मध्य प्रदेशके महत्वपूर्ण स्थानों में उदयपुर (विदिशा) एक विशेष आकर्षण है, यह राजस्थान वाला उदयपुर नहीं है यह मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में स्थित है महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक नगर है। जहां देश- विदेश के पर्यटक व विद्वान बहुत बड़ी संख्या में प्रति वर्ष पहुँचते है । यह विदिशा नगर से 34 मील उत्तर में है तथा बरेठ रेलवे स्टेशन से 3 मील व बासौदा से आठ मील की दूरी पर है। यह स्थान यहां स्थित उदयेश्वर मंदिर के लिए जाना जाता है, मंदिर में स्थित शिवलिंग को नीलकंठेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है।
यहां से प्राप्त शिलालेखों से विदित होता है कि उदयपुर (विदिशा) को राजा भोज के पुत्र परमार राजा उदयादित्य ने बसाया था और उसी ने उदयेश्वर महादेव का मंदिर तवा उदय-समुद्र तालाब भी बनवाया था। उदयेश्वर अथवा नीलकंठेश्वर मंदिर का प्रारम्भ संवत् 1116 में हुआ था तथा संवत् 1137 में पूर्ण होने पर उसके गगनचुंबी शिखर पर ध्वजारोहण किया गया था।
उदयेश्वर नीलकंठेश्वर मंदिर का इतिहास
उपर्युक्त तीन निर्मितियों के विषय में एक अनुश्रुति प्रसिद्ध है। एक बार राजा उदयादित्य ने आखेट के समय एक सर्प को जंगल में प्रज्वलित अग्नि के मध्य बेचैन अवस्था में पाकर उसे एक बांस की सहायता से बाहर निकाला। अग्नि के ताप से मूर्छित सर्प ने पानी मांगा, किन्तु वहां पानी न मिल सकने पर उसने राजा के मुख में अपना शीर्ष रखने की आज्ञा मांगी। राजा ने सर्प से वचन लेकर कि वह उसके अंदर में प्रवेश नहीं करेगा, सर्प को अपने मुंह में रखने की आज्ञा दे दी। तुरंत ही सर्प अंदर में प्रवेश कर गया। इस व्यथापूर्ण अवस्था में राजा ने काशी जाकर प्राण त्यागने का निश्चय किया। मार्ग में उसने वर्तमान उदयपुर (विदिशा) में जहां उस समय दो चार झोपड़े ही थे, विश्वाम हेतु पहाड़ी के सुगम ढलान पर अपना खेमा लगाया। रात्रि में जब उसकी रानी राजा के लिए विजन डुला रही थी, उसने निकटवर्ती वृक्ष के नीचे विशाल निधि की रक्षा करने वाले सर्प तथा राजा के उदरस्थ सर्प का वार्तालाप सुना। दोनों सर्पो ने अनायास ही एक दूसरे को सहजता से मारे डाले जाने के उपाय कह डाले वृक्ष के नीचे रहने वाले सर्प को गरम तेल डालकर मारा जा सकता था, तथा पेट के सर्प को काली मिर्ची, नमक तथा छाछ द्वारा नष्ट किया जा सकता था। राजा के जागने पर रानी इस उपर्युक्त विधि से तैयार किया छाछ पिला दी और सर्प के टुकड़े बाहर जा गये। तदुपरान्त निधि को प्राप्त करने के लिये दूसरे सर्प के छिद्र में गरम तेल डालकर मार डाला गया। इस प्रकार राजा स्वस्थ ही नहीं हुआ अपितु अपार धनराशि भी उसके हाथ लगी। इसी धनराशि से उसने उदयपुर (विदिशा) नगर को बसाया और तालाब तथा उदयेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया।
उदयेश्वर नीलकंठेश्वर मंदिर का निर्माण किसने करवाया
