी जा सकती हैं।

वल्लत्तोल ने कथकली के प्रचार और सुधार का कार्ये अपने जीवन का सर्वप्रधान लक्ष्य माना था। उसकी प्राप्ति के लिए उन्होंने जीवन भर कष्ट उठाया। अन्त में अपनी साधनाओं के फलस्वरूप एक संस्था की स्थापना भी वे कर सके, जिसका नाम कलामण्डपम्‌ है। इस संस्था ने कई अच्छे-अच्छे कलाकरों को प्रोत्साहन दिया है, कई उत्साही कला-प्रेमियों को प्रशिक्षण देकर आगे बढ़ाया है, कई नृत्य-कला-प्रेमी रमणियों को कथक की तरफ़ आकर्षित किया है और आधुनिक दुनिया के कोने-कोने में कथक नृत्य का प्रदर्शन कराकर इस विशिष्ट कला को लोकप्रिय एवं विश्वविख्यात बनाया है। यह संस्था केरल के “चेरुतुरुत्ति” नामक गांव में अपना महाविद्यालय “कथकली ” का प्रशिक्षण देने के इरादे से चला रही है जहां बंगला के महाकवि रवीन्द्रनाथ के ‘शांतिनिकेतन’ की तरह दुनिया के प्रत्येक राज्य के कला-प्रेमी स्त्री-पुरुष जाकर कथक नृत्य का शिक्षण पा रहे हैं। केरल की विश्व प्रसिद्ध संस्थाओं में कथक नृत्य की शिक्षा देने वाली कलामंडलम्‌ का नाम विशेष उल्लेखनीय है।

कलामण्डलम की सेवाएं कई कारणों से प्रशंसनीय हैं। कथकली के पुराने कार्यक्रम, अभिनय क्रम, रंगमंच, नेपथ्य-विधान, संगीत आदि में समयोचित एवं आवश्यक परिवर्तन और सुधार लाने का श्रेय इस संस्था को अवश्य मिला है। ‘ कैलिकोट्टु के स्थान पर नोटिस छपवाकर वितरण करना, नटों ओर नटियों की वेश- भूषाओं में यथासंभव नवीनता लाना, रंगमंच पर अश्लील श्रृंगार का अभिनय एकदम बन्द करना, संगीत-विधान में हारमोनियम्‌ के द्वारा श्रुति-नियन्त्रण करना, प्रसंगानुकूल विवध दृश्यों का संविधान और सजधज करना आदि कई बातों का समुचित समावेश करके कथकली को पूर्वाधिक रोचक और लोकप्रिय बनाने में कलामण्डलम्‌ ने नेतृत्त्व लिया और उसको इसमें बड़ी सफलता मिली। इसी प्रकार किसी कथकली-प्रबन्ध के सिर्फ दो-चार चुने हुए दृश्यों का अभिनय मात्र दो-तीन घंटों मे करके दिखाने की नवीन परिपाटी भी कलामण्डलम्‌ के द्धारा ही प्रचलित हुई हैं। पहले जो कथकली एक संपूर्ण रात में भी समाप्त न हो सकती थी, उसी के कुछ चुने हुए एवं सरस दृश्यों को ही लेकर कम से कम समय के अन्दर प्रदर्शित करने का यह नवीन क्रम अमल में लाना एकदम क्रान्तिकारी प्रयत्न था। इसमें कलामण्डलम्‌ को कई प्रकार के विरोधों और हस्तक्षेपों का मुकाबला भी अवश्य करता पड़ा था। लेकिन ऐसा नवीन क्रम प्रचलित करके अब तो कलामण्डलम्‌ ने सचमुच कथक की लोकप्रियता को अवश्य बढ़ाया है। इसके अलावा कलामण्डलम्‌ के प्रयत्न से ही आजकल स्त्रियां भी कथक के अभिनय-क्रार्य में स्वयं भाग लेने लगी हैं जिससे अभिनय की स्वाभाविकता का पालन पूर्वाधिक हो रहा हैं। इस प्रकार ‘कलामण्डलम्‌ की स्थापना से कथक के प्रशिक्षण, अभिनय, सुधार और प्रचार में बड़ी भारी उन्नति अवश्य हुई है।

समस्त कलाओं का संकलन

उपर्युक्त कई बातों से यह विदित हो सकता है कि कथक नृत्य केवल नाट्यकला या अभिनय कला मात्र के प्रदर्शन के लिए प्रचलित कोई मामूली कला नहीं है। इसमें प्राय: समस्त ललित कलाओं का सुन्दर संकलन मिलता है। कथकली के वेश-विधान में चित्रकला का चमत्कार अवश्य दिखाई पड़ता है। जिसको चित्रकला का अच्छा ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है वह कथक के विविध पात्रों का वेश-विधान ठीक रीति से नहीं कर सकेगा। कथक के पात्रों के वेशों का ऐसा विचित्र विधान भी है कि पात्र बनकर अभिनय करने वाले व्यक्ति की निजी सुन्दरता या कुरूपता के कारण उसके वेश में विशेष अन्तर नहीं पड़ सकता। भगवान् श्रीकृष्ण का सुन्दरतम रूप ओर वेश किसी साधारण कुरुप व्यक्ति में भी प्रकट किया जा सकता हैं। इसी प्रकार किसी सुन्दर व्यक्ति को बिलकुल असुन्दर, भयानक अथवा घृणित रूप ओर वेश में दिखाना भी कथक की वेषभूषा में बिलकुल कठिन नहीं है, क्योंकि चुट्टी, कुत्ती, ताटी आदि की वजह से किसी व्यक्ति के चेहरे के वास्तविक रूप और भाव को एकदम पात्र के अनुकूल बदलने की चित्रकला कथक॒ली की वेशभूषा में विद्वयमान है।

चित्रकला की तरह कथकली में हम संगीत-कला और अभिनय- कला का सुन्दर समन्वय भी पा सकते हैं। कथक के नृत्य और अभिनय उसी के सुमधुर संगीत के दृश्यरूप हैं तो उसका संगीत, नृत्य ओर अभिनय का श्रव्य रूप मात्र है। कथकली की साहित्य- कला अथवा काव्य-कला की सुखद एवं विशाल गोद में हम संगीत और अभिनय को एक दूसरे से हिल-मिलकर सानन्द क्रीड़ा करते हुए पाते हैं।

इसके अलावा, कलरियों में कथक का प्रशिक्षण देने-वाले आशान लोगों को इन कलाओं की तरह शरीर-विज्ञान ओर मनोविज्ञान की पर्याप्त जानकारी अवश्य होनी चाहिए, अन्यथा वे इस कला का अभ्यास ठीक प्रकार से कदापि करा नहीं सकेंगे। कथक की विविध मुद्राओं तथा संकेतों की जो भाषा है वह इतनी स्वाभाविक और सार्थक है कि उका परिज्ञान पाना और प्रचार करना किसी भी देश या काल के मानव के लिए बिलकुल कठिन नहीं हो सकता क्योंकि हम दुनिया में हर कहीं जड़-चेतन की एक अकृतिम और ध्वनिहीन भाषा का अस्तित्व अवश्य पाते हैं। इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि कथक की संकेतिक मूक भाषा का महत्व देश अथवा काल की परिधि के कारण सीमित नहीं माना जा सकता है। वास्तव में यह कला केरल प्रदेश की विविध विधवित कलाओं में प्रमुख होने पर भी इसको सार्वदेशिक और सार्वकालीन मानना ज़्यादा उचित होगा।

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Naeem Ahmad

CEO & founder alvi travels agency tour organiser planners and consultant and Indian Hindi blogger

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