इस पुण्य भूमि भारत के इतिहास में मेवाड़ के गौरवशाली उदयपुर राज्य के राजवंश का नाम बड़ें अभिमान के साथ लिया जाता है। इस गौरवशाली राजवंश में ऐसे अनेक प्रतापशाली नृपति हुए हैं, जिन्होंने अपने अपूर्व वीरत्व, अलौकिक स्वार्थ त्याग और अद्वितीय आत्मासम्मान के कारण मानव-जाति के इतिहास को प्रकाशमान किया है। संसार भर में उदयपुर राज्य यही एक ऐसा राजवंश है जो सन् 568 से लगाकर आजादी तक अनेक परिवतनों और तूफानों को सहता हुआ एक ही प्रदेश पर राज्य करता चला आ रहा था। जिस समय परम प्रतापी महाराज हर्ष कन्नौज की राज्य-गद्दी पर विराजमान थे, उस समय उदयपुर राज्य यानि मेवाड़ का शासन-सूत्र शिलादित्य संचालित करते थे। महाराज हर्ष का विशाल साम्राज्य तो उनकी मृत्यु के साथ साथ ही नष्ट हो गया पर शिलादित्य के वंशज अब भी मेवाड़ पर राज्य कर रहे थे। सुप्रख्यात फारसी इतिहास-वेत्ता फ़रिश्ता लिखता है “ उज्जैन- वाले महाराज विक्रमादित्य के पीछे राजपूत जाति का उत्थान और अभ्युद्य हुआ। मुसलमानों के हिन्दुस्तान में आने के पहले यहाँ पर बहुत से स्वतंत्र राजा थे, परन्तु सुल्तान महमूद गज़नवी तथा उनके वंशजों ने उनमें से बहुतों को अपने अधीन किया। इसके पश्चात् शहाबुद्दीन गौरी नेअजमेर ओरदिल्ली के राजाओं पर विजय प्राप्त की। बाकी रहे सहे को तैमूर के वंशजों ने अधीन किया। यहाँ तक कि विक्रमादित्य के समय से जहाँगीर बादशाह के समय तक कोई प्राचीन राज्यवंश न रहा। केवल उदयपुर के राणा ही एक ऐसे राजा हैं जो मुसलमान धर्म की उत्पत्ति के पहले भी विद्यमान थे, और आखिर तक राज्य करते रहे हैं।” इसी प्रकार कई अन्य मुसलमान और अंग्रेज इतिहास लेखकों ने महाराणा के वंश की प्राचीनता और गौरव को सुकंठ से स्वीकार किया है। सम्राट बाबर अपनी दिनचर्या की पुस्तक “तुजूके-बाबरी” में लिखते है- हिन्दुओं में विजयनगर के सिवाय दूसरा प्रबल राजा राणा सांगा है जो अपनी वीरता तथा तलवार के बल से शक्तिशाली हो गया है। उसने मांडू के बहुत से इलाके, रणथम्भौर, सारंगपुर, भेलसा और चन्देरी ले लिये हैं।” आगे चल कर फिर वह लिखता है- “हमारे हिन्दुस्तान में आने के पहले राणा सांगा की शक्ति इतनी बढ़ गई थी कि दिल्ली गुजरात और मांडू के सुलतानों में से एक भी बड़ा सुलतान बिना हिन्दू राजाओं की सहायता के उनका मुकाबला नहीं कर सकता था। मेरे साथ की लड़ाई में बड़े बड़े राजा और रईस राणा सांगा की अध्यक्षता में लड़ने के लिये आये थे। मुसलमानों के अधीन देशों में भी 200 शहरों में राणा का झंठा फहराता था जहाँ मस्जिदें तथा मकबरे बर्बाद हो गये थे ओर मुसलसानों की औरतें तथा बाल-बच्चे कैद कर लिये गये थे।उसके अधीन 100000000 रू० की वार्षिक आमदनी का मुल्क है, जिसमें हिन्दुस्तान के कायदे के अनुसार 100000 सवार रह सकते हैं।”
उदयपुर राज्य का इतिहास – History of Udaipur State
सम्राट् जहाँगीर ने अपनी “तुजूके-जहांगीरी” में लिखा है-“राणा
अमरसिंह हिन्दुस्तान के सब से बड़े सरदारों तथा राजाओं में से एक हैं। उनकी तथा उनके पूर्वजों की श्रेष्ठता तथा अध्यक्षता इस प्रदेश के सब राजा और रईस स्वीकार करते हैं। बहुत समय तक उनके वंश का राज्य पूर्व में रहा। उस समय उनकी पदवी ‘राजा’ थी। फिर वे दक्षिण में आये और वहाँ के कटे प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया तथा वे रावल कहलाने लगे। वहाँ से उदयपुर के पहाड़ी प्रदेश की ओर बढ़ते हुए शनै: शनै: उन्होंनेचित्तौड़ का किला ले लिया। उस समय से मेरे इस आठवें जुलूस तक 1471 वर्ष बीते। इतने दीर्घकाल में उन्होंने हिन्दुस्तान के किसी नरेश के आगे अपना सिर नहीं भुकाया और बहुधा लड़ाइयां लड़ते ही रहे। मेवाड़ के राणा सांगा ने इधर के सब राजाओं, रईसों तथा सरदारों को लेकर 180000 सवार तथा कई पैदल सेना सहितबयाना के पास बाबर बादशाह के साथ युद्ध किया था।
फ़ारसी के सुप्रसिद्ध इतिहास ‘विसातुलरानाइम’ में लिखा है “यह
तो भलीभाँति प्रसिद्ध है कि उदयपुर राज्य के राजा हिन्द के तमाम राजाओं में सर्वोपरि हैं और दूसरे हिन्दू राजा अपने पूर्वजों की गद्दी पर बैठने के पूर्व उदयपुर राज्य के राजा से राज-तिलक करवाते हैं ।” कर्नल टॉड न अपने सुप्रख्यात राजस्थान में लिखा है “उदयपुर के राजा सूर्यवंशी हैं और वे राणा तथा रघुवंशी कहलाते हैं। हिन्दू जाति एकमत होकर मेवाड़ के राजाओं को राम की गद्दी का वारिस मानती है और उन्हें ‘हिन्दुओ सूरज’ कहती है। राणा 36 राजवंशोंमें सर्वोपरि माने जाते हैं।” इस प्रकार समय समय के विविध इतिहास-वेत्ताओं ने उदयपुर के राजवंश के अपूर्व गौरव की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। अब हम इस गौरवशाली राजवंश के इतिहास की ओर चलते हैं।
उदयपुर राज्य का प्राचीन इतिहास
कई हज़ार वर्ष पहलेअयोध्या में भगवान रामचन्द्र हुए जिनकी
