मैं देख रहा हूं कि मनुष्य पूर्णतया दिशा-भ्रष्ट हो गया है, वह एक ऐसी नौका की तरह है, जो मझदार में भटक गयी है। वह यह भूल गया है कि उसे कहां जाना है और वह क्या होना चाहता है। इसके साथ ही मैं समुचे विश्व में एक आध्यात्मिक पुनः र्निर्माण का दर्शन भी कर रहा हूं। एक नये मानव का जन्म होने वाला है और हम उसकी प्रसव वेदना से गुजर रहे हैं। जिस व्यक्ति को यह दर्शन हो रहा था, उसके अनुयायी उसे मनुष्य के आध्यात्मिक पुनः र्निर्माण का मसीहा कहते हैं। उसका नाम था रजनीश उर्फ “ओशो” (बाद में परिवर्तित नाम )।
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ओशो का जन्म स्थान, माता पिता व शिक्षा
श्री रजनीश का जन्म मध्यप्रदेश के एक छोटे से गांव कचवाड़ा में 11 दिसंबर, 1931 को हुआ था। उनके पिता कपड़े के धनी व्यापारी थे और जैन धर्म का पालन करते थे। रजनीश ने दर्शन शास्त्र का अध्ययन किया और उसी विषय में प्रथम श्रेणी तथा विशेषता योग्यता के साथ स्नातकोत्तर डिग्री ली। कॉलेज के दिनों में बे वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेते थे, जिनमें उन्होंने अनेक पुरस्कार भी जीते। वे कुशल वक्ता थे। सन 1958 में वे जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक नियुक्त हुए और सन् 1966 तक वहीं पढ़ाते रहे। इस बीच वे भारत भर में घुमे और उन्होंने अपने भाषणों में धार्मिक रूढ़ियों पर गहरा प्रहार किया।
सन 1966 में वे नौकरी छोड़कर स्वतंत्र रूप से आध्यात्मिक शिक्षण में लग गये। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें किसी गुरु की सहायता तथा किसी प्रकार की कठोर साधना के बिना ही बोधि प्राप्त हो गयी थी। उन्होंने वर्ष में चार बार संघन ध्यान-शिविर लगाने शुरू कर दिये। सन् 1968 में उन्होंने ध्यान की अपनी पद्धति में क्रांतिकारी परिवर्तन कर डाले और सक्रिय ध्यान की पद्धति अपनायी, जिसमें भीतर के विकारों की अभिव्यक्ति की प्रक्रिया निहित है। सन 1969 से सन 1974 तक उनका मुख्यालय बंबई में रहा, तब तक वे आचार्य रजनीश कहलाते थे। सन् 1970 में वे आचार्य रजनीश से भगवान रजनीश हो गये। अब उन्होंने अपने अनुयायियों को नव-संन्यास की दीक्षा देनी शरू कर दी और वे माउंट आबू में ध्यान शिविर लगाने लगे। यही वह समय था जब पश्चिमी देश के युवक-युवतियां उनकी ओर आकर्षित होने शरू हुए और उन्होंने रजनीश का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया।
सन 1974 में रजनीश ने पुणे में एक आश्रम की स्थापना की और सात वर्ष तक योग, जेन, ताओ, तंत्र और सूफी मत सरीखे-अनेक दार्शनिक विषयों पर प्रवचन किये। उनके इन प्रवचनों का संग्रह 500 से भी अधिक खंडों में प्रकाशित हुआ है और विश्व की 30 भाषाओं में उसका अनुवाद किया जा चुका है। रजनीश ने पर्ची जगत की ध्यान पद्धति और पश्चिमी जगत की मनोश्चिकित्सा पद्धति को मिलाकर एक नयी पद्धति का निर्माण किया है। संसार के लगभग सभी देशों और जीवन के प्राय: सभी क्षेत्रों के लोग उनकी ओर आकर्षित हुए हैं और उनसे जुड़े हैं।
