सन् 1673 में लन्दन की रॉयल सोसाइटी के नाम एक खासा लम्बा और अजीब किस्म का पत्र पहुंचा जिसे पढ़कर सोसाइटी के विद्वान सदस्यों की हंसी रुकने में ही न आती थी। पत्र को लिखने वाला एक डच दुकानदार था जो साथ ही दिन के कुछ वक्त चौकीदारी करके अपनी गुजर जैसे-तैसे कर रहा था। हंसी एकाएक रुक गई और सभी चेहरों पर कुछ हैरानी और इज्जत का मिला-जुला-सा एक भाव स्थिर हो गया, क्योंकि पत्र में जहां इस सीधे-सादे और निश्छल व्यक्ति ने अपने स्वास्थ्य के बारे में, अपने पड़ोसियों और उनके अन्धविश्वासों के बारे में, ब्यौरा दिया था, वहां खुद पत्र का शीर्षक देते हुए लिखा था, “मिस्टर एंटोनी वॉन ल्यूवेनहॉक (Antonie van Leeuwenhoek) के ईजाद किए एक माइक्रोस्कोप द्वारा प्रत्यक्षदृष्ट—चमड़ी पर और मांस आदि पर पड़ी फफूंदी की, तथा डंग वगैरह की, एक और ही दुनिया के कुछ नमूने।
उस जमाने में जबकि अभी, छोटी-छोटी’ चीज़ों को बड़ा करके दिखाने के लिए बना मैग्निफाइंग ग्लास एक मामूली लेंस ही होता था जिसे हाथ में ही पकड़ना पड़ता था और जिसकी ताकत भी कोई बहुत नहीं होती थी, उस जमाने में क बे पढ़े-लिखे स्टोर कीपर ने शीशे घिस-घिसकर लेन्स तैयार करने की अपनी हवस को एक माइक्रोस्कोप बनाने में कृतार्थ कर लिया था, जिसके जरिए अब वस्तुओं को सैकड़ों गुना बड़ा करके दिखाया जा सकता था। रॉयल सोसाइटी ने ल्यूवेनहॉक को बाकायदा आमन्त्रित किया कि वह अपने परीक्षण जारी रखे, जिसके परिणामस्वरूप अगले पचास सालों में सोसाइटी को उसके 375 पत्र और आए।
Contents
एंटनी वॉन ल्यूवेनहॉक का जीवन परिचय
एंटोनी वॉन ल्यूवेनहॉक का जन्महोलैंड के डेल्फ्ट शहर में 14 अक्तूबर 1632 के दिन हुआ था। टोकरियां बना-बनाकर और देसी शराब बेचकर भी परिवार ने अपनी प्रतिष्ठा बना रखी थी। अब पिता की मृत्यु हुई, बालक एंटोनी अपने इस नीली-नीली पवन चक्कियों और नहरों वाले छोटे से कस्बे को छोडकर एम्स्टरडम मे आ बसा। यहां पहुंचकर एक पंसारी के यहां वह काम करने लगा। 21 साल की उम्र मे वह एम्स्टरडम से फिर घर वापस आ गया और डेल्फ्ट में ही उसने एक अपनी पंसारी की दूकान खोल ली साथ ही, उसे सिटी हाल मे चौकीदारी की नौकरी भी मिल गई।
एंटोनी को एक हवस बडी बुरी तरह से चिपटी हुई थी। दिन-रात लेंस घिसते रहना। एक के बाद दूसरा लेंस, दूसरा पहले से बेहतर। कार्य वह जो निरन्तर पूर्ण से पूर्णतर होता चले। कुल मिला कर उसने 400 मेग्निफाइग ग्लास बनाए। छोटे छोटे लेंस जिनका व्यास इंच के आठवें हिस्से से भी कम, पृष्ठ पर छापे एक अक्षर से जरा बडा नही। किन्तु उन्ही लेंसो को आज तक मात नहीं दी जा सकी। अपने इन्ही लेंसों के जरिए उसने मामूली सुक्ष्मदर्शी यन्त्र तैयार किए, किन्तु उनकी उपयोगिता कितनी अद्भुत थी। कितना अद्भूत शिल्पी था एंटोनी जिसने इन नन्हे-नन्हे लेंसों को थामने के लिए नाजुक और ताकतवर स्टैण्ड भी खुद अपने ही हाथो से तैयार किए थे।

एंटोनी वॉन ल्यूवेनहॉक की खोज