उदयेश्वर के मंदिर के चारों ओर एक दीवार है, जिसका बाह्य भाग अलंकृत था तथा भीतरी दीवारों के चारों ओर बैठने के लिये पीठ का आयोजन है। सम्भवत: इसमें चार द्वार थे, किन्तु अब केवल प्रमुख द्वार ही खुला है, शेष बन्द हैं। प्रत्येक द्वार के दोनों ओर द्वारपाल चित्रित हैं। दीवार के भीतर विशाल वर्गाकार प्रांगण में, इस मंदिर के अतिरिक्त उसके प्रत्येक कोने में एक छोटा मंदिर था। इस प्रकार पंचायतन शैली का यह मंदिर कहा जा सकता है। प्रत्येक दिशा में एक-एक वेदी अथवा मण्डप भी है जिस पर वेदपाठ किया जाता था। उत्तर पश्चिमी कोने का छोटा मंदिर तथा पश्चिम की वेदी मुहम्मद तुगलक के समय नष्ट कर दी गई थी। उनके स्थान पर एक मस्जिद बनाई गई थी, जैसा कि हिजरी सन् 737 तथा 739 के दो अभिलेखों से प्रकट है। मंदिर के प्रमुख द्वार के सम्मुख जो पूर्व दिशा में है, निर्मित वेदी की छत, उदयेश्वर मंदिर की छत के सदृश ही है तथा अलंकृत स्तम्भ दर्शनीय हैं। सम्भव है इस वेदी पर नंदी प्रतिष्ठित रहा हो।
उदयेश्वर नीलकंठेश्वर मंदिरप्रमुख द्वार के अतिरिक्त उदयेश्वर मंदिर में अन्य तीन द्वार भी हैं जिनके लिये सीढ़ियों का आयोजन है। मंदिर में प्रवेश करते ही विशाल स्तम्भों का एक सभा मण्डप मिलता है, जिसमें तीन प्रवेश-मंडप है । गर्भगृह में एक विशाल शिवलिंग ऊंची वेदी पर प्रतिष्ठापित है तथा एक देवी प्रतिमा है जो बहुत बाद की है। शिवलिंग पर पीतल की चद्दर चढ़ा दी गई है, जिसमें मुखाकृति भी उभार दी गई है। वि० सं० 1841 के एक लेख के अनुसार महादाजी सिंधिया के सेनापति खाण्डेराव अप्पाजी ने यह चद्दर समर्पित की थी। गर्भगृह का द्वार समकालीन मंदिर स्थापत्य के अनुसार ही सुसज्जित है। मण्डप के प्रतिष्ठापित नंदी आधुनिक प्रतीत होता है।
प्रवेश द्वारों के स्तम्भों तथा आसनों पर ऐतिहासिक महत्व के अनेक अभिलेख हैं, जिनमें कुछ यात्रियों के उल्लेख भी है। गर्भगृह के ऊपर विशाल सुसज्जित अद्वितीय शिखर है जिसके चारों ओर अनेक शिखरों के लघु रूप उसकी भव्यता को द्विगुणित करते हैं।
उदयेश्वर मंदिर का बाह्य भाग अनेक मूर्तियों से शोभित है, जिसमें हिन्दू धर्म के विभिन्न देवी-देवता है। ब्रह्मा, विष्णु, गणेश, कार्तिक्रेय अष्टदिकपालों तथा शिव-पार्वती की मूर्तियां है। यह मंदिर भगवान शिव को अर्पित है, अतः यहां पर शिव-दुर्गा आदि की प्रतिमाओं का आधिक्य है। शिखर के ऊपरी भाग में एक व्यक्ति की प्रतिमा है, जिसे इस मंदिर का स्थपति बताया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इतने भव्य मंदिर के निर्माण से अर्जित पुण्य से उसे स्वर्गारोहण का अवसर प्राप्त हुआ है । सभामण्डप तथा प्रवेश मण्डपों पर भी यथोचित समाधि स्तम्भीय (सूची-स्तम्भीय) छते है।
आर्य शैली के शिखर मंदिरों में उदयपुर का परिष्कृत उदयेश्वर मंदिर अपना विशिष्ट स्थान रखता है। इसमें प्रयुक्त लाल पत्थर से इसकी सुंदरता निखर उठती है। मंदिर के भीतर के कुछ स्तम्भ स्वेत पत्थर के बने है। भीतरी छत में उत्कीर्ण डिजाइनें, कतिपय मिथुन मूर्तियां, पुष्प वल्लरी आदि भी समकालीन युग की विशेषताओं के प्रमाण हैं।
उदयेश्वर नीलकंठेश्वर मंदिर के आसपास के अन्य स्मारकों में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं
घड़ियालन का मकान या बीजामंडल उदयेश्वर
यह प्राचीन दो खण्ड का स्मारक है, जो उदयेश्वर मंदिर का समकालीन था। सम्भवतः मंदिर का घण्टा बजाने अथवा अन्य किसी प्रकार की सूचना देने वालों के लिये इसका निर्माण किया गया था। इसमें संस्कृत का एक अभिलेख है, जो सूर्य स्तुति से प्रारम्भ होता है।
बारा-खम्भी
