ऊदवानाला का युद्ध – मीर कासिम और अंग्रेजों की लड़ाई Naeem Ahmad, April 14, 2022February 28, 2023 ऊदवानाला का युद्ध सन् 1763 इस्वी में हुआ था, ऊदवानाला का यह युद्ध ईस्ट इंडिया कंपनी यानी अंग्रेजों और नवाब मीर कासिम के मध्य हुआ था। मीर कासिम और अंग्रेजों की लड़ाई में अंग्रेजों की विजय हुई थी। अपने इस लेख में हम ऊदवानाला के इसी भीषण युद्ध का उल्लेख करेंगे और निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर विस्तार से जानेंगे:— मीर कासिम का आक्रमण? ऊदवानाला का युद्ध कब हुआ था? ऊदवानाला का युद्ध किसके मध्य हुआ था? ऊदवानाला के युद्ध में किसकी जीत हुई? ऊदवानाला का युद्ध क्यों हुआ था? मीर कासिम और अंग्रेजों की लड़ाई अब हुई थी? मराठों की पराजय के बाद सन् 1761 ईसवी में पानीपत का तीसरा युद्ध समाप्त हो चुका था और अहमद शाह अब्दाली की जीत हो चुकी थी। अफगानिस्तान लौट जाने के पहले उसने शाह आलम द्वितीय को भारत का सम्राट बनाया और ग़ाजीउद्दीन के स्थान पर शुजाउद्दौला को उसने दिल्ली का मन्त्री नियुक्त किया। पानीपत की तीसरी लड़ाई के पहले तक दक्षिण में मराठों की शक्तियां जिस प्रकार उन्नत हो रही थीं, उनसे मुग़ल साम्राज्य और उत्तर भारत के राजाशों को ही भय न पैदा हुआ था, बल्कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारियों ने अपनी दगाबाजी का जो जाल देश के भीतर बिछाया था और यहां के राजाओं तथा नवाबों के सामने जो संकट उत्पन्न कर दिया था, उसको सफल बनाने में उन अधिकारियों के सामने भी एक कठिन समस्या पैदा हो गयी थी। लेकिन अहमद शाह के मुकाबले में मराठों के पराजित होने के बाद अंग्रेजों के सामने का वह संकट कमजोर पड़ गया। उनकी साजिश और दगाबाजी का चक्र बिना किसी भय के इस देश में चलने लगा। अंग्रेजों ने नवाब सिराजुदौला को मिट्टी में मिलाकर और दुनिया से उसे बिदाकर उसके स्थान पर मीरजाफर को नवाब बनाया था और कुछ इने-गिने दिनों के भीतर ही इस मिट्टी के देवता को फिर मिट्टी में मिलाकर उसके दामाद मीरकासिम को मुर्शिदाबाद का शासक मुकर्र किया। अहमद शाह के द्वारा दिल्ली का सम्राट होने के बाद शाह आलम पटना पहुँचा। मीर कासिम वहां पर मौजूद था। उसके इलाके से दिल्ली भेजे जाने वाली मालगुजारी बहुत दिनों से बन्द थी। मीर कासिम ने सम्राट के पास हाजिर होकर एक लम्बी रकम उसको भेंट की। सम्राट इसके बाद दिल्ली लौट गया। मीर कासिम के साथ कम्पनी के अधिकारियों की चालें आरम्भ हो गयी। वह मीरजाफर की तरह अयोग्य ओर अदूरदर्शी न था। उसने सावाधानी के साथ अंग्रेजों की चालों को देखा। बहुत पहले से ही अंग्रेजों ने मर्शिदाबाद की राजधानी में अपना आधिपत्य बढ़ा रखा था। यह अवस्था मीर कासिम को किसी प्रकार स्वीकार न थी। उसने इस परिस्थिति से सुरक्षित रहने के लिए मुर्शिदाबाद से राजधानी हटाकर मुंगेर पहुंचा दी। वहां की किले बन्दी को उसने मजबूत बनाया। वहां पर रहकर उसने सैनिक शक्ति को भी मजबूत किया