उरांव जनजाति का प्रदेश झारखंड राज्य के दक्षिण पश्चिम में सोन महा नदी के आस पास के पहाड़ों के आंचल में है,जिसमें रांची, हज़ारीबाग आदि कई ज़िले सम्मिलित हैं। यह सारा प्रदेश घोर वनों से घिरा हुआ है कि यहां की शोभा देखते ही बन पड़ती है इसके अतिरिक्त ‘कोयल’ तथा “स्वर्ण रेखा’ नाम की दो बरसाती नदियां भी इस क्षेत्र की शोभा को चार चांद लगा देती हैं, कहने को तो यह नदियां बरसाती हें, परन्तु फिर भी जल की मात्रा इनमें कम नहीं होती। केवल शोभा की दृष्टि से ही नहीं , बल्कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह प्रदेश भारत वर्ष का एक श्रेष्ठ-खण्ड माना जाता है। समुद्र-तल से लगभग 1500 फुट की ऊंचाई पर स्थित इस खण्ड पर वैसे तो कूर्मा, हीस, मुण्डा, खरिया, उरांव तथा असुर आदि अनेक आदिवासियों का वास है, परन्तु इन में प्रधानता उरांव तथा मुण्डा जाति के लोगों की है। इन में भी श्रेष्ठ जनजाति उरांव को ही माना जाता है।
उरांव जनजाति का इतिहास
उरांव जनजाति का इतिहास देखते हैं तो कुछ इतिहासकारों का मत है, कि यह प्रदेश इन लोगों का असली प्रदेश नहीं है बल्कि इन का असली देश, रोहतास खण्ड की प्रसिद्ध नदी तुगंभद्रा के निकट है। कहा जाता है,कि हिन्दुओं के श्रेष्ठ ग्रंथ रामायण में जिस किष्किंधा पुरी का नाम आता है, वह नगर भी यहीं कहीं इसी क्षेत्र में स्थित था। परन्तु न जाने किन कारणों वंश वह मिट गया, जिसका कोई भी अवशेष आज यहां नहीं है। कुछ ऐतिहासिक स्रोत्रों से पता यह भी चलता है, कि किसी प्रसन्नता के अवसर पर जब कि ये लोग अपने देश-में खूब हंस-खेल रहे थे, तथा स्वभाव वश शराब के नशे में चूर पड़े थे, उस समय रात्रि को एक आर्य सेना ने इन पर आक्रमण कर दिया, और जल्दी में यह उनका सामना न कर सके। इनके बहुत से लोग इस आक्रमण का शिकार होकर मारे गये। शेष जो बचे उन्होंने किसी भी प्रकार इस प्रदेश से भाग कर अपनी जानें बचाई। सम्पूर्ण रोहतास खण्ड पर आर्य योद्धाओं ने अपना अधिकार जमा लिया। और अपने प्राणों की
रक्षा के लोभ में इन आदिम-जातियों को अपनी जानें इस उरांव प्रदेश के घोर वनों में छुप कर बचानी पड़ी। ज्यों ज्यों बीते दिनों की स्मृतियां मिटने लगीं, त्यों त्यों इन्हें अपने आप को बसाने का ध्यान आया। दिन रात जुट कर, अथक परिश्रम द्वारा इन्होंने इस नये अपरिचित प्रदेश के घोर वनों में अपने रहने के लिये घर बनाये, तथा वनों को काट काट कर खेती योग्य भूमि प्राप्त की। धीरे धीरे ये लोग कर्नाटक से लेकर नर्मदा नदी के तट तक फैल गये,परन्तु फिर न जाने किन कारणों वश इन का क्षेत्र सीमित ही रह गया। इन के दूसरे क्षेत्रों पर अनेक आर्य आक्रमकारियों ने अपने राज्य जमा लिये और ये लोग एक संकुचित क्षेत्र में दब कर रह गये।
बहुत से लोगों का तो यहां तक कहना है, कि इन लोगों में जो उरांव जाति के लोग हैं, वे रामायण के उप-नायक महाराजा सुग्रीव आदि वानरों के ही वंशज हैं। इतिहासकारों ने भी अनेक खोजों के पश्चात लोगों के इस काल्पनिक कथन की पुष्टि की है। क्योंकि इन के जीवन में बहुत सी ऐसी बातें हैं; जो कि वानर पूर्वजों की कहानी में साफ़ देखने को मिलती हैं। इसके अतिरिक्त आर्य संतति से सम्बन्ध न रखते हुये भी यह लोग रामायण के प्रधान नायक भगवान श्री रामचंद्र, तथा सुश्री जानकी की उसी प्रकार साधना करते हैं जितनी की श्री राम-भक्त हनुमान ने की थी। “राम शब्द में ही – यह लोग अपनी महान् श्रद्धा रखते हैं। तथा उसके प्रति किसी प्रकार का भी अपमान सूचक शब्द यह सहन नहीं कर पाते।