गैलीलियोने अपने टेलिस्कोप को निरन्तर आकाश की ओर मोडा था, ल्यूवेनहॉक ने अपने लेंसो को सामान्यत अदृश्य जगत की निरन्तरता पर टिका दिया। जो कुछ भी उसके हाथ में सूक्ष्म आ सका। चमडो मे दरारें हो, पशुओं के बाल हो, मक्खी की टांगे
और सिर, सभी कुछ माइक्रोस्कोप द्वारा परीक्षित होना चाहिए।
पडोसियों की निगाह में ये सब पागलों के आसार थे। घण्टो गुजर जाए और वह अपने माइक्रोस्कोप से हिलता ही नही। डेल्फ्ट की भोली-भाली जनता उसकी क्या आलोचना करती है, वह जरा विचलित नही हुआ। वह दुनिया को अपने माइक्रोस्कोप के जरिये ही देखता रहा और सदा उसे अजीब से अजीब, और नये से नये, नज़ारे पेश आते। एक दिन उसने बारिश रुकने पर एक गड़ढे में से कुछ पानी इकट्ठा किया और उसमे बडे ही छोटे-छोटे जलचरों को तैरते-फिरते पाया, इतने छोटे कि मनुष्य की आंख बगैर इस प्रकार की किसी सहायता के उन्हे देख भी नही सकती। बेचारे असहाय जन्तु। उसके मुंह से बेबसी मे निकला, क्योंकि माइक्रोस्कोप द्वारा सहस्त्र-गुणित होने पर ही वह उनका प्रत्यक्ष कर पाया था।
उसे कुछ एहसास सा था कि ये जीवाणु आकाश से ज्ञमीन पर नही उतरे। जिसे सिद्ध करने के लिए उसने वर्षा-जल को इस बार एक निहायत ही साफ प्याले मे इकट्ठा किया। माइक्रोस्कोप फिट किया गया, किन्तु अब की बार उसी पानी में कोई कीडे वगैरह नही थे। किन्तु कुछ दिन तक पानी को उसी प्याले में रहने दिया गया तो छोटे-छोटे किड़े उसी में खुद-ब-खुद फिर से पैदा होने लग गए। ल्यूवेनहॉक इस परिणाम पर पहुंचा कि हवा जो धूल उडाकर अपने साथ ले आती है उसी के साथ ये भी कही से आ जाते है।
अपनी उगलीं को ज़रा काटकर वह माइक्रोस्कोप के नीचे ले आया और उसने खून की परीक्षा की, लाल-लाल छोटे-छोटे कीटाणु। सन् 1674 मे उसने अपने इन प्रत्यक्षों का एक यथार्थ विवरण रॉयल सोसाइटी को भेज दिया। तीन साल बाद उसने कुत्तों तथा अन्य पशुओं के बीजाणुओं का ब्यौरा भी सोसाइटी को लिख भेजा। रॉयल सोसाइटी हैरान रह गई। हॉलैण्ड का यह बाशिन्दा कोई वैज्ञानिक है या विज्ञान कथाओं का कल्पनाकार ? सोसाइटी ने लिख भेजा, कुछ दिन के लिए अपना माइक्रोस्कोप सोसाइटी को उधार भेज दो। जवाब में एक लम्बा खत और आ गया। एक निहायत ही छोटी दुनिया को खोलकर उसमें दिखा रखा था। लेकिन ल्यूवेनहॉक संशयात्मा था उसने माइक्रोस्कोप नहीं भेजा। रॉबर्ट हुक और नेहीमिया ग्यू को हुक्म हुआ कि एक निहायत ही बढ़िया माइक्रोस्कोप तैयार करें, क्योंकि एंटोनी वॉन ल्यूवेनहॉक के अनुसन्धानों की भी आखिर परीक्षा होनी चाहिए। माइक्रोस्कोप तैयार हो गया। उन्होंने माइक्रोस्कोप से खून को देखा, मसाले के पाती में बेक्टीरिया उत्पन्न कर उन्हें देखा, अपने दांतों का मेल खुरच कर उसे देखा, कीटाणुओं को गरम पानी से मारकर देखा, और पाया कि नन्हें-नन्हें जीवों की यह दुनिया ही कुछ दूसरी है, वैसी ही जैसी कि ल्यूवेनहॉक के खतों को पढ़कर उन्होंने कल्पित कर रखी थी। अब आकर रॉयल सोसाइटी ने इस अनपढ़ डच का सम्मान किया। सन् 1680 में एंटोनी वॉन ल्यूवेनहॉक को रॉयल सोसाइटीका फेलो चुन लिया गया।