सन् 1981 में उन्होंने कुछ वर्षों के लिए मौन ले लिया, इसी समय उनकी पीठ में कोई गंभीर रोग हो गया और अपने निजी चिकित्सकों की सलाह पर वे अपना पुणे आश्रम छोड़कर अमरीका चले गये। उसी वर्ष उनके अमरीकी शिष्यों ने अमेरीका के ओरेगॉन राज्य में 64 हजार एकड़ का एक भूखंड खरीद लिया और उस पर रजनीश-प्रशंसकों की बस्ती बसा डाली। रजनीश को वहां आमंत्रित किया गया और रजनीश ने वहां बसना स्वीकार कर लिया। भूमि 60 लाख डॉलर में खरीदी गयी थी और तीन वर्षो में रजनीश के शिष्यों ने उस स्थान को एक आध्यात्मिक नगर में बदल डाला, जिसका नाम रखा गया रजनीशपुरम। वहां उन्होंने एक शानदार सभागार बनाया, जिसमें 25 हजार लोग एक साथ बैठ सकते थे, इसका नाम रखा गया-रजनीश मंदिर। बस्ती में जेन ढंग के उद्यान लगाये गये, विलासितापूर्ण होटलों का निर्माण हुआ, मुर्गियां, गाये, घोड़े और एम् पाले गये। रजनीश के शिष्यों ने एक विशेष ट्रस्ट बनाकर बस्ती की समूची संपत्ति का स्वामित्व उन्हें सौंप दिया। ट्रस्ट की ओर से भगवान श्री रजनीश को 86 रॉल्स रॉयसकारें भेंट की गयी। ट्रस्ट के पास काफी पैसा था।

अमेरीका और भारत दोनों देशों में एक आम धारणा उत्पन्न हो गयी थी कि रजनीश पुरम में कछ अभूतपूर्व कार्य हो रहा है। अमरीकी समाज और सरकार के कुछ तत्त्व रजनीश के विरुद्ध उठ खड़े हुए। उनकी सचिव मां शीला भी उनके विरुद्ध कार्य करने लगी और रजनीश पुरम को भीतर ही भीतर नष्ट करने में लग गयी। अंततः उसके षड़यंत्र का भेद खुल गया और सितंबर, 1985 में वह रजनीश पुरम से भाग खड़ी हुई। इसके बाद अमरीकी सरकार ने शीला द्वारा उत्पन्न की गयी गंदी परिस्थितियों का लाभ उठाकर रजनीश पर चोट शुरू की। उसने रजनीश को हथकड़ी और बेड़ी लगाकर तथा जंजीरों से बांधकर जेल में डाल दिया। अंततः रजनीश अमरीका छोड़ने के लिए विवश हो गये। 4 फरवरी, 1985 को वे विमान से भारत लौट आये और एक बार फिर अपने पुणे आश्रम में बस गये।
आध्यात्मिक गुरु रजनीश नाम परिवर्तन
सन् 1966 से सन् 1970 तक रजनीश के अनुयायी उन्हें आचार्य रजनीश कहते थे। सन 1970 में वे भगवान रजनीश हो गये।अपने नाम में भगवान जोड़ने के कारण रजनीश व्यापक आलोचना के शिकार हुए। उनकी आलोचना का एक कारण यह भी था कि वे अपने धनी और भोगी शिष्यों को संन्यासी कहने लगे थे। रजनीश ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि “भगवान शब्द का अर्थ ईश्वर नहीं है, प्रत्येक उस व्यक्ति को भगवान कहा जा सकता है, जो आनंद की अवस्था में पहुंच गया है। यह बात निश्चित है कि मैं ईश्वर नहीं हूं। मैं अपने ऊपर यह जिम्मेदारी नहीं लेता कि यह संसार