इसके अतिरिक्त इनमें एक बात और भी विशेष महत्वपूर्ण है, कि ये लोग आर्य न होते हुए भी हिन्दू देवी देवताओं की ही उपासना करते हैं। शिव, विष्णु, ब्रह्मा, आदि परम देवों में इनकों बड़ा विश्वास हैं। अपने दुःख के दिनों में यह उन्हीं की शरण में जाते हैं तथा उन्ही को अपना एक मात्र दु:ख निवारक मानते हैं। यह भी पता चला है, कि इन लोगों के असली पूर्वज प्राचीन भारत के द्राविड़ आदि लोग थे। हालाकि द्रविड़ लोगों के आचार-विचार, रहन-सहन, तथा धर्म आदि सभी कुछ आर्य लोगों से बिल्कुल भिन्न हैं। फिर भी अन्य द्राविड़-जातियों की अपेक्षा यह उरांव जनजाति के लोग द्राविड़ होते हुए भी अपने आप को आर्य ही मानते हैं, तथा हिन्दू धर्म को ही एक अंग समझते हैं। यह एक बहुत बड़ा प्रमाण है, जिस से यह स्पष्ट होता है, कि यही लोग वास्तव में रामायण के श्रेष्ठ-शब्द ‘वानर’ के वंशज होंगे। इन्होंने राम भक्ति में डूब कर ही लंका पुरी के युद्ध में उनका साथ दिया होगा। आज हमारे सामने कोई भी ऐसा अवशेष नही जिससे कि हम वास्तविकता को दृढ़ता पूर्वक समझ पाते, परन्तु इस भारत खण्ड का वातावरण बता रहा है, कि यह उरांव राम सेवक वानरों की ही संतानें हैं, इन के जीवन से लिपटी हुई परम्पराएं प्राचीन भारत की महान इतिहास-कृति रामायण के शब्दों से स्पष्ट हो जाती हैं, कि यह कोई काल्पनिक महा काव्य नहीं, अपितु भारत की प्राचीन संस्कृति का एक गौरवशाली इतिहास है, जिस पर भारत को सदा गर्व रहा है।
उरांव जनजाति के लोग वास्तव में वानर केवल इसीलिये कहे जाते हैं, कि आर्य लोग जिन पिछड़ी हुई जातियों को अपने से नीची अथवा असभ्य विचार करते थे, उन्हें वह असुर, वानर आदि नामों से सम्बोधित करते थे। असुर का अर्थ है राक्षस, तथा वानर का अर्थ है, (वा+नर) ‘अर्ध +-मानव’ आधा आदमी।
उरांव जनजातिअसुर अथवा राक्षस, उन लोगों को कहा जाता है, जो कि मांसाहारी होते हैं, तथा मनुष्य का आखेट करना अपना धर्म समझते हैं। वनों में रहना तथा मदिरा पान करना ही उनका ध्येय होता है। माँ-बाप, भाई-बहन देश-धर्म के प्रति वह अपना कोई कर्तव्य नहीं समझते। किसी का आदर करना वे नहीं जानते। हर समय सुन्दर नारियों के सतीत्व को दूषित करना तथा मनुष्य-मात्र पर अत्याचार करना ही इन्हें अच्छा लगता है। ये लोग पूर्ण अशिक्षित होते हैं। भर पेट खाना तथा खाने के लिये ही जीवित रहना इनका लक्ष्य होता है। इस से अधिक इन्हें किसी वस्तु की जानकारी नहीं होती। यह हर प्रकार से जंगली होते हैं। इसलिये आर्य लोग जब सब से पहले भारत में आये ओर उन्हें इस भूमि खण्ड पर अनोखी अनोखी जंगली तथा मांसाहारी जातियां देखने को मिलीं, तो उन्होंने उनकी प्रकृति तथा स्वभाव अनुसार उनके वैसे ही भांति भांति के नाम रख दिये।