कीर्तिध्वजा आज हिन्दुस्तान में इस छोर से उस छोर तक फहरा रही है, और जो करोड़ों हिन्दुओं के द्वारा अवतार के रूप में पूजे जाते हैं। उन्हीं भगवान रामचन्द्र के ज्येष्ठ पुत्र कुश के वंश के अन्तिम राजा सुमित्र तक की नामावली पुराणों में दी गई है। इन्हीं सुमित्र के वंश में सन् 568 के लगभग मेवाड़ में गुहिल नामक के प्रतापी राजा हुए जिनके नाम से उनका वंश गुहिलवंश कहलाया। संस्कृत शिलालेखों तथा पुस्तकों में इस वंश का नाम गुहिल, गुहिलपुत्र, गोकिलपुत्र, गुहिलोत या गौहल्य मिलते हैं और भाषा में गुहिल, गोहिल गहलोत और गैलोत प्रसिद्ध हैं। महाराज गुहिल के समय के लगभग दो हजार से अधिक चाँदी के सिक्के आगरा के आसपास गड़े हुए मिले जिन पर “श्रीगुहिल की लिखा है। इन सिक्कों से यह सूचित होता है कि गुहिल एक स्वतंत्र राजा थे। जयपुर-राज्य के चाटसू नामक प्राचीन स्थान से विक्रम संवत् 1100 के आसपास का गुहिलवंशियों का एक शिला-लेख मिला है, जिसमें गुहिलवंशी राजा भर्तृभट्ट प्रथम से बालादित्य तक के 12 राजाओं के नाम दिये हैं। वे चाटसू के आसपास के इलाके पर जो ‘आगरा के प्रदेश के निकट था, राज्य करते थे आगरा के आसपास एक साथ 2000 सिक्कों के पाये जाने से मि० कालोइल ने यह अनुमान किया कि वहां पर उस समय शायद गुहिल का राज्य रहा हो। चाटसू के शिलालेख से भी यह सिद्ध होता है कि उनका राज्य उदयपुर से बहुत दूर दूर तक फैला हुआ था । गुहिल के इन सिक्कों से सुप्रख्यात् पुरातत्वविद रायबहादुर पं० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा अनुमान करते हैं कि गुहिल के पहले से भी शायद इस वंश का राज्य चला आया हो। इसका कोई हाल अब तक हमको निश्चय के साथ नहीं मिला। संभव है समय पाकर पिछले लेखकों ने गुहिल के प्रतापी होने से ही उनकी वंशावली लिखी हो।
उदयपुर राज्य का इतिहासगुहिल के बाद क्रम से भोज, महेन्द्र और नाग नाम के राजा हुए,
जिनका कोई स्पष्ट वृत्तान्त उपलब्ध नहीं है। राजा नाग के बाद राजा शिलादित्य हुए जिनके समय का वि० सं० 703 का एक शिलालेख मिला है। इस शिलालेख में उस राजा को शत्रुओं को जीतने वाला देव, द्विज और गुरुजनों को आनन्द देने वाला और अपने कुल रूपी आकाश के लिये चन्द्रमा के समान बतलाया है। उक्त लेख से यह भी पाया जाता है कि उसके राज्य में शान्ति थी जिससे बाहर के महाजन आकर यहां आबाद होते थे ओर इसी से लोग घन धान्य सम्पन्न थे। महाराज शिलादित्य के बाद महाराज अपराजित हुए। ये बड़े प्रतापी थे। इनका वि० सं० 718 का एक शिलालेख नागदा ( मेवाड़ ) के निकट के कुन्डेश्वर के मंदिर में मिला है, जिसमें लिखा है “अपराजित ने दुष्टों को नष्ट किया। राजा लोग उन्हें सिर से वन्दन करते थे और उन्होंने महाराज बराहसिंह को (जो शिव का पुत्र था, जिसकी शक्ति को कोई तोड़ नहीं सकता था और जिसने भयंकर शत्रुओं को परास्त किया था ) अपना सेनापति बनाया था। महाराज अपराजित के बाद राजा महेन्द्र हुए, जिनका विशेष उल्लेख नहीं मिलता है।
बप्पा रावल
राजा महेन्द्र के बाद उनके पुत्र कालभोज, (बप्पा रावल का मूल नाम) जो बप्पा रावल के नाम से प्रसिद्ध हैं, राज्यासीन हुए। यह बड़े प्रतापी और पराक्रमी थे। इनके सोने के सिक्के चलते थे।अनेक संस्कृत शिलालेखों तथा पुस्तकों में बप, बैप्पक’ बप्प’ बप्पक’ बाप! बप्पाक’ बापा’ आदि मिलते हैं। बप्पा रावल के समय का जो स्वर्ण-सिक्का मिला है उससे एक ऐतिहासिक रहस्य का उद्घाटन होता है। उदयपुर राज्य के राज्यवंश की मूल जाति के विषय में जो अनेक तरह के भ्रम फैले हुए हैं, उनसे इनका निराकरण होता है। इस सिक्के में, जो कि सुप्रख्यात् पुरातत्वविद राय बहादुर पं० गौरीशंकरजी ओझा को अजमेर के किसी महाजन की दुकान से प्राप्त हुआ है, एक ओर चँँवर, दूसरी ओर छत्र और बीच में सूर्य का चिन्ह है। इससे यह पाया जाता है कि बप्पा रावल सूर्यवंशी थे। इन बप्पा रावल ने चित्तौड़ के मोरी (मौर्य वंशीय ) राजा से चितौड़ का किला विजय किया था। इन्होंने अपने राज्य का विस्तार दूर दूर तक फैलाया था । दंत-कथाओं में तो यहां तक उल्लेख है कि उन्होंने ठेठ ईरान तक धावा मारा था और वहीं उनका देहान्त हुआ। बप्पा रावल बड़े प्रतापी थे। वे हिन्दू-सूर्य’ “चक्रवर्ती आदि उच्च उपाधियों से विभूषित थे। इनके सम्बन्ध की अनेक दन्त-कथाएँ प्रचलित हैं।
बप्पा रावल प्रतिमाइन दन्त-कथाओं में बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनमें अतिशयोक्ति का अधिक अंश हैं। इस दन्त-कथाओं में बप्पा रावल के बारे वर्णन इस प्रकार मिलता है कि बप्पा रावल का देवी के बलिदान के समय एक ही झटके से दो भैसों का सिर उड़ाना, बारह लाख बहत्तर हज़ार सेना रखना, पैंतीस हाथ की धोती और सोलह हाथ का दुपट्टा धारण करना, बत्तीस मन का खड़ग रखना, वृद्धावस्था में खुरासान आदि देशों को जीतना, वहीं रहकर वहाँ की अनेक स्त्रियों से विवाह करना, वहाँ उनके अनेक पुत्रों का होना, वहीं मरना, मरने पर उनकी अन्तिम क्रिया के लिये हिन्दूओं और वहाँ वालों में झगड़ा होना और अन्त में कबीर की तरह शव की जगह फूल ही