मैंने बनाया है- मैंने तो हरगिज नहीं बनाया है। संसार के निर्माण की जिम्मेदारी से आप मुझे मुक्त कर सकते हैं। मैं तो वैसा ही निरीश्वरवादी हूं, जैसे कि महावीर, बुद्ध और लाओ-त्जे थे। मेरा उस ईश्वर में तनिक विश्वास नहीं है, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसने जगत का निर्माण किया। जगत तो स्वयं ही सृजनशीलता है, परंतु भगवान शब्द का सर्वथा एक अलग ही आयाम है। इसका अर्थ केवल यह है कि जिस व्यक्ति को हम भगवान कह रहे हैं, वह पूर्ण आनंद की स्थिति में जी रहा है।
जहां तक संन्यास का प्रश्न है, उस बारे में रजनीश ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा, “मैं उस व्यक्ति को संन्यासी कहता हूं, जिसका न कोई धर्म हो, न गीता अथवा बाइबिल सरीखा धर्म-ग्रंथ, जो किसी मंदिर, गिरजाघर अथवा गुरुद्वारा से तनिक न जुड़ा हो। हम यहां जो चेष्टाएं कर रहे हैं, उन से कोई संप्रदाय उत्पन्न होने वाला नहीं है, क्योंकि न तो कोई मेरा शिष्य है, न में किसी का गुरु अथवा स्वामी हूं और यदि मैं संन्यास लेने वाले कुछ लोगों का साक्षी बनना स्वीकार करता हूं तो इसका कारण यह है कि अभी वे इस स्थिति में नहीं हैं ईश्वर के साथ सीधा संबंध स्थापित कर सकें। में उनसे कहता हूं कि वे अपने पांव पर खड़े हो जायें और जब थे सर्वोच्च सत्ता के साथ सीधा संबंध स्थापित कर लें तो मुझे और अधिक समय तक परेशान न करें, मैं फिजूल की परेशानियां मोल लेना नहीं चाहता।
18 वर्षों तक भगवान श्री रजनीश कहलाने के बाद 26 दिसंबर, 1988 को उन्होंने इस नाम का परित्याग कर दिया और अपने अनुयायियों की एक सभा में घोषणा कर दी कि “इस क्षण से मैं गौतम बुद्ध हो गया हूं, मेरे नाम से भगवान शब्द को पूरी तरह हटा दीजिये। यह एक बहुत कुरूप शब्द है। तीन दिन बाद 28 दिसंबर की शाम को उन्होंने अपने अनुयायियों के सामने एक और घोषणा की। उन्होंने कहा, “यद्यपि गौतम बुद्ध ने मेरे भीतर शरण ग्रहण कर ली है तथापि मेरा नाम गौतम बुद्ध नहीं होगा। गौतम बुद्ध की भविष्यवाणी के अनुसार मेरा नाम मैत्रेय बुद्ध होगा। मैत्रेय का अर्थ है-मित्र।
मैत्रेय की विदाई
दो दिन बाद 30 दिसंबर की शाम को रजनीश ने घोषणा की कि “पिछले दिन मेरे लिए बहुत कठिनाई पूर्ण रहे। मैंने सोचा था कि गौतम बुद्ध बदले हुए जमाने के प्रति सहनशीलता का परिचय देंगे परंतु ऐसा नहीं हो सका। वे चार दिन तक मेरे साथ रहे और उन्होंने यह बात साफ तौर पर समझ ली कि उनके और मेरे बीच समझौते की कोई संभावना नहीं है। अब मैं केवल मैं रह गया हूं। तुम मुझे भले ही बुद्ध कहो, लेकिन इस बुद्ध का गौतम बुद्ध अथवा मैत्रेय बुद्ध से कोई संबंध नहीं है। में घोषणा करता हूं कि मेरा नाम श्री रजनीश जोरबा-बुद्ध होना चाहिए, जोरबा-बुद्ध का अर्थ है-पदार्थवाद और अध्यात्मकवाद के बीच समवाय और यही मेरी देन है। परंतु रजनीश एक सप्ताह से अधिक समय तक जोरबा नहीं रह पाये। 7 जनवरी, 1989 को उन्होंने इस नाम का भी परित्याग कर दिया और घोषणा की कि “मैं समूची दुनिया का पूरी तरह परित्याग करता हूं। मेरी ओर इंगित करने के लिए श्री रजनीश कहना काफी होगा।