इसी प्रकार “मलेक्ष’ नाम, जो कि “म्लिष्ट’ शब्द का अपभ्रंश है, इसका अर्थ हैं, जिसकी भाषा शुद्ध न हो। आर्य लोगों को जिन लोगों की बातचीत समझ में नहीं आती थी, तथा जिनका वर्ण काला न होकर कुछ कुछ ताम्रवर्ण होता था, उन्हें वह मलेक्ष कहते थे। इस जाति का नाम वानर इसलिये पड़ा, क्योंकि इन में मानव होने के साथ साथ पशुओं के से भी कुछ आचरण दिखाई पड़ते थे। परन्तु जिस समय भगवान रामचन्द्र की इस वानर जाति से मित्रता हुई, तो श्री राम ने इन्हें छाती से लगा लिया, इसके पश्चात ही “वानर” जाति “उरांव” नाम से प्रख्यात हुई। यह नाम इस जाति का इसलिये पड़ा, कि आर्य-वीर भगवान राम ने इस दूषित जाति को अपने हृदय से लगा कर पवित्र किया था। यह प्रथम द्राविड़ जाति थी, जिस से आर्यो ने अपने सम्बन्ध स्थापित किये। इस से पूर्व सभी आर्य इन आदिम-जातियों को घृणा की दृष्टि से देखा करते थे।
जिस प्रकार लंका के युद्ध में रामायण के कथनानुसार इस वानर जाति की सेनाओं के प्रति उल्लेख मिलता है, कि उन्होंने बड़े बड़े पत्थरों, तथा वृक्षों के तनों को उखाड़ उखाड़ कर इन्हें शस्त्र के रूप में प्रयोग किया था, तो यह झूठ नहीं है, अपितु आज भी इन के आखेटों में अधिकतर ऐसे ही शास्त्रों का उपयोग होता है। जिस समय यह आखेट के लिये प्रस्थान करते हैं, तो एक नियत स्थान पर जा कर सभी लोग पहले उस स्थान को पवित्र कर के अपने समस्त शस्त्र एकत्रित कर के रख देते हैं। इसके प्रश्चात श्रृद्धा पूर्वक शस्त्र-पूजा की जाती है।
उरांव जनजाति का खानपान
आखेट कुछ विशेष अवसरों पर ही किया जाता है। वैसे तो शिकार करना इन का एक प्रकार से दैनिक-क्रम है, परन्तु फिर भी विशेष अवसरों पर किये जाने वाले आखेटों का महत्त्व कुछ ओर ही है। दैनिक आखेटों तथा विशेष आखेटों में अन्तर केवल इतना ही है, कि दैनिक आखेट तो ये लोग जब भी इच्छा या आवश्यकता हुई, कर लेते हैं, तथा इसमें किसी का साथ आवश्यक नहीं समझा जाता। यह तो इन लोगों का एक ऐसा कार्य है जिसकी सहायता से यह अपनी तथा अपने बच्चों की भूख मिटा लेते हैं। क्योंकि अन्न॒ तो इनकी आवश्यकता के अनुसार इस प्रदेश में इतना अधिक पैदा नहीं होता, इसलिये मांस का सहारा लेना ही पड़ता है। फिर भी अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा कर जितना अन्न भी पैदा किया जा सकता है, ये लोग करते हैं परन्तु दिन रात के अथक परिश्रम के पश्चात इन्हें भी पर्याप्त अन्न उपलब्ध नहीं हो पाता, इसलिये खरगोश, गिलहरी, हिरन, सूअर, भैंसा आदि सभी जानवरों का मांस ये लोग खा लेते हैं।
बन्दर का यह लोग बड़ा आदर करते है उसे कभी नहीं मारते, चाहें वह कितनी भी हानि क्यों न करे, पर यह उसे कुछ नहीं कहते। इन के विचार में वह इन की उरांव जनजाति का आदि-नर है, जिस से इन की उत्पत्ति हुई। और इस बात में इनका विश्वास प्रत्यस्त दृढ़ है। वैसे तो इस प्रदेश के निवासियों का मुख्य पेशा कृषि ही है, परन्तु उसकी व्यवस्था इतनी दीन है, कि इन्हे जीवन भर बड़े बड़े साहूकारों, तथा जमींदारों का दास बन कर रहना पड़ता है, उनकी दृष्टि तनिक भी तेज होने से इन्हें भूखों मरना पड़ता है। वे लोग इन भोले भाले जीवों पर मन चाहे अत्याचार करते हैं जिससे इन की आर्थिक दशा सदा शोचनीय रहती है, ग़रीबी, अशिक्षा, ने इन के जीवन को बुरी तरह जकड़ रखा हैं। यह वास्तव में अनोंखी बात है, कि जिन भोले भाले लोगों ने बड़ा परिश्रम कर के भयानक जंगलों के स्थान पर हरी भरी खेतियों वाली स्वर्ण धरती बनाई, जिस पर केवल एक मात्र इन्हीं का अधिकार था, फिर उसे अपनी जागीर समझने वाले तथा उस पर अपना क़ानूनी दावा करने वाले जमींदार कहां से पैदा हो गये ?