रह जाना आदि आदि लिखा हुआ मिलता है। हम ऊपर कह चुके हैं कि इन दन्त-कथाओं में अतिशयोक्ति होने की वजह से ये पूर्णरूप से विश्वास करने योग्य नहीं हैं। पर इनसे यह निष्कर्ष तो अवश्य निकलता है कि बप्पा रावल महान पराक्रमी, महावीर और एक अदभुत योद्धा थे। उन्होंने बाहुबल से बड़े बड़े काम किये। अगर दन्त-कथाओं पर विश्वास किया जाबे तो यह भी मानना पड़ेगा कि उन्होंने ठेठ ईरान तक पर चढ़ाई की ओर वहीं वे वीरगति को प्राप्त हुए। काफी समय पहले लंदन के एक प्रख्यात मासिक पत्र में किसी युरोपीय सज्जन का एक लेख प्रकाशित हुआ था। उसमें लेखक ने यह दिख लाया था कि इरान के एक प्रान्त में अब भी मेवाड़ी भाषा बोली जाती है। अगर यह बात सच है तो निसन्देह मानना ही पड़ेगा कि बप्पा रावल ने एक न एक दिन ठेठ ईरान तक पर अपना विजयी झंडा उड़ाया था। पर इस सम्बन्ध में अन्तिम निर्णय पर पहुँचने के लिये खोज की आवश्यकता है।
बप्पा रावल का समय
बप्पा रावल का ठीक समय कौन सा था? इसका निर्णय करना बड़ा कठिन है; क्योंकि बप्पा रावल के राजस्व-काल का कोई शिलालेख या दानपत्र अब तक उपलब्ध नहीं हुआ। अतएव अन्य साधनों से उसका निर्णय करना आवश्यक है। विक्रम संवत् 1028 की राजा नरवाहन के समय की एक प्रशस्ति में बप्पा रावल का जिक्र आया है। इससे यह तो स्पष्ट हो गया कि बप्पा रावल उक्त काल के पहले हुए। मेवाड़ के सुप्रख्यात वीर और विद्वान महाराणा कुंभा ने उस समय मिली हुई प्राचीन प्रशस्तियों के आधार पर कन्हव्यास॒ की सहायता द्वारा “एकलिंग माहात्म्य” बनवाया था। इसमें कितने ही राजाओं के वर्णन में तो पहले की प्रशस्तियों के कुछ श्लोक ज्यों के त्यों धरे हैं और बाकी के नये बनवाये हैं। कहीं कहीं तो ‘“यदुक्त पुरातने: कविभि:” (जैसा कि पुराने कवियों ने कहा है ) लिख कर उन श्लोकों की प्रामाणिकता खिलाई है। जान पड़ता है कि महाराणा कुम्भा को किसी प्राचीन पुस्तक से बप्पा रावल का समय ज्ञात हो गया था। परंतु इससे यह निश्चित नहीं होता कि उक्त संवत में वे गद्दी नशीन हुए या उन्होंने राज्य छोड़ा या उनकी मृत्यु हुई। महाराणा कुम्भा के दूसरे पुत्र रायमलजी के राज्य-काल में ‘एकलिंग माहात्म्य’ नाम की दूसरी पुस्तक बनी जिसको ‘एकलिंग पुराण’ भी कहते हैं। एकलिंग पुराण में बापा के समय के विषय में लिखा है। जिससे पाया जाता है कि वि०सं० 810 में बप्पा रावल ने अपने पुत्र को राज्य देकर संन्यास धारण किया। बीकानेर दरबार के पुस्तकालय में फुटकर बातों के संग्रह की एक पुस्तक है, जिसमें मुहता नैणसी की ख्याति का एक साग भी है। इसमें बप्पा रावल से लगाकर राणा प्रताप तक की वंशाववली है, जिसमें बप्पा का वि० सं० 820 में होना लिखा है। राजपूताने के इतिहास के सर्वोपरि विद्वान रा० ब० पंडित गौरीशंकर जी ओझा ने बड़ी खोज के बाद बप्पा रावल का राज्यकाल वि० सं० 791 से 810 तक माना है।
बप्पा रावल किस वंश के थे ?
बप्पा रावल के वंश के सम्बन्ध में भी यहाँ दो शब्द लिखना अनुचित ने होगा। अजमेर में र० ब० ओझा जी को बप्पा के समय का जो सोने का सिक्का मिला है, उससे उनका सूर्यवंशी होना स्पष्टतया सूचित होता है। एकलिंग के मंदिर के निकट के लकुलीश के मंदिर में एक प्रशस्ति है। यह प्रशस्ति वि० सं० 1028 की राजा नरवाहन के समय की है। उससे भी इनका सूर्यवंशी होना सिद्ध होता है। मुहता नेणसी ने भी मेवाड़ के राज्यवंश को सूर्यवंशी माना है। जोधपुर राज्य के मारलोई गाँव के जेन मंदिर के शिलालेख में गुहिदत्त, बप्पाक ( बप्पा ) खुमाण आदि राजाओं को सूर्यवंशी कहा है।
बप्पा रावल के बाद
बप्पा रावल के बाद उनके पुत्र खुमाण ईस्वी सन् 811 में उदयपुर राज्य- सिंहासन पर बैठे। टॉड साहब ने लिखा है कि खुमाण पर काबुल के मुसलमानों ने चढ़ाई की थी, पर इन्होंने उन्हें मार भगाया, और उनके सरदार मोहम्मद को कैद कर लिया। आपके बाद क्रम से मत्तट, भर्तृभट्ट, सिंह, खुमाण (दूसरा) सहायक, खुमाण (तीसरा) भर्तृभट्ट (दूसरा) आदि राजा सिंहासनारूढ़ हुए। इनके समय का विशेष इतिहास उपलब्ध नहीं है। भर्तृभट्ट (दूसरे) के बाद अल्लट राज्य- सिंहासन पर बेठे। इनके समय का इ० सन् 971,का एक शिलालेख मिला है। इनकी रानी हरियादेवी हूण राजा की पुत्री थी । अल्लट के पश्चात् नरवाहन राज्य-सिंहासन पर बैठे। इनके समय का वि० सं० 1010 का एक शिलालेख मिला है। इनका विवाह चौहान राजा जेजय की पुत्री से हुआ था। इनके बाद शालिवाहन, शक्तिकुमार, अंबाप्रसाद, शुचिवर्मा, कीर्तिवर्मा, योगराज, वैरट, हंसपाल और वेरिसिह हुए। दुःख है कि इनका इतिहास अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ। वेरिसिंह के बाद विजय सिंह हुए। इनका विवाह मालवा के प्रसिद्ध परमार राजा उदय दित्य की पुत्री श्यामलदेवी से हुआ था। इनको आल्हणदेवी नामक कन्या उत्पन्न हुई थी, जिसका विवाह चेदी देश के हैहयवंशी राजा गयकर्णदेव से हुआ था। राजा विजय सिंह के समय का वि० सं० 1164 का एक ताम्रपत्र मिला है। विजय सिंह के बाद क्रम से अरिसिंह, चौड़सिंह, विक्रमसिंह आदि नृपतिगण हुए। इनके समय में कोई विशेष उल्लेखनीय घटना नहीं हुई। विक्रमसिंह के बाद रणसिंह हुए। इनसे दो शाखाएँ निकलीं। एक रावल शाखा और दूसरी राणा शाखा। इनके बाद क्षेमसिंह, सामन्त सिंह, कुमार सिंह, मंथनसिंह, पदमसिंह आदि नृपति हुए। इनके समय का इतिहास अभी उपलब्ध नहीं है। पदमसिंह के बाद चित्तौड़ के राज्य- सिंहासन पर एक महान पराक्रमी नृपति बिराजे। उनका शुभ नाम जैत्रसिंह था। टॉड साहब ने इनका उल्लेख तक नहीं किया है। भारत के सर्वमान्य इतिहास-लेखक राय बहादुर पं० गौरीशंकरजी ओमझा की ऐतिहासिक खोजों ने इस महान नृपति के पराक्रमों पर अदभुत प्रकाश डाला है।