और अपनी फौज की संख्या उसने चालीस हजार तक पहुँचा दी। अपने सैनिकों को यूरोप वालों की भाँति लड़ाई की शिक्षा देने का काम आरम्भ किया और इसके लिए उसने कुछ यूरोप वालों को अपने यहां नौकर रखा। मीर कासिम के सामने संकट अंग्रेंज मीर कासिम का योग्यता के साथ शासन नहीं देखना चाहते थे। उसके नवाब होने में उन्होंने इसलिए सहायता की थी कि उसकी नवाबी में कम्पनी मनमानी करेगी। मीर कासिम प्रजा को प्रसन्न करने ओर अपने अधीकृत सूबों की हालत को अच्छी बनाने की कोशिश में था। लेकिन अंग्रेज उसे अन्धा बनाकर उसके यहां लुट करना चाहते थे। इन परिस्थितियों ने नवाब और अंग्रेजों के बीच संघर्ष पैदा किया। नवाब होने के पहले मीर कासिम ने अंग्रेजों के साथ जो वादे किये थे, उनको उसने ईमानदारी के साथ पूरा किया। लेकिन अंग्रेजों की माँग बढ़ती जाती थी, जिसको पूरा करने में नवाब असमर्थ हो रहा था। नवाब और अंग्रेजों के बीच असन्तोष पैदा हुआ। नतीजा यह हुआ कि ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारियों ने मीर कासिम के विरुद्ध उसी प्रकार की चालें आरम्भ कर दीं, जैसी वे नवाब सिराजुद्दौला और मीरजाफर के साथ चल चुके थे और दोनों का वे सत्यानाश कर चुके थे। मीर कासिम को हटाकर किसी दूसरे को नवाब बनाने के उपाय कम्पनी के अधिकारी सोचने लगे। 15 दिसम्बर, सन् 1762 ईसवी को कम्पनी और नवाब मीर कासिम के बीच एक संधि हुई, उसमें नवाब की कमजोरियों का लाभ उठाकर उसे सन्धि के बन्धनों में जकड़ दिया गया। यह सन्धि मुंगेर में की गयी, लेकिन जिन शर्तों को कम्पनी ने स्वीकार किया था, अंग्रेजों की ओर से उनको व्यवहार में नहीं लाया गया।सन्धि की शर्तों को तोड़कर भारतीय माल पर लम्बा महसूल कर चल रहा था और इंग्लैण्ड से आने वाला माल बिना किसी महसूल से बिक रहा था। यह देखकर नवाब ने अपने समस्त इलाकों में देशी माल पर भी महसूल हटा दिया। इससे नवाब की आमदनी में बहुत कमी हो गयी। देशी माल पर चुंगी उठा देने का यह परिणाम हुआ कि उसके मुकाबले में विदेशी माल की खपत कम होने लगी। इस पर कम्पनी ने नवाब के विरोध का निश्चय किया और नवाब को इस बात के लिए फिर विवश करने का विचार किया कि वह भारतीय माल पर पहले वाला महसूल फिर से कायम करे इस कोशिश के साथ नवाब के विरुद्ध अंग्रेज विद्रोह की तैयारी करने लगे। ऊदवानाला का युद्ध ईस्ट इंडिया कम्पनी की ऊदवानाला युद्ध की तैयारीनवाब मीर कासिम ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को प्रसन्न रखने की लगातार कोशिशें की लेकिन उसको अपनी चेष्टा में सफलता न मिली। कम्पनी के अधिकारी नवाब के विरुद्ध जिस प्रकार का व्यवहार कर रहे थे, वे न केवल घृणा पूर्ण थे, बल्कि वे शासन करने में नवाब के सामने एक मजबूरी पैदा कर रहे थे। वे नवाब को मिटाना चाहते थे और इसके लिए वे चुपके-चुपके युद्ध की तैयारी कर रहे थे। 