हवार्डवेधशाला (अमेरिका) के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री ह्विपल ने उल्कापिंड की खोज की तथा उन्होंने इसके प्रकुति-गुण, आकार, गति पर अनेक खोजें की हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि टूटते हुए तारे वस्त॒तः तारें न होकर छोटे आकाशीय पिण्ड होते हैं। खगोल विज्ञान मे इन्हें ‘उल्का’ के नाम से सम्बोधित किया गया है। जब कोई उल्का पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करती है, तो अपनी तीव्र गति से उत्पन्न हुए घर्षण के कारण यह वायुमंडल में जल उठती है। इस प्रक्रिया में उत्पन्न हुए प्रकाश के कारण वह टूटते तारे के सदृश्य दिखाई पड़ती है। वस्तुतः उल्कापिंड का तारों के साथ कोई संबंध नहीं है।
असाधारण चमक वाले उल्कापिंड रात्रि के आकाश में आग के गोलों के समान दिखती हैं। कभी-कभी स्वतंत्र रूप से दिख जाने वाली उल्काओ के अतिरिक्त अधिकाश उल्काएं समूह में सूर्य के चारों ओर परिक्रमा किया करती हैं। जब उनके मार्ग मे पृथ्वी आ जाती है, तो पूरा का पूरा समूह वायुमंडल मे प्रवेश करता है और
एक साथ बहुत-सी उल्कापिंड फुलझड़ी के समान जलती हुई दिखाई पड़ती हैं।
उल्कापिंड की खोज व जानकारी
यह पाया गया है कि जैसे-जैसे रात ढलती है, उल्कापिंडों की संख्या में वृद्धि होती जाती है। प्रातःकालीन उल्कापिंडों की संख्या सायंकालीन उल्कापिंडों की संख्या लगभग चौगुनी बैठती है। कारण यह है कि उल्का-समूह की गति परिभ्रमणशील पृथ्वी की तुलना में सायंकाल को देखते हुए प्रातःकाल अधिक हुआ करती है। शाम को पृथ्वी आगे बढ़ती है और उल्काएं पीछे से भागती हुई वायुमंडल में प्रवेश करती हैं, जबकि सुबह उल्काओं और पृथ्वी में आमने-सामने टक्कर होती है।
नगी आंखो से दिखने वाली उल्काओं की संख्या बहुत कम है। औसतन साल भर में किसी एक स्थान पर किसी प्रेक्षक को लगभग एक घंटे मे 10 उल्काएं दिख जाती हैं। चूंकि प्रेक्षक का दृष्टि क्षेत्र पृथ्वी के वायुमंडल गोले का लगभग एक लाखवां
अंश होता है, अतः नंगी आंखों से दिखने वाली लगभग 10 लाख उल्काएं समस्त पृथ्वी पर प्रति घंटे गिरा करती हैं। यदि धुंधली उल्काओं को भी शामिल कर लिया जाए, तो यह संख्या काफी बढ़ जाएगी। एक अन्य खगोलशास्त्री शेपली के मतानुसार प्रतिदिन करोड़ों उल्काएं, टूटते हुए तारों के सदृश्य अपने वायुमंडल में प्रवेश करती हैं, प्रति सौ में से लगभग एक उल्का कोरी आखों से देखी जा सकती है।

उल्कापिंडों की लीके क्षणिक चमकीली धारियों के रूप में आधे सेकंड से अधिक देर तक नहीं दिखलाई पड़तीं। ये वायुमंडल से 100 किमी, की ऊंचाई पर बनती है और 60 किमी. की ऊंचाई से उतरते-उतरते जलकर खत्म हो जाती हैं। कुछ अधिक चमकीली उल्काएं अधिक नीचाई तक उतर आती हैं। यहां तक कि आग के गोले की शक्ल की ये उल्काएं 30 किमी. की ऊंचाई तक उतर आती हैं।
उल्काएँ स्वयं ठोस पिंड होती हैं और साधारणत: बहुत छोटी-छोटी होती हैं। बहुतेरी उल्काएं, जो वायुमंडल में कोरी आंखों द्वारा देखने वाली चमकीली लीकीं का निर्माण करती हैं, मटर के दाने से लेकर बालू के कणों तक के आकार की होती हैं। इनका वजन कुछ मिलीग्रामों से अधिक नही होता। ये ऊपरी वायुमंडल में जलकर राख हो जाती हैं। इस प्रकार पृथ्वी का वायुमंडल हम सब की इनसे रक्षा करता है। यदि वायुमंडल के लिए यह सुरक्षा न होती तो ये उल्काएं बन्दूक की गोलियों की बौछार की तरह पृथ्वी तल पर आकर गिरतीं। किन्तु इनकी संख्या बहुत कम होती है। आकाश से आए हुए ऐसे ठोस पिंडों को ‘उल्काश्म’ के नाम से
पुकारा जाता है।
साइबेरिया क्षेत्र में गिरे एक उल्काश्म से बहुत सारे रेडियर और अन्य जंगली जीव-जन्तु मारे गए थे और जंगल का एक बडा भाग जलकर राख हो गया था। गनीमत यह हुआ था कि यह उल्काश्म जंगल में गिरा था। यदि यही उल्काश्म न्यूयार्क, लंदन, मास्को या नई दिल्ली जैसे किसी बड़े नगर पर गिरता, तो सोचिए जान-माल की कितनी बड़ी हानि होती। नंगी आंखों को दिखने वाली दो करोड़ 40 लाख उल्काएं, जो प्रतिदिन पृथ्वी के वायुमंडल में विनप्ट होती हैं, केवल 227 किग्रा. पदार्थ लाती हैं।