ओशो
एक महीने बाद रजनीश ने एक अन्य नाम धारण कर लिया- ओशो रजनीश। ओशो शब्द का प्रयोग पहले-पहल एका ने अपने गुरु बोधि धर्म के लिए किया था। ओशो का अर्थ है- पूर्ण पुरुष। कुछ महीने तक रजनीश ओशो रजनीश बने रहे। ऐसा लगता है कि वे अपने माता-पिता द्वारा दिये गये नाम से थक और ऊब गये थे। 5 सितंबर, 1989 को उन्होंने अपने नाम में से रजनीश को पूरी तरह निकालकर फेंक दिया और उनका नया नाम हो गया केवल ‘ओशो।
मृत्य की तैयारी
रजनीश गुरु अथवा दैवी पुरुष होने का दावा नहीं करते, फिर भी वे अपने शिष्यों से आत्मसमर्पण की मांग करते हैं। वे कहते हैं, ‘ मैं यह चेष्टा करूंगा कि तुम लय प्राप्त कर सको, लेकिन इसके लिए तुम्हारे सहयोग की आवश्यकता होगी। समर्पण भाव में रहो। जो कुछ होता जाये अथवा मैं जो कुछ करता जाऊं, उसके लिए तैयार रहो, भले ही मृत्यु आ जाये, तैयार रहो। कुछ हो पाना तभी संभव है, जब तुम मुझ पर विश्वास कर सको। विश्वास का अर्थ है कि तुम सब कुछ मेरे हाथों में छोड़ दो। भले ही मृत्यु आ जाये, तुम शिकायत नहीं करोगे और अगर तुम इतना कर सको और तुम इस शिविर से वह व्यक्तित्व लेकर नहीं लौटोगे, जिसे लेकर तुम यहां आये थे। इस शिविर में पूरे समय अपने भीतर गहरे समर्पण का भाव महसूस करो।
गुरु, मसीहा और अवतार की भांति ओशो अपने शिष्यों से मुक्ति अथवा उन्नयन का वादा करते हैं, “मैं तुमसे वादा करता हूं कि तुम यहां से वैसे नहीं लौटोगे, जैसे तुम यहां आये थे। ” मेहेर बाबा की भांति वे भी कहते हैं, ‘ मैं शिक्षा देने नहीं, जगाने आया हूं। मैं शिक्षक नहीं हूं। ओशो ने इस दावे के बावजूद कि वे शिक्षा नहीं देते, उनकी शिक्षाएं पांच सौ ग्रंथों में भरी पड़ी हैं और जब उनसे इस बात का जिक्र किया जाता है, तब भी वे यही कहते हैं कि वे कोई शिक्षा नहीं देते। वे अपनी शिक्षाओं और दूसरों की शिक्षाओं का भेद इस प्रकार समझाते हैं, ‘मेरी शिक्षाएं तो उस कांटे की तरह हैं जिसका इस्तेमाल मैं तुम्हारे भीतर गड़ा हुआ कांटा निकालने के लिए करता हूं। जिस क्षण तुम्हारा कांटा निकल जायेगा, उसी क्षण दोनों कांटे फेंक दिये जायेंगे। अपने भीतर दैवी चेतना के लिए स्थान बनाओ, तुम्हारे भीतर कोई भी खाली नहीं है, तुम कबाड़खाना बन गये हो। कुछ जगह बनाओ, दिमाग में जो कुछ है उसे बाहर फेंक दो। कुछ जगह बनाओ, वह खाली जगह मेजबान बनेगी, दैवी अतिथि के लिए मेजबान।
संभोग से समाधि
रजनीश ऐसा मानते हैं कि मानवीय व्यक्तित्व को धर्म ने बहुत हानि