खोजों से पता चलता है, कि भारत में जब मुगल साम्राज्य स्थापित हुआ, उसके पश्चात ही इन लोगों को दासता के बन्धनों में जकड़ डाला गया। भूखे मुग़ल सैनिकों तथा देश के ग़दारों को मुगल राज्य की स्थापना में सहायता देने के उपलक्ष्य में राज्य को यह साहस हो गया, कि वह सम्पूर्ण भारत-भूमि को मुग़ल जायदाद घोषित कर दें। इस घोषणा की योजना बनाते ही जमींदारियों तथा जागीरों के लोभ में देश के साथ विश्वासघात करके अनेक राष्ट्रीय गद्दारों ने मुगलों के पर इस भारत-भूमि पर दृढ़ कराने में उन्हे बड़ा सहयोग दिया। जब भारत पर उन के क़दम भली प्रकार जम गये, तो उन्होंने सम्पूर्ण भारत-खण्ड पर अपनी स्वामिता की घोषणा कर दी। इस घोषणा से जनता में असंतोष फैल गया, अनेक स्थानों पर क्रान्ति होने का भय हो उठा। तब राष्ट्र का नमक हराम करने वाले बहुत से कपूतों ने इसे कठोरता से दबा डालने में मुग़लों का बड़ा साथ दिया, तथा उन्हें दबाये रखने के लिये मुगल बादशाहों ने सम्पूर्ण देश को जमींदारियों तथा जागीरों में विभाजित कर के राष्ट्र के दलालों को निहाल कर दिया।
इस विभाजन से मुग़लों को दो लाभ हुए, एक तो यह कि देश की भूमि के विस्तृत प्रबन्ध से उन्हें छुटकारा मिल गया, ओर दूसरा यह, कि सम्पूर्ण भूमि पर मुगल अधिकार के साथ ही जमींदारी तथा जागीरों के इनामों से पाप की कमाई खाने वालों का मुंह भी उनकी इच्छा अनुसार भर दिया गया। और फिर तो जमींदारियां तथा जागीरें इनाम में दे डालना मुगल राजाओं की एक आदत सी बन बैठी। इस प्रथा का भयानक परिणाम यह हुआ, कि राज्य के विरुद्ध आवाज उठाने वालों के मुंह बुरी तरह कुचल कर गरीब किसानों को सदा के लिये बन्दी बना दिया गया। सेंकड़ों वर्ष बीत जाने के पश्चात अब तक उनकी यही दशा रही है। कभी कभी तो ये बेचारे उन्हे अपना एक प्रकार से भगवान भी समझने लगते हैं। अन्नदाता आदि नामों से उन्हे सम्बोधित किया जाता है। परन्तु अब भारत पर मुगलानी या अन्य कोई विदेशी शासन नहीं, आज भारत का अपना प्रजातन्त्र साम्राज्य स्थापित हो चुका है। अनेक स्थानों पर इन बुरी प्रथाओं का नाश करके क्षक को ही धरती का वास्तविक अधिकारी घोषित कर दिया गया है। शेष स्थानों पर इस के लिये व्यवस्था की जा रही है। और वह दिन दूर नहीं कि यह भी इस दासता से मुक्त हो कर पुनः अपना उत्थान कर सकेंगे। इन लोगों को शिक्षित करने के लिये भी भारत की स्वतन्त्र सरकार प्रयत्न कर रही है।
उरांव जनजाति का जनजीवन
इस प्रदेश में अधिकतर झारखंड राज्य के ब्राह्मण ही जमींदार हैं, जो कि इन गरीबों का शोषण करने में बड़े प्रसन्न होते हैं। ओर जो अपने आप को इन भोले भाले लोगों का अन्नदाता समझते हैं। पर यदि ये लोग उन की जमीनों को छोड़ दें, और फिर कोई भी उस ज़मीन में हल चलाने से इन्कार कर दे, तो बहुत शीघ्र ही इन भोले भाले लोगों से भी कहीं अधिक भूख उन लोगों में फैले, क्योंकि ये तो बोझ ढोकर भी पेट की भूख मिटाने के लिये कुछ पा लेंगे, पर उन महानुभावों को, जो कि अपने आप को इन लोगों का अन्नदाता समझते हैं, दो दाने भी नसीब न होंगे।
