उत्तर प्रदेश राज्य के जनपद जालौन के मुख्यालय के रुप में प्रसिद्ध उरई 25°-59° उत्तरी अक्षांश और 79°-28° पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित है। यह झांसी और कानपुर के मध्य में बसा है। इसी नाम से तहसील भी है जो कि 25°-46° और 26°-3° उत्तरी अक्षांश तथा 79°-7° और 79°-34° पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित है। उरई उत्तर प्रदेश का प्रसिद्ध शहर है।
उरई का इतिहास
प्राचीन काल में यहां पर आद्य इतिहास काल की संस्कृति विद्यमान थी। इसके पश्चात कोल (इस्पाती सभ्यता ) सभ्यता तत्पश्चात वैदिक कालीन सभ्यता का प्रभाव रहा। फिर मौर्य कुषाण, तथा गुप्त साम्राज्य का प्रभाव रहा। गुप्त काल के पश्चात यहां पर चन्देलो का अधिपत्य रहा। ई० सन 1138 में यह क्षेत्र ग्वालियर के परिहार राज्य के अन्तर्गत आया जिसमें उरई का राज्य राजा महीपाल के बडे पुत्र माहिल शाह को मिला। दिल्ली के राजा पृथ्वीराज की विजय के पश्चात् कोटरा के जागीरदार माहिल शाह के छोटे भाई भोपत शाह के पुत्र तेजपाल को सन 1190 ई० में उरई तथा कोटरा दोनो का राज्य मिला।
सन 1204 ई० में कुतुबुद्दीन ने तेजपाल को पराजित कर अपने करिंदे को राजा बना दिया। सन 1291 ई० में सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने उरई पर आक्रमण किया और उसे जीत लिया। राजा भोज शाह ने वीरगति पाई। उरई खिलजियो का करद राज्य बना पर राज्य परिहारो के पास ही बना रहा। सन 1320 के उपरान्त यहां का राजा नाहरदेव बना। सन 1544 में शेरशाह सूरी ने इस क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। सूरी वंश के पतन के पश्चात् यह क्षेत्र मुगल सल्तनत का एक भाग बन गया। अकबर के समय में कालपी सरकार के अन्तर्गत उरई महल स्थित था। बाद में यह क्षेत्र बुन्देलों के अधिपत्य में आ गया।
उरई का इतिहास
सन 1630 ई० में यह क्षेत्र महाराज छत्रपाल के अधीन आ गया। औरंगजेब तथा छत्रसाल एक दूसरे के विरोधी थे। औरंगजेब हिन्दुओं पर जुल्म ढहाकर उन्हे मुसलमान बनाने के प्रयत्न में था तथा छत्रसाल को यह बिलकुल अच्छा नही लगता था। अतः महाराज छत्रसाल ने साम दाम दण्ड भेद का उपयोग करके कूटनीति से काम लेकर औरंगजेब को परास्त किया परन्तु इस विजय के परिणाम स्वरूप उन्हें अपनी सम्पत्ति का एक तिहाई भाग पेशवा बाजीराव को देना पड़ा जिससे यह सम्पूर्ण क्षेत्र मराठों के अधीन हो गया। और सन 1738 गोविन्दराव बुन्देला (खैर) इस क्षेत्र के राजा बने। सन 1776 में यह क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन आ गया। सन 1857 को आजादी के लड़ाई के समय झाँसी से आई महारानी लक्ष्मीबाई ने स्थानीय लक्ष्मीनारायण मन्दिर में भगवान की पूजा अर्चना की। यहां के लोगों ने अंग्रेजों के विरूद्ध जमकर जंग लड़ी तथा तमाम बन्धुजन स्वतंत्रता के लिए फांसी पर झूल गये तथा तमाम ने जेल के अन्दर आजादी का बिगुल फूँका।
उरई की आर्थिक दशा
उरई की आर्थिक दशा बहुत अच्छी नहीं थी। कुछ लोग अत्यन्त
समृद्धशाली थे परन्तु जनसामान्य निर्धन व निर्बल था। वह अपनी दैनिक आवश्यकताओं हेतु समृद्धजनों पर ही आश्रित था। मुख्य अर्थोपार्ज का आधार कृषि ही था तथा कृषि से सम्बन्धित व्यापार ही हुआ करते थे। गेहूँ, चना आदि यहां की प्रमुख कृषि उपजें थी। वर्तमान में मसूर, लाही, सोयाबीन आदि क्रैश क्रोप का चलन बढ़ गया है। यहां पर सिर्फ एक ही मुख्य पैदावार ली जाती है। यहां की मिट्टी से दूसरी पैदावार लेना अभी तक असाध्य बना हुआ है। यहां की निर्धनता का यह भी एक कारण है।
सामाजिक दशा
यहां के समाज की दशा बहुत अच्छी नहीं थी। निर्बल वर्ग निर्बल ही था समृद्ध वर्ग के पास समृद्धता बढ़ती ही जाती थी। समाज के सभी प्रकार के धार्मिक उत्सव सम्पन्न वर्ग के सहयोग से ही सम्पन्न होते थे। शिक्षा का विशेष प्रचार प्रसार नहीं था। स्रियाँ पर्दानशीन थीं तथा उन्हें समाज में उचित स्थान प्राप्त नहीं था। अलबत्ता कुंवारी कन्यायों को सम्मान पूर्वक स्थान प्राप्त था तथा देवी स्वरूप मानकर उनका आदर किया जाता था। आज कल यह प्रथा बराबर चली आ रही है। यहां के समाज में हिन्दू तथा मुसलमानों में काफी भाईचारा था। सभी एक दूसरे के दर्द में सम्मिलित होते थे तथा पंथीय उत्सवों में एक दूसरे का सहयोग भी करते थे। साधु संतों की समाज में प्रतिष्ठा थी तथा उनका पूरा मान सम्मान.होता था।
भवनों के निर्माण में विभिन्न समकालीन स्थितियां एवं पृष्ठभूमि
उरई में निर्धन वर्ग अधिक था। इस कारण भवनों का निर्माण न्यून था। सामान्य जन मिट्टी तथा पुआल के घर बनाकर इन्हीं में अपना जीवन यापन करता था। साधु संतों की समाज पर पकड़ बहुत अच्छी थी। इस कारण धार्मिक चेतना तथा आध्यात्मिक ज्योति जगाये रखने के उद्देश्य से साधु सन्तों द्वारा समाज के समृद्धि शाली वर्ग को प्रोत्साहित किया जाता था जिसके परिणामस्वरूप मंदिरों मस्जिदों का निर्माण होता था। लोग अपनी आध्यात्मिक शान्ति हेतु भी मन्दिरों तथा मस्जिदों का निर्माण कराते थे। कुछ लोग मान्यताओं के पूरा होने पर भी मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा कराकर मन्दिर निर्माण में रूचि लेते थे।