सन् 1688 में एंटोनी वॉन ल्यूवेनहॉक ने इन जीवाणओं के रेखाचित्र बनाए ।अंधविश्वासों के उस युग में, जबकि साधारण जनता की आस्था थी कि मक्खियां वगैरह कुछ खास किस्म के प्राणी स्वयंभू होते हैं और सड़ती मिट्टी से, गोबर से, खुद-ब-खुद पैदा हो आते हैं। लेकिन ल्यूवेनहॉक ने प्रत्यक्ष सिद्ध कर दिखाया कि इनकी उत्पत्ति के नियम भी वही सामान्य प्रजजन सिद्धांत हैं। गेहूं को बरबाद करने वाले घुनों का उसने अध्ययन किया और खबर दी कि ये घुन-सुसरी भी अण्डज हैं। मछली की पूंछ कोमाइक्रोस्कोप के नीचे रखकर उसने देखा कि उसमें भी रक्त की बड़ी ही सूक्ष्म वाहिनियां हैं, कोषिकाएं हैं।
रॉयल सोसाइटी के नाम, तथा पेरिस कीऐकेडमी ऑफ साइंसेजके नाम लिखे पत्रों की जहां-तहां चर्चा होने लगी और परिणामतः एंटोनी वॉन ल्यूवेनहॉक की कीर्ति अब विश्व-भर में फैल गई। इन वर्णनों को पढ़-पढ़कर रूस का जार और इंग्लैण्ड की महारानी तक अपने कौतूहल को संभाल नहीं सके। उन्हें भी उत्सुकता थी कि एंटोनी के माइक्रीस्कोप में से कुछ खुद प्रत्यक्ष कर सकें। वे खुद चलकर उसके यहां आए। उसकी दैनिक गतिविधियों में अन्त तक कुछ परिवर्तन नहीं आया। उसने स्वास्थ्य असाधारण पाया था। 91 साल की उम्र तक उसी तरह काम में लगा रहा। 26 अगस्त 1728 कोएंटोनी वॉन ल्यूवेनहॉक की मृत्यु हुई। किन्तु मरने से पहले वह अपने एक मित्र को दो अन्तिम खत दे गया था कि इन्हे रॉयल सोसाइटी के नाम डाल देना।
एंटोनी वॉन ल्यूवेनहॉक का माइक्रोस्कोप एक बहुत ही सरल उपकरण था सिर्फ एक ही लैंस, और वह भी बहुत ही छोटा। दो तरह के लैंसो को मिलाकर एक तरह के कम्पाउण्ड माइक्रोस्कोप की ईजाद वैसे 1590 में हो ही चुकी थी, लेकिन उसके बनाने में कुछ टेक्निकल मुश्किलात इस कदर पेश आती कि हमेशा एंटोनी वॉन ल्यूवेनहॉक का सीधा-सादा यन्त्र ही बेहतरीन नतीजे दिया करता था। तब से लेकर आज तक लैंस बनाने की कला बहुत उन्नति कर चुकी है। आधुनिक सूक्ष्मदर्शी यंत्र वस्तुओं के व्यास को 2,800 गुना करके दिखा सकता है। और वैज्ञानिको की जरूरत तो चीजों को इससे भी ज़्यादा बडा करके देखने की है। जिन जीवाणुओं अथवा बैक्टीरिया को ल्यूवेनहॉक ने देखा था, आधुनिक चिकित्सा शास्त्र के वाइरस अथवा विषाणु उनसे कही ज्यादा छोटे होते है। आज तो प्रकाश की किरण की बजाय विज्ञान मे, जब इलैक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप का प्रयोग आम होता जा रहा है, इलैक्ट्रॉनो की धाराओं से काम लिया जाता है जिसके द्वारा क्षुद्रवस्तुओ को 100,000 व्यास तक फैलाकर वैज्ञानिक देख सकता है।
एंटोनी वॉन ल्यूवेनहॉक के पास वर्तमान विज्ञान के अदुभूत उपकरण नही थे, किन्तु उसके पास भी कुछ था, जिसे विज्ञान आज भी और बेहतर नही कर सका एक विचार के प्रति अविचल भक्ति, निरतिशय धैर्य, और वस्तु को प्रत्यक्ष करने के लिए
असाधारण अन्तबल, अन्तर्दृष्टि।