रावल जैत्रसिंह
रावल जैत्रसिंह उदयपुर के राजा मंथनसिंह के पौत्र और पद्मसिंह के पुत्र थे। प्राचीन शिलालेखों में जैत्रसिंह के स्थान पर जयतल, जयसल, जयसिंह और जयतसिंह आदि इनके नाम भी मिलते हैं। भाटों की ख्यातों में उनका नाम जैतसी या जैतसिंह मिलता है। वे बड़े प्रतापी राजा हुए। उन्होंने अपने आस-पास के हिन्दू राजाओं तथा मुसलमानों से कई युद्ध किये। उनके समय के वि० सं० 1270 से 1309 तक के कई शिलालेख मिले हैं। उनसे पाया जाता है कि इस महान पराक्रमी नृपति ने कम से कम 40 वर्ष राज्य किया। इस प्रबल पराक्रमी राजा के गौरवशाली कार्यों का उल्लेख कई शिलालेखों में किया गया है। जैत्रसिंह के पुत्र तेजसिंह के समय के घाघसा गाँव से जो चित्तौड़ से 6 मील पर है, वि० सं० 1322 का एक शिलालेख मिला है। इसमें जैत्रसिंह के गौरव पर दो श्लोक हैं। जिनका भाव यह है– “उस (पद्मसिंह) का पुत्र जैत्रसिंह हुआ जो शत्रु राजाओं के लिये प्रलयकाल के पवन के समान था। उसके सवत्र प्रकाशित होने से किनके हृदय नहीं काँपे। गुजेर (गुजरात) मालव, तुरुष्क (देहली के मुसलमान सुलतान) और शाकंभरी के राजा (जालौर के चौहान) आदि आदि उसका मान मर्दन न कर सके।
रावल जैत्रसिंहरावल जैत्रसिंह के पौत्र रावल समरसिंह के समय का वि० सं० 1330 का एक शिलालेख उदयपुर के चिरवा गाँव में मिला है। उसमें जैत्रसिंह का गौरव इस प्रकार वर्णन किया गया है–“’मालव, गुजरात, मारव ( मारवाड़ ) तथा जांगल देश के स्वामी तथा म्लेच्छों के अधिपति (देहली के सुल्तान) भी उस राजा (जैत्रसिंह ) का मान मर्दन न कर सके”। इसी प्रकार रावल समरसिंह के वि० सं० 1342 मार्गशीर्ष सुदी 1 के आबू के शिलालेख में लिखा है– पद्मसिंह का स्वर्गवास होने पर जैत्रसिंह ने पृथ्वी का पालन किया । उसकी भुजलक्ष्मी ने नडूल ( नाडौल ) को निर्मूल किया। तुरुष्क सैन्य ( सुल्तान की सेना ) के लिये वह अगस्त्य के समान था । सिंघुकों ( सिंधवालों ) की सेना का रुधिर पीकर मतवाली पिशाचियों के आलिंगन के आनन्द से मग्न हुए पिशाच रणक्षेत्र में अब तक श्री जैत्रसिंह के बाहुबल की प्रशंसा करते हैं ”। ऊपर उद्धृत किये हुए तीनों शिलालेखों के अवतरणों से पाया जाता है कि जैत्रसिंह तीन लड़ाइयाँ मुसलमानों से और तीन हिन्दू राजाओं से लड़े थे। अर्थात् वे देहली के सुल्तान, सिन्ध की सेना ओर जांगल के मुसलमानों से, तथा मालवा, गुजरात के शासक और जालौर के चौहानों से लड़कर विजयी हुए थे। परन्तु इन अवतरणों से यह नहीं पाया जाता कि वे लड़ाइयाँ किस किस के साथ और कब कब हुई। इसी पर यहाँ कुछ प्रकाश डालना आवश्यक है।
सुल्तान के साथ की लड़ाई
उपरोक्त शिलालेखों में रावल जैत्रसिंह का सब से पहले दिल्ली के सुल्तान के साथ युद्ध कर विजय पाना लिखा है। अब यह देखना है कि यह सुल्तान कौन था ? उदयपुर के राजाओं के शिलालेखों में जैत्रसिंह के समय उदयपुर पर चढ़ाई करने वाले सुल्तान का नाम नहीं दिया है। उसका परिचय ‘म्लेच्छा- धिनाथ’ ओर सुरत्राण (सुल्तान) आदि शब्दों से दिया है। ‘हसारी मद- मर्दन! में उसको कहीं तुरुष्क ( तुर्क ), कहीं हमीर ( अमीर सुलतान ), कहीं सुरत्राण, कहीं म्लेच्छ चक्रवर्ती और कहीं ‘मीलछीकार’ कहा है। इनमें से पहले चार नाम तो उसके पद् के सूचक हैं और अंतिम नाम उसके पहले के खिताब “अमीर शिकार! का संस्कृत शैली का रूप प्रतीत होता है। “अमीर शिकार’ का खिताब देहली के गुलाम सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपने गुलाम अलतमश को दिया था। कुतबुद्दीन ऐबक के पीछे उसका पुत्र आरामशाह देहली के तख्त पर बैठा, जिसको निकाल कर अलतमश वहाँ का सुल्तान बन बैठा और उसने शमसुद्दीन खिताब धारण कर हिजरी सन् 607 से 633 ( वि० सं० 1267 से 1293 ) तक देहली पर राज्य किया। ऊपर हम बतला चुके हैं कि जैत्रसिंह और सुलतान के बीच की लड़ाई बि० सं० 1279 और 1286 के बीच किसी वर्ष हुईं और उस समय देहली का सुल्तान शमसुद्दीन अलतमश ही था। इसलिये निश्चित है कि जैत्रसिंह ने उसी को हराया था।