14 अप्रैल सन् 1763 को अंग्रेजों ने अपनी फौज तैयार की एलिस पटना में कम्पनी का एजेंट था। उसने वहां के नाजिम के विरुद्ध काम करना आरम्भ कर दिया। इसी बीच में कम्पनी की एक सेना पटना में पहुँच चुकी थी। कम्पनी की ओर से भयानक कूटनीति का व्यवहार हो रहा था। पटना में अंग्रेजी सेनायें जमा हो रही थी और मुंगेर में नवाब मीर कासिम के साथ सुलहनामा की बात चीत चल रही थी। एकाएक कलकत्ता की अंग्रेज काउन्सिल ने एलिस को पटना में अधिकार कर लेने के लिए लिखा। एलिस ने अपनी अंग्रेजी सेना के साथ पटना में आक्रमण किया और समूचे शहर पर उसने अधिकार कर लिया। यह समाचार पाते ही नवाब मीर कासिम अपनी एक फौज लेकर पटना की ओर रवाना हुआ ओर वहां पहुँच कर उसने अंग्रेजी सेना पर हमला किया। दोनों और से लड़ाई हुई ओर अन्त में अंग्रेजों की पराजय हुई। उस लड़ाई में 300 अंग्रेज और ढाई हजार से अधिक उसके भारतीय सिपाही मारे गये। एलिस कैद करके मुंगेर भेज दिया गया। परिस्थितियों की भीषणता ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारियों ने मीर कासिम के सामने परिस्थितियों का एक संकट पैदा कर दिया था। नवाब कम्पनी की साजिशों और दगाबाजियों को खूब जानता था। कूटनीति का जाल बिछाकर मीरज़ाफर को नवाबी के पद से हटाया गया था और उसके स्थान पर मीर कासिम को नवाब बनाया गया था। कम्पनी के इस चक्रव्यूह को वह भूला न था। अंग्रेजों के साथ युद्ध करने में वह डरता न था, लेकिन उनकी चालों से वह भय खाता था। इसलिए सूबेदार होने के बाद वह सदा कम्पनी के अधिकारियों को सन्तुष्ट रखने की कोशिश करता रहा। लेकिन अब उसने समझ लिया था कि अंग्रेज़ों के साथ अब कोई भी सन्धि चल नहीं सकती। उसे साफ-साफ यह जाहिर हो गया था कि कम्पनी से अब युद्ध अनिवार्य हो गया। कम्पनी का युद्ध की अपेक्षा अपनी कुटनीति का अधिक विश्वास था। उसके अधिकारियों ने उसी का सहारा लिया। मीरकासिम के साथ युद्ध करके कम्पनी अपनी विजय का विश्वास नहीं करती थी। इसलिए उसने बूढ़े मीर जाफर को फिर से तैयार किया। उसे उलटा सीधा पढ़ाकर अंग्रेजों ने राजी कर लिया और उसके साथ एक नयी सन्धि कर ली। ऊदवानाला युद्ध के लिए सेनाओं की रवानगी सन्धि के साथ-साथ मीरज़ाफर को जो प्रलोभन दिये गये, उन पर वह फिर सूबेदार होने के लिए तैयार हो गया। उसके बाद युद्ध की घोषणा की गयी और यह जाहिर किया गया कि मीरकासिम के स्थान पर मीरजाफर को अब फिर बंगाल का सूबेदार बना दिया गया है। मीर कासिम के साथ युद्ध की तैयारी की गयी और होने वाले युद्ध में मीरजाफर का ही नाम सब के सामने लाया गया। उसी के नाम पर युद्ध की तैयारी हुई और मीरजाफर की सहायता करने के लिए प्रजा से प्रार्थना की गयी। 