वास्तव में इस प्रदेश के लोग बड़े भोले होते हें । उरांव जनजाति का पहनावा भी बड़ा ही अनोखा तथा नाम मात्र को ही होता है। स्त्री तथा पुरुष दोनों अंगोछे बांधते हैं, इन्हें शेष शरीर नग्न ही रखना अच्छा लगता है। यहां तक कि स्त्रियां भी अपने वक्ष:स्थल को ढकना पसन्द नहीं करतीं। पुरानी तरह के दो चार आभूषण अवश्य पहन लेती हैं। केश या तो खुले ही रहते हैं और या उन्हें साधारण जूड़े़ के रूप में पीछे की भोर बांध लिया जाता है।
इस प्रदेश की सभी जातियों का रंग तो देखने में साँवला है, परन्तु स्वास्थ्य की दृष्टि से यदि देखा जाये, तो यह बिल्कुल भी भयानक प्रतीत नहीं होते। काम करने में इनका यह हाल है, कि भले ही थक कर चूर हो जायें, पर जब तक उसे पूर्ण न कर लें, उसको अधूरा नहीं छोड़ते। इस प्रदेश के बहुत से लोग यहां के निकटवर्ती नगरों में प्रायः बोझ ढोने का काम करते दिखाई पड़ते हैं, वास्तव में उनकी परिश्रम शीलता देख कर आश्चर्य होता है। बहुत से लोग तो इतने बांके, स्वस्थ तथा चुस्त होते हैं कि दो मन बोझ अपनी नंगी पीठ पर उठा कर 20-22 मील तक निरन्तर चल सकते हैं।
इन आदिवासियों में परदे की प्रथा नहीं है। विवाह के लिये केवल वर तथा कन्या की भरपूर जवानी ही देखी जाती है। हां, एक बात जो सब से अधिक ध्यान देने योग्य है कि इन लोगों में ऐसी कन्या से कोई विवाह नहीं करता, जिसे वृक्ष पर चढ़ना न आता हो। और यदि ग़लती से ऐसी कन्या से विवाह हो भी जाये, तो बाद में उसे छोड़ दिया जाता है। एक से अधिक विवाह करने का रिवाज भी इन जातियों में प्रचलित है। जिस समय खेतों में बीज बोया जाता है , तो उस समय बीज स्त्री के हाथ से ही धरती में छोड़ा जाना शुभ माना जाता है।
नृत्य तथा गीतों का इन के जीवन में बड़ा महत्त्व है। हालांकि यह दोनों चीज़ें पुरातन ढंग की होती हैं, फिर भी इन में एक ऐसी भावात्मक कला के दर्शन होते हैं, जिन का गुणागान किये बिना नहीं रहा जाता। गीतों में भरे भाव हृदय के टूंक भर देते हैं, वैसे यह गीत इन लोगों की अपनी अनोखी उरांव भाषा में होते हैं, पर यदि उन की भाषा को जान कर उन गीतों का अवलोकन किया जाये, तो इन के गौरवपूर्ण अतीत की कल्पना करना बड़ा सरल हो जाता है। इन के गीतों में भावों की कोमलता इतनी अधिक होती है, कि आत्मा उन्मत हो उठती है। और इतना ही नहीं, बल्कि यदि अन्य भाषाओं के साहित्य से इन के साहित्य की तुलना की जाये, तो भेद स्पष्ट हो जायेगा। नृत्यों का महत्व भी ऐसा ही है। स्त्री पुरुष साथ साथ नृत्य करते हैं।
बच्चों को शिक्षा देने के लिये ‘घाँगर कुरियार” नामक एक स्थान प्रत्येक गांव में होता है, यहां बच्चों को सामाजिक, तथा व्यावहारिक शिक्षा दी जाती है, जिसमें कोई भी किताबी विषय नहीं होता। वैसे इन लोगों का एक अपना साहित्य है, परन्तु आज बहुत कम ही पढ़े लिखे लोग इनके बीच रह गये हैं। यह है, उरांव जनजाति के भोले भाले लोगों का अनोखा जीवन। द्राविड़-जाति के यह अवशेष आज भारत की प्राचीन कहानी के अवशेष है। इन को कभी भी, किसी ने उठने का अवसर नहीं दिया, और श्रेष्ठ जातियों के दबाव में भी यह अपने आपको उठा न सके। पर आज के स्वतन्त्र भारत में, कोई भी किसी को दबाने का अधिकार नहीं रखता। इसलिये वह दिन दूर नहीं, जब हम इनकी उन्नति को देख कर भूल जायेंगे, कि यहभारत के आदिम-प्राणी हैं।
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