कर्नल जेम्स टाड ने अपने ‘राजस्थान’ में लिखा है कि राहप ने संवत् 1257 ( सन् 1201 ) में चित्तौड़ का राज्य पाया और थोड़े ही समय के बाद उस पर शमसुद्दीन का हमला हुआ जिसको उस ( राहप ) ने नागोर के पास की लड़ाई में हराया। कर्नल टॉड ने राहप को रावल समरसिंह का पौत्र और करण का पुत्र मान कर उसका चित्तौड़ के राज्य-सिंहासन पर बैठना लिखा है। परन्तु न तो वह रावल समरसिंह का ( जिसके कई शिलालेख वि० संवत् 1330 से 1357 तक के मिले हैं ) पौत्र था, और न वह कभी चित्तौड़ का राजा हुआ। वह तो सिसोदे की जागीर का स्वामी था। वह समरसिंह से बहुत पहले हुआ था। अतएव शमसुद्दीन को हराने वाला राहप नहीं, किन्तु जैत्रसिंह था, और उस ( शमसुदीन ) के साथ की लड़ाई सागौर के पास नहीं, किन्तु नागदा के पास हुईं थी जैसा कि ऊपर चिरवा के शिलालेख से बतलाया जा चुका है।
सिंध की सेना के साथ लड़ाई
रावल समरसिंह के समय के आबू के शिलालेख में रावल जैत्रसिंह का तुरुष्क (सुलतान शमसुद्दीन अल्तमश ) की सेना को नष्ट करने के पीछे सिंधुको ( सिंध वालों ) की सेना को नष्ट करना लिखा है जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है। अब यह जानना आवश्यक है कि वह सेना किसकी थी और यह मेवाड़ की ओर कब आई थी फारसी तवारीखों से पाया जाता है कि शहाबुद्दीन गौरी का गुलाम नसिरुद्दीन कुवाच, जो कुतुबुद्दीन ऐबक का दामाद था, उस ( कुतबुद्दीन ऐबक ) के मरने पर सिंध को दबा बैठा। मुगल चंगेजखान ने खर्वाजम के सुल्तान मुहम्मद ( कुतुबुद्दीन ) पर चढ़ाई कर उसके मुल्क को बर्बाद किया। मुहम्मद के पीछे उसका बेटा जलालुद्दीन ( मंगवर्नी ) ख्वार्जिमी चंगेजखान से लड़ा और हारने पर सिंध को चला गया। उसने नसिरुद्दीन कुवाच को कच्छ की लड़ाई में हरा कर ठट्ठानगर ( देवल ) पर अपना अधिकार कर लिया, जिससे वहाँ का राय, जो सुमरा जाति का था, ओर जिसका नाम जेयसी ( जयसिंह ) था, भाग कर सिंध के एक टापू में जा रहा। जलालुद्दीन ने वहाँ के मंदिरों का तोड़ा और उनके स्थान पर मस्जिदें बनवाई। उसने हि० सन् 620 ( वि० सं० 1279 ) में ख़ासखाँ की मातहती में नहरवाले ( अनहिलवाड़ा, गुजरात की राजधानी ) पर फ़ौज भेजी, जो बड़ी लूट के साथ लौटी। सिंध से गुजरात पर चढ़ाई करने वाली सेना का मार्ग उदयपुर राज्य में होकर था, इसलिये संभव है कि जैत्रसिंह ने उस सेना को अनहिलवाड़ा जाते या वहाँ से लौटते समय परास्त किया हो।
जांगल के मुसलमानों से लड़ाई
जांगल देश की पुरानी राजधानी नागोर (अहिछत्रपुर) थी। चौहान
पृथ्वीराज के मारे जाने के बाद अजमेर, नागौर आदि पर, जहाँ पहले चौहानों का राज्य रहा, मुसलमानों का अधिकार हो गया। देहली के सुल्तान नासिरुद्वीन महमूद के वक्त में नागौर का इलाका गुलाम उलूगखाँ ( बलबन ) को जागीर में मिला था। ‘तबक़ाते नासिरी’ से पाया जाता है कि हि० स-651 ( वि० संवत् 1310 ) में उलूगखाँ अपने कुटुम्ब आदि सहित हाँसी में जा रहा था। सुल्तान के देहली में पहुँचने पर उलूगखाँ के शत्रुओं ने सुल्तान को यह सलाह दी कि हांसी का इलाक़ा तो किसी शाहज़ादे को दिया जावे और उलूग खां नागौर भेजा जावे। इस पर सुल्तान ने उसको नागोर भेज दिया। यह घटना जमादिउल-आखिर हि० स० 651 ( भाद्रपद वि० सं० 1310 ) में हुई। उलूगखां ने नागोर पहुँचने पर रणथंभौर, चित्तौड़ आदि पर फौज भेजी। तबक़ाते नासिरी में चित्तौड़ पर गई हुई फौज ने क्या किया, इस विषय में कुछ भी नहीं लिखा। इससे अनुमान होता है कि वह फौज हार कर लौट गई हो जैसा कि घाघसा तथा चिरवा के शिलालेखों से पाया जाता है कि जांगल वाले राजा, रावल जैत्रसिंह का मान-मर्दन न कर सके। उलूगखाँ की उक्त चढ़ाई के समय चित्तौड़ में राजा जैत्रसिंह का ही होना पाया जाता है।
मालवा के राजा से लड़ाई
उदयपुर से मिला हुआ बागड़ का इलाका रावल जैत्रसिंह के समय मालवा के परमार राजाओं के अधीन था और उस पर मालवा के परमारों की छोटी शाखा वाले सामंतों का अधिकार था। जैतसिंह के समय मालवे के राजा परमार देवपाल और उसका पुत्र जयतुगिदेव ( जिसको जयसिंह भी लिखा है)था। चिरवा के लेख से पाया जाता है कि राजा जेत्रसिंह ने तलारक्ष ( कोतवाल ) योगराज के चौथे पुत्र क्षेम को चित्तौड़ की तलरक्षता ( कोतवाल का स्थान, कोतवाली ) दी। उसको स्त्री हीरू से रत्न का जन्म हुआ। रत्न का छोटा भाई मदन हुआ जिसने अर्धृणा ( अर्धृणा, बाँसवाड़ा राज्य में ) के रणक्षेत्र में जैत्रसिंह के लिये लड़कर अपना बल प्रगट किया। अर्धृणा मालवा के परमारों के राज्य के अंतर्गत था और उनकी छोटी शाखा के सामन्तों की जागीर का मुख्य स्थान था। जैत्रकर्ण मालवा का परमार राजा जयतुगिदेव ( जयसिंह ) होना चाहिये जिसका उदयपुर के रावल जैत्रसिंह का समकालीन होना ऊपर बतलाया गया है। अनुमान होता है कि जैतसिंह ने अपना राज्य बढ़ाने के लिये अपने पडोसी मालवा के परमारों के राज्य पर हमला किया हो और वह जयतुगिदेव ( जयसिंह ) जैत्रकर्ण से लड़ा हो। इसी समय के आसपास बागड पर से मालवा के परमारों का अधिकार उठ जाना पाया जाता है।
गुजरात के राजा से लड़ाई