5 जुलाई सन् 1763 ईसवी को कलकत्ता से कम्पनी की एक सेना मुर्शिदाबाद के लिए रवाना हुई और मीरकासिम की सेना मोहम्मद तकी खाँ के नेतृत्व में मुंगेर से आगे बढ़ी। वह एक सुयोग्य, दूरदर्शी और शुरवीर सेनापति था। लेकिन उसके साथ जो सेना अंग्रेजों से युद्ध करने के लिए भेजी गयी थी, उसमें बहुत से फौजी अफसर कम्पनी के द्वारा मिलायेजा चुके थे। दोनों सेनाओं में तीन स्थानों पर सामना हुआ। मोहम्मद तकी खाँ की फौज में 200 यूरोपियन अफसर थे और जो उसकी तोपों पर काम करते थे, वे भी ईसाई थे। ये सब के सब युद्ध के खास मौके पर अंग्रेजी सेना के साथ जाकर मिल गये। इसका नतीजा यह हुआ कि मोहम्द तकी खाँयुद्ध में मारा गया। ऊदवानाला की पराजय मीरकासिम की सेना ने अन्त में ऊदवानाला पहुँच कर मुकाम किया इस स्थान का युद्ध कई बातों की विशेषता के कारण मीरकासिम की बुद्धिमानी का परिचय देता था। उसी मैदान के एक ओर गंगा थी। दूसरी और ऊदवानाला की गहरी नदी थी, जो गंगा में ही जाकर गिरती थी। तीसरी और पहाड़ियाँ और चौथी ओर मीरकासिम की मजबूत किले बन्दी थी। उसके ऊपर बहुत सी तोपें लगी हुईं थी। किले में जाने का रास्ता पहाड़ियों के नीचे एक भयानक दलदल के होकर था। मीरकासिम की सेना एक महीने तक उस किले में पड़ी रही। ऊदवानाला के बाहर अंग्रेजों की सेना थी ओर उसके साथ बूढ़ा मीरजाफर मौजुद था। एक महीने तक किसी तरफ से आक्रमण न हुआ। मीरकासिम की सेना में बहुत से यूरोपियन और दूसरे विदेशी अफसर थे। वे सब के सब अंग्रेजों के साथ पहले से ही मिल गये थे और मीरकासिम को धोखा देने के लिए उसकी सेना में युद्ध के समय मौजूद थे। कुछ अंग्रेज सैनिक भी मीरकासिम के साथ सेना में थे, जो कम्पनी की और से मिलाने का काम करते रहते थे। 4 सितम्बर सन् 1763 ईसवी को मीर कासिम की सेना में विश्वासघाती अंग्रेज सैनिकों ने अंग्रेजी सेना की सहायता की और उसी दिन आधी रात के पहले अंग्रेजी सेना ने दुर्ग में पहुँच कर नवाब की सेना पर अचानक आक्रमण किया। नवाब की सेना के विदेशी सैनिक और अफसर अंग्रेजी सेना में मिल गये और नवाब की बाकी पन्द्रह हजार सेना उस आक्रमण में मारी गयी।ऊदवानाला के युद्ध में मीर कासिम की पराजय के दो मुख्य कारण थे। उसकी सेना का सेनापति मोहम्मद तकी खाँ पहले ही मारा जा चुका था, इसलिए नवाब की सेना में कोई सेनापति न था और दूसरा कारण यह था कि मीरकासिम अपनी सेना के साथ स्वयं न था। इन दो अवस्थाओं में नवाब की सेना की पराजय हुई। विस्वासघातियों के कारण उसकी सेना को लड़ने का अवसर न मिला। रात के अचानक आक्रमण में उसका संहार हुआ। जिन साजिशों और दगाबजियों से अंग्रेजों ने अलासी के युद्ध में सिराजुद्दौला को पराजित किया था, उन्हीं के द्वारा वे ऊदवानाला के युद्ध में भी विजयी हुए। हमारे यह लेख भी जरूर पढ़े:—-[post_grid id=”7736″]Share this:ShareClick to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on X (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Click to email a link to a friend (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Reddit (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on Pocket (Opens in new window)Click to share on Telegram (Opens in new window)Like this:Like Loading... भारत के प्रमुख युद्ध भारत की प्रमुख लड़ाईयां