एक अन्यखगोलशास्त्री की खोज के अनुसार पृथ्वी पर प्रतिवर्ष गिरने वाली समस्त उल्कापिंडों की औसत संहति 3 लाख 65 हजार किग्रा. (360 टन) होती है, किन्तु पृथ्वी की विशालता को देखते हुए इस संहिता का कोई प्रभाव पृथ्वी पर नहीं पड़ता। इस प्रकार यदि एक टन प्रतिदिन की दर से उल्कापिंड पृथ्वी पर गिरती हैं तो पृथ्वी की आयु 4 अरब वर्षों में केवल इतना पदार्थ गिर सका होगा, जो पृथ्वी की समस्त सतह पर औसतन 1 मिलीमीटर मोटी तह बना पाएगा। उल्काएं पृथ्वी पर ही नहीं, अपितु समस्त ग्रहों-उपग्रहों पर गिरती होंगी। किन्तुग्रहों के मुकाबले इनकी संहतियां इतनी कम होती हैं कि इनके गिरने से ग्रहों की संहतियो में कोई विशेष अंतर नहीं आ पाता! अतएव ग्रहों की कक्षाएं एवं उत्केन्द्रता में कोई परिवर्तन नही आ पाता।
वायुमंडल मे प्रविष्ट हो रही उल्कापिंड की दिशा और वेग जान लेने पर इसकी कक्षा की गणना की जा सकती है। आधुनिक अनुसंधानकर्त्ताओं ने पता लगा लिया है कि उल्काएं सौर-प्रणाली की सदस्य हैं। हार्वर्ड वेधशाला के खगोलविद ह्विपल ने
‘उल्का-फांस’ तैयार किया है। इस विधि में दो बड़े कोणों से कैमरे पृथ्वी के ऊपर 80 किमी. की दूरी पर आकाश के किसी एक बिन्दु की ओर लगा दिए जाते हैं। उक्त क्षेत्र में किसी चमकीली उल्का की लीक दोनो कैमरों में उतार ली जाती है और कैमरों के लैंसों के सामने धूम रहे कपाटों से इनके दीप्ति चित्रों में 1/20 सेकंड का अंतर कर दिया जाता है। फास में पकड़ी गई कुछ इकका-दुक्का उल्कापिंडों की कक्षाएं, बृहस्पति-परिवार की सदस्य जान पड़ती है। इससे स्पष्ट है कि छिटपुट और समूहों वाली दोनों प्रकार की उल्काएं सौर-प्रणाली की सदस्य हैं। ह्विपल के मतानुसार चमकीली उल्काएं धूमकेतुओं से संबंधित जान पड़ती हैं तथा अन्य उल्काएं लघुग्रहों की शेषांश हैं।
समूहों एवं बौछारों का नाम उन राशियों पर रखा जाता है, जहां आकाश में ग्रह दिखाई देते हैं। सिंह राशि समूह एक ऐसा ही उदाहरण है। उनका नाम उन धूमकेतुओं के नाम पर भी रखा जाता है जिनके विनष्ट होने प्रतीत होते है। ड्रेकोनिड्स और गायकाविनिड्स ऐसे ही समूहों के नाम होते है कभी किसी धूमकेतु के सिर का संघनित पदार्थ सूर्य अथवा किसी ग्रह की
के कारण समूचा या अधूरा विलग हो जाता है तो वह फैल कर
प्रवाह या समूह बन जाता है। इस प्रकार का एक प्रमुख उदाहरण बीला के छितराव का है। यह धूमकेतु बृहस्पति-परिवार का था और इसका जीवन काल साढ़े छः वर्षो का था। सन् 1846 मे जब यह धूमकेतु सूर्य के निकट निकला तो यह दो टुकड़ों में विभक्त हो गया। सन् 1852 में दोहरा धूमकेतु फिर उसके बाद आज तक नही दिखा है। खोए हुए धूमकेतु की कक्षा में कई बीलिड उल्काओं की कई झडियां देखी गई है और अब ये भी समाप्त हो चुकी हैं।
उल्कापिंड के विश्लेषण से पता चलता है कि अधिकांश उल्काएं पत्थरों की बनी होती हैं और कुछ लोहें एव निकिल धातुओं से निर्मित होती हैं! डोमीनियम वेधशाला पर खगोलशास्त्री मिलमैन द्वारा लिए गए उल्का-लीकों के वर्णक्रमों से इन तथ्यों की पृष्टि हुई है। भविष्य में होने वाली अंतरिक्ष यात्राओं में अंतरिक्षयात्रियों का सबसे प्रबल खतरा उल्कापिंडों की मुठभेड़ों का ही रहा करेगा।
ये होती तो छोटी है, किन्तु अपनी प्रबल गतिज ऊर्जा के कारण अन्तरिक्ष यानों को नष्ट करने की क्षमता इनमें विद्यमान होती है। खगोलविद ह्विपल ने गणना की है कि 3.6 मीटर व्यास का अंतरिक्षयान, जिसका बाहरी फौलादी खोल 0.6 सेमी मोटा हो, यदि 50 वर्ष तक पृथ्वी और चन्द्रमा के बीच यात्रा करता रहे, तो केवल कोई एक उल्का इस फौलादी खोल को चीरने में समर्थ होगी। किन्तु भविष्य में अनुसंधानों के बल पर ऐसा खोल भी बन सकता है, जो किसी भी उल्का का आघात सहन करने में पूर्ण सक्षम हो। आज भी बहुत से अंधविश्वासी चमकती हुईं गिरती उल्का को देखते हैं, तो समझते हैं कि कोई तारा टूटा है और तारा टूटने का अर्थ वे किसी महापुरुष या राजा की मौत होने से लेते हैं या उसे गिरता देख मनोति मांगना शुभ समझते हैं।