चिरवा के उक्त लेख में यह लिखा है कि नागदा के तलारक्ष (कोतवाल) योगराज के दूसरे पुत्र महेन्द्र का बेटा बालक कोट्टडक ( कोटडा ) लेने में राणक ( राणा ) त्रिभुवन के साथ की लड़ाई में राजा रावल जैत्रसिंह के सामने लड़कर मारा गया और उसकी स्त्री भोली उसके साथ सती हुईं। त्रिभुवन ( त्रिभुवनपाल ) गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेव दूसरे ( भोला भीम ) का उत्तराधिकारी था। भीमदेव ( दूसरे ) का देहान्त वि० सं० 1298 में हुआ। त्रिभुवन पाल ने प्रवचन परीक्षा के लेखानुसार चार वर्ष राज्य किया। इसके पीछे उक्त धोलका के राणा वीरधवल का उत्तराधिकारी बीसलदेव गुजरात का राजा बना। इसलिये गुजरात के राजा त्रिभुवनपाल से रावल जैत्रसिंह की लड़ाई वि० सं० 1298 और 1302 के बीच किसी वर्ष हुई होगी। चिरवा तथा घाघसा के शिलालेखों में गुजरात के राजा से लड़ने का जो उल्लेख मिलता है, वह इसी लड़ाई का सूचक है।
मारवाड़ के राजा से लड़ाई
रावल जैत्रसिंह के समय मारवाड़ के बड़े हिस्से पर नाडौल के चौहानों का राज्य था। नाडौल के चौहान साँभर के चौहान राजा वाक्यतिराज (वप्पयराज) के दूसरे पुत्र लक्ष्मण ( लाखणसी ) के वंशधर थे। उक्त वंश के राजा आल्हण के तीसरे पुत्र कीर्तिपाल ( कीतु ) ने अपने भुजबल से जालौर का किला परमारों से छीन कर जालौर पर अपना अलग राज्य स्थिर किया। कीर्तिपाल के पौत्र और समर सिंह के पुत्र उदयसिंह के समय नाडौल का राज्य भी जालौर के अंतर्गत हो गया। इतना ही नहीं, किन्तु मारवाड़ के बड़े हिस्से अर्थात् नड्डूल ( नाडौल ) जवालिपुर (जालोर) माडव्यपुर [ मंडौर ] वाग्भट- मेरु [ बाहडमेर ] सूराचन्द, राटहद, खेड, रामसेन्य [ रामसेण ] श्रीमाल [ भीनमाल ] रत्नपुर [ रतनपुर | सत्यपुर [ साचौर ] आदि उसके राज्य के अंतर्गत हो गये थे। समर सिंह के समय के शिलालेख वि० सं० 1239 से 1242 तक के और उसके पुत्र उदयसिंह के समय के वि० सं० 1262 से 1306 तक के मिले हैं। उनसे पाया जाता है कि वि० सं० 1262 के पहले से लगाकर 1306 के पीछे तक मारवाड़ का राजा चौहान उदयसिंह ही था और वह मेवाड़ के राजा रावल जैत्रसिंह का समकालीन था। घाघसा के उपयुक्त शिलालेख में लिखा है कि शाकंभरीश्वर ( चौहान राजा ) उसका ( जैतसिंह का ) मान-मर्दन न कर सका। यह जैत्रसिह का जालौर के चौहान राजा उदयसिंह से लड़ना सूचित करता है। चिरवा के शिललेख में रावल जैत्रसिंह का मारव (मारवाड़ ) के राजा से लड़ना पाया जाता है और आबू के शिलालेख में स्पष्ट लिखा है कि “उस ( जेत्रसिंह ) की भुजलक्ष्मी ने नाइूल ( नाडौल ) को निमूल ( नष्ट ) किया था। कहने का मतलब यह है कि मेवाड़ के इतिहास में रावल जैत्रसिंह एक महा पराक्रमी राणा हो गये थे, जिन्होंने कई प्रबल और महान शत्रुओं को परास्त कर विजय लक्ष्मी प्राप्त की थी। इन महाराणा के महान पराक्रमों पर प्रकाश डालने का श्रेय हमारे परम पूज्य इतिहास-गुरु रायबहादुर पंडित गौरी शंकर ओझा को है।
उदयपुर राज्य के महाराणा जैत्रसिंह के बाद
महाराणा रावल जैत्रसिंह जी के बाद उनके पुत्र महाराणा तेजसिह जी राज्य सिंहासन पर विराजे । विक्रम संवत 1317 से 1324 तक के इनके समय के बहुत से लेखादि मिले हैं। महाराणा तेजसिंह जी के बाद उनके कुंवर महाराणा समरसिंह जी राज्यासीन हुए। विक्रम संवत 1330 से लगाकर 1345 तक के इनके समय के कई लेख मिले हैं। तीर्थकल्प नामक प्रख्यात् जैन ग्रन्थ के क॒र्ता इनके समकालीन थे वे लिखते हैं कि “विक्रम संवत् 1356 में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के भाई उल्लूखा ने चितौड़ के स्वामी समरसिंह के समय मेवाड पर चढाई की, पर समरसिंह ने बड़ी बहादुरी के साथ चितौड़ की रक्षा की। पृथ्वीराज रासों में इनका जो वर्णन किया है, वह ऐतिहासिक दृष्टि से भूल भरा हुआ है। समरसिंह जी के बाद रत्नसिह जी उदयपुर के राज्य-सिंहासन पर आरूढ़ हुए। इनके समय में अलाउद्दीन खिलजी ने चितौड़ पर चढ़ाई की। युद्ध हुआ और रत्नसिंह जी काम आये। इसी हमले में शिसोदिया वीर लक्ष्मण सिंह जी अपने सातों पुत्रों सहित मारे गये। चितौड़ पर अलाउद्दीन का अधिकार हो गया। उदयपुर (मेवाड़) की ख्यातों में लिखा है कि लक्ष्मण सिंह के ज्येष्ठ पुत्र अरिसिंह भी इसी लड़ाई में मारे गये और छोटे पुत्र अजय सिंह घायल होकर बच गये थे।
महाराणा हमीर सिंह उदयपुर राज्य
रत्नसिंहजी के बाद परम पराक्रमी वीर श्रेष्ट महाराणा हमीर सिंह ने उदयपुर के सिंहासन को सुशोभित किया। इन्होंने मारवाड़ के सुप्रख्यात राजा मालदेव की पुत्री से विवाह किया था। आपने अपनी बहादुरी से चितौड़ को वापस विजय कर लिया। इस पर दिल्ली का तत्कालीन सम्राट मोहम्मद तुगलक बड़ा गुस्सा हुआ और उसने एक विशाल सेना के साथ चितौड़ पर चढ़ाई कर दी।इधर महाराणा हमीर सिंहभी तैयार थे, भीषण युद्ध हुआ। बादशाही फौजों ने उलटे मुँह की खाई। मेवाड़ की ख्यातों में लिखा है कि बादशाह कैद कर लिया गया। वह बहुत सा मुल्क, पचास लाख रुपया और सौ हाथी देने पर छोड़ा गया। मेवाड़ के महा पराक्रमी राणाओं में से महाराणा हमीर सिंह भी एक थे।