नगर के बाहरी छोर पर ग्यारहवी शताब्दी का एक मण्डप है जिसमें केवल 9 स्तम्भ-हैं। यह एक मंदिर का अवशेष है जिसका गर्भगृह विनष्ट हुआ प्रतीत होता है। मण्डप के चारों ओर बैठने के लिये पीठ तथा ऊपर छाया के लिये छत भी है।
पिसनारी का मंदिर
गाँव के एक कोने में यह मंदिर है। कहा जाता है कि किसी बुढ़िया ने अनाज पीसकर जो धन एकत्रित किया था, उससे इसका निर्माण कराया। यह मंदिर उदयेश्वर मंदिर के बहुत बाद निर्मित किया गया था।
शाही मस्जिद और महल
उदयेश्वर मंदिर के पूर्व में लगभग एक फर्लाग की दूरी पर इस मस्जिद के भग्नावशेष हैं। इसमें एक फारसी का लेख है, जिसमें जहांगीर के समय इसके निर्माण का प्रारम्भ तथा शाहज़हां के शासनकाल में हिजरी 1041 (1632 ई०) इसके पूर्ण होने का उल्लेख है। इसके पास में एक महल के अवशेष हैं, जो संभवत: किसी मुगल कालीन राज्यपाल का निवास रहा होगा। यह स्मारक प्रारम्भिक काल में निर्मित किया गया था, जैसा कि उसकी अक्षत्रिम तथा परिष्कृत शैली से स्पष्ट है। इसमें किया गया जाली का काम प्रशंसनीय है। इस महल के सम्मुख एक चबूतरे पर कुछ समाधियां हैं जो इसी महल से सम्बद्ध है।
शेरखाँ की मस्जिद
नगर के परकोटे के अनेक द्वारों में से, पूर्वी द्वार का नाम मोती
दरवाजा है, जिसके बाहर एक छोटी मस्जिद तथा समाधियों के अवशेष एक बड़े चबूतरें पर हैं। मांडू स्थापत्य शैली में निर्मित इस मस्जिद में लाल बलुआ पत्थर प्रयुक्त हुआ है। यहां से प्राप्त फारसी तथा संस्कृत के लेखों से ज्ञात होता है कि माण्डू सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी के प्रतिनिधि शेरखाँ ने हिजरी 894 में इसका निर्माण कराया था।
घुड़दौड़ की बावड़ी
मस्जिद के कुछ पूर्व में एक विशाल बावड़ी है, जिसमें संवत्
1701 का एक शिलालेख उत्कीर्ण हैं। बावड़ी से संबंधित मैदान संभवत: घुड़दौड़ के लिए था। बावड़ी की सीढ़ियों से स्पष्ट है कि घोड़े बड़ी सहजता से उसमें पानी पीने के लिये उतर सकते थे। उदयपुर के निकट कुछ शैल्यकृत मूर्तियां हैं, जिसमें शिव की एक अपूर्ण प्रतिमा रावणतोर नामक स्थान में है। निकटवर्ती पहाड़ी में सप्तमातृकाओं का भी एक फलक है।
ग्यारसपुर
विदिशा से उत्तर पूर्व 35 किलोमीटर, विदिशा-सागर मार्ग पर
ग्यारसपुर स्थित है। गुलाबगंज रेलवे स्टेशन से यह स्थान 23 कि० मी० दूर हैं। लगभग 8 से 10 वीं शताब्दी में यह एक महत्वपूर्ण नगर था, जैसा यहां के गौरवशाली भग्नावशेषों से ज्ञात होता है। यहां पर बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण धर्म के अनेक अवशेष हैं।
अठखम्भा
ग्यारसपुर के पश्चिम में विश्वाम-गृह के सामने अत्यन्त अलंकृत यह
आठ स्तम्भ एक प्राचीन भव्य मन्दिर के अवशेष हैं, जिसका गर्भगृह, अंतराल आदि विनष्ट हो चुके हैं। इसके चार स्तंभ सभा मण्डप, अंतराल तथा दो अर्ध स्तम्भ है। एक स्तम्भ पर संवत् 1039 का एक लेख है, जिसमें एक तीर्थयात्री का उल्लेख है। इसके निर्माण की पूर्वतम तिथि 900 ई० अनुमानी गई है।
ब्रजमठ