पहुंचायी है। धर्म ने मनुष्य की यौन भावना का दमन करने की कोशिश की है और वह संभोग को घिनौना, गंदा, पाप पूर्ण और अपराध पूर्ण मानता है। रजनीश विवाह की संस्था के प्रति घृणा से भर उठे हैं। वे इसे जैविक दासता मानते हैं। वे अपने अनुयायियों से कहते हैं कि प्रेम को चेतन के स्तर तक ऊंचा उठा दो। उनको यौन प्रतिबंधों पर विश्वास नहीं है। वे कहते हैं, चाहे जिससे प्रेम करो। जब तुम्हें यह छुट होती है, तब तम स्वतंत्रता पूर्वक प्रेम करते हो और प्रेम तुम्हारे पांव की बेड़ी नहीं बनता। तुम प्रेम में साझेदारी कर सकते हो…. दो व्यक्ति जब एक दूसरे की ऊष्मा का आनंद लेते हैं तो उसमें कोई समस्या ही नहीं रह जाती।
ओशो का दर्शन मुक्त-प्रेम, मुक्त संभोग का दर्शन है। ओशो प्रेम को जैविक स्तर से उठाकर चेतना के स्तर पर प्रतिष्ठित कर देते हैं और जब प्रेम उस स्तर पर पहुंच जाता है, तब वह बंधन नहीं रह जाता और चेतना की वह अवस्था आध्यात्मिक प्रेम की मनोभूमि तैयार कर देती है। आध्यात्मिक प्रेम दो व्यक्तियों के बीच नहीं होता, वह व्यक्ति और सर्वोच्च सत्ता के बीच होता है- अंश और पूर्ण के बीच, बिंदु और सागर के बीच। इस स्थिति में संभोग समाधि की ओर ले जाता है। यह प्रेम की भावना का उन्नयन (ऊंचा उठाना) है।
मुक्ति, आदि और अंत
ओशो की शिक्षाओं में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान ध्यान का है, जिसके बारे में वे कहते हैं कि ‘ध्यान का आदि (आरंभ) और अंत (लक्ष्य) दोनों मुक्ति है। यह मुक्ति की आत्म-उन्नतयन की कुंजी है। उन्होंने ध्यान के साथ सक्रियता को जोड़ दिया है,क्योंकि उनकी दृष्टि में ध्यान अनिवार्यतः ऊर्जा की प्रक्रिया है। उनकी दृष्टि में, “ध्यान चिंतन अथवा एकाग्रता नहीं है। चिंतन तो महज सोचने और विचारों को शुद्ध करने की प्रक्रिया है। ध्यान का अपना ही आनंद है और यह आनंद भोजन, संभोग, वस्त्र आदि किसी भी वस्त और सूख से बढ़कर है। यह अंतिम आनंद है, परंतु ध्यान अंतःकरण की प्रक्रिया है। इसमें सोचने को कुछ नहीं रह जाता। इस अवस्था में शुद्ध परम-तत्त्व ही शेष रह जाता है। ध्यान सोचने की प्रक्रिया नहीं है, वह किसी भी स्थिति में चिंतन नहीं है।
ओशो की प्रमुख ध्यान पद्धतियां
ओशो ने ध्यान की अनेक पद्धतियों का विकास किया है और उन सब के द्वारा साधक की समूची वेदना अचेतन मन से चेतन मन के तल पर उभर आती है। ओशो का मत है कि जब वेदना चेतन के तेल पर आ जाती है, तब वह नष्ट हो जाती है। वे ध्यान को एक प्रकार की मृत्यु मानते है। अतीत के प्रति मृत्यु, अहं की पूर्ण मृत्यु, ध्यान अनंत के साथ एकाकार हो जाता है, और वह समुचे व्यक्तित्व का स्थानांतरण कर डालता है।
ओशो ने अनेक प्रकार ध्यान पद्धतियों का विकास किया है। जिनमें से वे पांच ध्यान पद्धतियों अधिक बल देते थे–