महाराणा क्षेत्र सिंह उदयपुर राज्य
प्रबल प्रतापी राणा हम्मीर के बाद उनके पुत्र महाराणा क्षेत्र सिंह ईस्वी सन् 1364 में मेवाड़ के राज्य सिंहासन पर विराजे। आपने अपने राज्य का खूब विस्तार किया। अजमेर और जहाजपुर पर आपने अपनी विजय ध्वजा फहराई और उन पर अपना पूर्ण अधिकार कर लिया। मांडलगढ़, मन्दसौर तथा छप्पन से लगाकर ठेठ मेवाड़ तक का सारा का सारा प्रदेश फिर इनके प्रतापशील राज्य में शामिल कर लिया गया। महाराणा क्षेत्र सिंह ने दिल्ली के तत्कालीन मुसलमान सम्राट की विशाल सेना पर अपूर्व विजय प्राप्त की। राणा कुम्भा के समय के चित्तौड़गढ़ के एक शिलालेख में लिखा है:–“क्षेत्र सिंह ने चित्तौड़ के पास मुसलमान फौज का नाश किया, और शत्रु अपने आपको बचाने के लिये भागा।” कुम्भलगढ़़ के शिलालेख में भी महाराणा क्षेत्र सिंह के इस विजय का गौरवशाली शब्दों में उल्लेख है। वीरवर महाराणा क्षेत्र सिंह इसी विजय से संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने युद्ध में गुजरात के राजा पर भारी विजय प्राप्त की और उसे अपना कैदी बनाया। कुम्भलगढ़ के शिलालेख से मालूम होता है कि राणा क्षेत्र सिंह ने गुजरात के प्रथम स्वतंत्र सुल्तान जाफरखाँ को गिरफ्तार कर उसे अन्य राजाओं के साथ कैद किया। उन्होंने मालवा के मुसलमान सुल्तान अमीर शाह को हराया और मार डाला। मालवा का उक्त सुलतान राणा क्षेत्र सिंह के नाम से कांपता था। उन्होंने और भी बहुत से राजाओं पर विजय प्राप्त की थी।
महाराणा लाखा उदयपुर राज्य
महाराणा क्षेत्र सिंह के बाद राणा वक्षसिंह उर्फ़ महाराणा लाखा राज्य-सिंहासन पर विराजे। ये भी बड़े साहसी और पराक्रमी वीर थे। इन्होंने सन् 1382 से 1397 तक राज्य किया। इन्होंने मेरवाड़ा को अपने विशाल राज्य में सम्मिलित किया और वहां के बर्तगढ़ नामक किले को तोड़ा। उसी स्थान पर आपने बदनोर नगर बसाया। आपही के समय में जावर ( jawar ) की चांदी और टिन की खदानों का पता लगा। इससे उनकी आमदनी खूब बढ़ गई। आपने उन मन्दिरों और महलों को फिर से बनवाया, जो अलाउद्दीन द्वारा नष्ट कर दिये गये थे। आपने बड़े बड़े तालाब और किले बनवाये और शेखावटी के साँखला राजपूतों पर विजय प्राप्त की। अपने वीर पिता की तरह इन्होंने भी बदनोर मुकाम पर दिल्ली के सुल्तान की फौज को भारी शिकस्त दी। कुम्भलगढ़ के शिलालेख से मालूम होता है कि उन्होंने मुसलमानों से त्रिस्थली और मेर लोगो से वर्द्धन का किला विजय किया था। महामति टॉड सा० ने लिखा है कि, उन्होंने ठेठ गया तक अपनी विजय सेना को दौड़ाया तथा वहाँ से म्लेच्छों को निकाल बाहर किया था। ये युद्ध क्षेत्र में लडते लड़ते वीर की तरह काम आये थे। चित्तौडगढ़़ के कीर्ति स्तंभ शिलालेख से प्रतीत होता है कि उस समय मुसलमानों की ओर से गया में यात्रियों पर जो टेक्स लगा हुआ था, उसको आपने जबर्द॒स्ती बन्द करवा दिया।’ इनके इन कार्यों का उल्लेख करते हुए महामति टॉड लिखते हें–“उनके स्वधर्मानुराग ओर स्वदेश प्रेम के कारण दूसरे प्रसिद्ध प्रातः स्मरणीय राजाओं के नामों के साथ उनका नाम भी उदयपुर राज्य के घर घर में लिया जाने लगा । राणा लाखा, जैसे स्वदेश हितेषी थे, वैसे ही शिल्प-प्रेमी भी थे। स्वदेश की शोभा बढ़ाने के लिये उन्होंने शिल्प के जो जो काम बनवाये थे, वे अब भी वर्तमान हैं तथा थे उनकी गहरी शिल्प प्रियता का परिचय देते हैं।
महाराणा मोकल उदयपुर राज्य
महाराणा लाखा के बाद उनके पुत्र महाराणा मोकल इ० सन् 1397 में राज्य-सिंहासन पर बैठे। ये भी अपने पूर्वजों की तरह बड़े वीर, साहसी और पराक्रमी थे। उनके अतुलनीय तेज के आगे बड़े बड़े राजा मस्तक झुकाते थे। उन्होंने रायपुर के युद्ध-क्षेत्र में दिल्ली के तत्कालीन सम्राट मुहम्मद तुगलक को ओंधे मुँह पछाड़ा था। उन्होंने अजमेर, और साँभर पर हमला कर उन पर अधिकार कर लिया। ये दोनों नगर इस समय दिल्ली के बादशाह के अधीन थे। जालौर का राजा इनके नाम से काँपता था। इनका अतुलनीय पराक्रम देखकर दिल्ली के तत्कालीन सम्राट को अपने राज्य के चले जाने की चिन्ता होने लगी। उन्होंने नागौर के सुलतान फिरोज खां और मांडू के गौरी सुलतान को परास्त कर उनके हाथियों को मार डाला था। चित्तौड़ के कीर्ति-स्तंभ के पास इन्होंने समाधिश्वर का मंदिर बनवाया। ये प्रतापी राजा, अपने दो चाचाओं द्वारा विश्वासघात से मार डाले गये।
महाराणा कुम्भा