अनोखे प्रकार का यह मन्दिर गाँव के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है जिसमें तीन कोष्ठ एक ही पंक्ति में हैं। मध्यस्थ कोष्ठ 7 फुट 2 इंच लंबा है तथा अन्य दो उससे एक फुट कम लम्बाई के हैं। इसके सम्मुख 16 स्तम्भों का एक मण्डप था, जिसकी प्रत्येक दिशा में एक बालकनी तया पूर्व में सीढ़ियाँ थीं। आदि रूप में यह एक ब्राह्मण धर्म का मन्दिर रहा होगा, जैसा कि इसके आलों में रखती अनेक मूर्तियों से स्पष्ट होता है, किन्तु कर्निघम ने इस तीतों कोष्ठों में जैन मूर्तियाँ देखी थीं। उत्तर में शिव तथा गणेश, पृष्ठभाग में शिव, चतुर्भूज विष्णु, वामन तथा वराह अवतार तथा दक्षिण में नृसिंह अवतार व दुर्गा हैं। कोष्ठों के द्वारों पर ब्रह्मा, विष्णु तथा मध्यस्थ सूर्य हैं। सम्भवतः मुसलमानों द्वारा इसके विध्वंस कर दिये जाने के पश्चात जैन मतावलम्बियों ने मालादेवी के मन्दिर से मूर्तियां लाकर यहां प्रतिष्ठापित की थीं। मध्यस्थ कोष्ठ पर आमलक युक्त शिखर है। अन्य दोनों की छत अर्ध पिरामिड शैली में निर्मित मध्यस्थ शिखर से मिल जाती है। सम्पूर्ण स्मारक केवल 31 फुट वर्ग का है किन्तु देखने में माप से अधिक बड़ी प्रतीत होती है। यह लगभग 10वीं शताब्दी में निर्मित किया गया था।
हिंडोला तोरण
यह एक अलंकृत तोरण द्वार है, जो किसी ब्राह्मणवादी मंदिर
का अवशेष भाग है। दोनों स्तम्भों को मिलाने वाली चौखट भारतीय झूले के सदृश प्रतीत होती है, इसीलिये इसे हिंडोला तोरण कहते हैं। तोरण स्तम्भों के चारों भाग अलंकृत हैं जिनके नीचे के खण्डों में विष्णु के दशावतारों का चित्रण है। निकटवर्ती चार स्तम्भों की बंधनी पर सिंह तथा हाथी के शीर्ष हैं। यह चारों स्तम्भ तथा तोरण द्वार एक ही मंदिर के भाग हैं।
मालादेवी मन्दिर
एक पहाड़ी के ढलान पर जहां से लहलहाते खेतों भरी एक विशाल घाटी का मनोहारी दृश्य दर्शनीय है, ग्यारसपुर का सर्वश्रेष्ठ यह मन्दिर स्थित है। इस पहाड़ी के चरणों में बसे हुये गाँव से ऊपर चढ़ने व पहाड़ी को पार करने वाले दर्शक की सारी थकान इस रमणीक स्थल पर पहुंचते ही, शीतल समीर के साथ घाटी के किसी अज्ञात कोने में विलीन हो जाती है। धर्मोपासना में रत उपासक के लिये इससे अधिक उपयुक्त स्थान अन्य क्या हो सकता है।
यह भव्य व विशाल मंदिर एक ऊंचे चबूतरे पर बना है जिसे एक धारक दीवार से दृढ़ किया गया है । इसमें मुख मण्डप, सभामंडप तथा गर्भग्रह है, जिसके चारों ओर प्रदक्षिणापथ है। सभा मंडप के ऊपर उत्तुंग शिखर है। इसके द्वार चौखट के ऊपर बनी मूर्तियों से विदित होता है कि यह मंदिर भी मूल रूप मे किसी हिन्दू देवी की उपासना हेतु निर्मित हुआ था, जो कालान्तर में ब्रजमठ मंदिर के समान जैन मतावलम्बियों ने अधिकृत कर लिया था।
ग्यारसपुर के उत्तर में लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर एक पहाड़ी के ढाल पर बौद्ध स्तूपों के भग्नावशेष है, जिनमें एक स्तूप कुछ सुरक्षित अवस्था में है। ग्यारसपुर से विभिन्न धर्मों की प्रतिमायें अभी तक मालादेवी मंदिर के अहाते में रखी हुई हैं। ग्वालियर तथा सांची संग्रहालयों में भी कुछ महत्वपूर्ण मूर्तियां संरक्षित हैं। मानसरोवर तालाब तथा गढ़ी 17वीं शताब्दी में गोंड सरदार मानसिंह के द्वारा निर्मित कही गई है, किन्तु मुसलमानों ने गढ़ी का विस्तार किया था। अठखम्भे के निकट ईसाइयों की एक समाधि है, जिसमें सार्जेंट मेजर जानस्वो का एक अक्टूबर, 1837 में निधन का उल्लेख है। यह भी दर्शनीय है।
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