- डायनेमिक (सक्रिय) ध्यान, जिसकी अवधि एक घंटा है, और चार अवस्थाएं हैं, गहरा श्वास भरना, शक्ति को खुला छोड़ देना जिससे शरीर जो कुछ करना चाहे कर सके, उछल कूद तथा हूं हूं हूं चिल्लाना और मन और शरीर में जो कुछ हो रहा है, उसको साक्षी भाव से देखना।
- कुंडलिनी ध्यान, यह भी एक घंटा चलता है, और इसकी भी चार अवस्थाएं हैं, शरीर को हिलाना, नाचना, साक्षी भाव और निश्चेत हो लेट जाना।
- नॉन माइंडेड ध्यान, यह दो घंटे का ध्यान है और इसकी दो अवस्थाएं हैं, साधक एक घंटे तक एकांत में बातें करता चला जाता है और अपने दिमाग का सारा कचरा निकाल फेंकता है, उसके बाद एक घंटा खामोशी के साथ आंखें बंद करके उस सब को साक्षी भाव से देखता रहता है जो उसके तन और मन में हो रहा है।
- अंग मेडिटेशन, समय दो घंटा दो अवस्थाएं, पहले एक घंटे में साधक शिशु की भांति व्यवहार करता है, और दूसरे घंटे में साक्षी बन जाता है।
- मिंस्टिक रोज ध्यान, ओशो ने यह ध्यान पद्धति अप्रैल 1988 में खोजी और इसके बारे में वे कहते है- गौतमबुद्ध की विपश्यना ध्यान पद्धति के बाद पिछले पच्चीस सौ वर्षों में ध्यान के क्षेत्र में यह सबसे बड़ी खोज है, मैंने अनेक ध्यान पद्धतियों का आविष्कार किया है, परंतु संभवतः यह सबसे अधिक सारभूत और बुनियादी है। यह समूचे विश्व में व्याप्त हो सकती है। ” इस ध्यान की अवधि 21 दिन है-सात दिन तक प्रतिदिन तीन घंटे हंसना, अगले सात दिन प्रतिदिन तीन घंटे रोना, आंसू गिराना और अंतिम सात दिन प्रतिदिन तीन घंटे साक्षी भाव अर्थात सब को देखना, जो साधक के अपने भीतर घटित हो रहा है। मिंस्टिक रोज मैडीटेशन-कार्यक्रम के निदेशक का दावा है कि ‘ यदि इस पृथ्वी पर प्रत्येक व्यक्ति ओशो की मिंस्टिक रोज पद्धति से ध्यान करे तो समस्त संघर्ष और युद्ध तुरंत समाप्त हो जायेगा।
ओशो दिवंगत
9 जनवरी, 1990 को सायं 5.30 पर ओशो (रजनीश) ने अपने पुणे आश्रम में अपनी जीवन डोर समेट ली। उनकी दार्शनिकता जीवन के अंतिम क्षण तक ज्यों की त्यों बनी रही। उनके निजी चिकित्सक ने जब उनसे यह पूछा कि क्या उन्हें कृत्रिम श्वास दिलाने की तैयारी की जाये तो ओशो ने उत्तर दिया, ‘नहीं। यदि मेरी मृत्यु हो जाती है तो पीड़ा से स्वयं मुक्ति मिल जायेगी।
सच्ची वेदांती दृष्टि यही है- मृत्यु पीड़ा से मुक्ति है। वेदांत कहता है कि यह जगत पीड़ा स्वरूप ही है। मृत्यु सच्चे योगी को पीड़ा से मुक्त कर देती है, क्योंकि उसके भीतर जगत की कामना नहीं रहती और वह आत्मस्थ हो जाता है। वह जन्म और मृत्यु के बंधन अर्थात् आवागमन के चक्र से मुक्त, जीवन मुक्त हो जाता है। जब उनके चिकित्सक को ऐसा लगा कि ओशो का जीवन तेजी से समाप्त हो रहा है तो उसने उनसे कहा, ओशो, मझे ऐसा लगता है कि अब सब कुछ समाप्त हो रहा है। यह सुनकर रजनीश ने शांत भाव से स्वीकृति में सिर हिलाया और आंखें बंद कर लीं। उनकी धीमी नब्ज थोड़ी देर तक चलती रही और उसके बाद लुप्त हो गयी।