राणा मोकल के बाद उनके पुत्र महाराणा कुम्भा ने उदयपुर के गौरवशाली राज्य-सिंहासन को सुशोभित किया। उदयपुर के जिन महापराक्रमी राणाओं ने अपने अपूर्व वीरत्व, अद्वितीय स्वार्थत्याग आदि दिव्यगुणों से भारतवर्ष के इतिहास को उज्ज्वल किया है, उनमें महाराणा कुम्भाका आसन सर्वोपरि है। उन्होंने जो जो महान विजय प्राप्त की हैं, उनका न केवल मेवाड़ के इतिहास में, वरन भारतवर्ष के इतिहास में बड़ा महत्व है। इन प्रतापी महाराणा कुम्भा का पूर्ण परिचय देने के प्रथम यह आवश्यक है कि तत्कालीन भारतवर्ष की परिस्थिति पर कुछ प्रकाश डाला जावे। जिस समय उदयपुर में परम तेजस्वी, परम पराक्रमी और परम राजनीतिज्ञ महाराणा कुम्भा का उदय हो रहा था, उस समय दुर्दांत तैमूरलंग ने भारतवर्ष पर आक्रमण कर दिल्ली को बर्बाद कर दिल्ली के तत्कालीन मुसलमान तुगलक बादशाह की ताकत को तोड़ डाला था। यद्यपि तैमूरलंग के लौट जाने पर मुहम्मद तुगलक दिल्ली को वापस लौट आया था, पर इस वक्त वह अपनी सारी प्रतिष्ठा, प्रभाव और तेज को खो चुका था। इस वक्त वह केवल नाम मात्र का बादशाह रह गया था। इससे मालवा, गुजरात, और नागौर के सल्तानों ने इसकी अधीनता से निकल कर स्वतन्त्रता की घोषण कर दी थी। इस वक्त इनकी शक्ति का सूर्य खूब तेजी से चमकने लगा था। कहना न होगा, पंद्रहवीं सदी के मध्य में इन्हीं बढ़ती हुई शक्तियों से महाराणा कुम्भा को मुकाबला करना पड़ा था।
महाराणा कुम्भासन् 1297 तक गुजरात, सुप्रख्यात चालुक्य वंश की बघेला शाखा के अधीन था। उक्त साल में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने उलूगखां को उस पर विजय करने के लिये भेजा था। चालुक्य वंश के पहले गुजरात पर चावड़ा राजपूतों का अधिकार था। चालुक्य वंशीय सिद्धराज, जयसिंह और कुमारपाल के समय में गुजरात का राज्य शक्ति और समृद्धि के सर्वोपरि आसन पर विराजमान था। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि गुजरात के उक्त प्रताप शील नृपति ने मालवा पर विजय प्राप्त की थी। चित्तौड़ को फतह कर लिया था एवं अजमेर के चौहानों को भारी शिकस्त दी थी। ये सब महत्वपूर्ण घटनाएं सन् 1094 और 1175 के बीच हुई।
सन् 1297 से लगातर 1407 तक गुजरात दिल्ली के बादशाह के मातहत रहा। सन् 1407 में गुजरात के बादशाही प्रतिनिधि ( Viceroy ) जाफर खां ने स्वाधीनता की घोषणा कर वीरपुर में
गुजरात के राज्य-सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। इस वक्त उसने मुजफ्फरशाह की उपाधि धारण की। जाफर खाँ असल में हिन्दू था। मुसलमानी धर्म स्वीकार कर लेने पर वह सुल्तान फिरोजशाह तुगलक का खास बावर्ची हो गया था। धीरे धीरे वह सुल्तान का कृपा पात्र बन गया और वह गुजरात का शासक बना दिया गया। मुजफ्फर शाह ने अपने भाई शम्सखाँ को नागौर का शासक नियुक्त किया, जहां कि उसने ओर उसके बेटे पोतों ने कई वर्ष तक राज्य किया। शम्सखाँ के बाद उसका पुत्र फिरोज खां नागौर का शासक हुआ। इसने अपनी वीरता के लिये अच्छी ख्याति प्राप्त की थी। उसने महाराणा कुम्भा के पिता मोकल से दो दो तलवार के हाथ लिये थे। उसने मेवाड़ पर आक्रमण कर बांदणवाड़ा के पास राणा की फौज को शिकस्त दी थी। इस विजय से उसकी आँखे फिर गई थीं। अभिमान में चूर होकर वह उदयपुर की ओर फिर आगे बढ़ा, पर उदयपुर राज्य से 20 मील के अन्तर पर जावर नामक गाँव में उसे बुरी तरह परास्त होना पड़ा। मन मसोसते हुए उसे वापस नागौर लौटने को मजबूर होना पड़ा।
सन् 1455 में महाराणा कुम्भा ने नागौर पर अधिकार कर लिया। इससे अहमदाबाद के सुलतान को बहुत बुरा लगा और उन्होंने
महाराणा के खिलाफ तलवार उठाई। यहां यह कहना आवश्यक है कि इसके पहले एक समय महाराणा को मालवा के सुल्तान के खिलाफ लड़ना पड़ा था। उस समय भारतवर्ष में मालवा और गुजरात के राज्य, शक्ति के ऊँचे आसन पर चढ़े हुए थे। ये दोनों राजा एक एक करके जब महाराणा से हार गये थे, तब इन दोनों ने मिलकर पश्चिम और दक्षिण की ओर मेवाड़ पर आक्रमण किया। वीरवर महाराणा कुम्भा भी तैयार थे। पवित्र क्षत्रिय वंश का खून उनकी रगो में दौड़ रहा था। उदयपुर राज्य की स्वाधीनता उन्हें अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय थी। स्वाधीनता और स्वदेश-रक्षा की पवित्र भावनाओं से उत्साहित होकर वीरवर महाराणा कुम्भा इन प्रबल शत्रुओं की बलशाली सेना के सामने आ डटे। भीषण युद्ध हुआ। महाराणा को अपूर्व विजय प्राप्त हुई। शत्रुओं ने बुरी तरह उलटे मुँह की खाई। इस विजय से महाराणा कुम्भा की शक्ति का प्रकाश सारे भारत में आलोकित होने लगा।
यहाँ तत्कालीन मालवा पर भी कुछ प्रकाश डालना आवश्यक है।
सन् 1310 तक मालवे पर हिन्दुओं का राज्य था। इसके बाद उसे
मुसलमानों ने विजय किया। दूसरे सुलतान मुहम्मद के राज्य तक वह दिल्ली के सुलतानों के अधीन रहा। इसके बाद वह स्वतंत्र राज्य हो गया। दिलावर खाँ गोरी, जिसका असली नाम हसन था, फिरोज तुगलक के समय में, मालवे का शासक नियुक्त किया गया । सन् 1398 की 18 दिसंबर को अमीर तैमूर ने दिल्ली पर अधिकार कर उसको तहस नहस कर डाला। फिरोजशाह तुगलक का लड़का सुलतान मुहम्मद तुगलक गुजरात की ओर भागा, पर उसका रास्ता महाराणा ने रोका। रायपुर मुकाम पर युद्ध हुआ, जिसमे सुलतान बुरी तरह से हारा। इसके बाद वह मालवे की ओर मुड़ा। वह मालवा पहुँचा, जहाँ दिलावर खाँ ने उसका स्वागत कर अपनी राज-भक्ति प्रकट की। सन् 1401 में उसने स्वाधीनता की घोषणा कर दिल्ली से अपना सम्बन्ध तोड़ लिया।
सन् 1571 तक मालवा स्वतंत्र राज्य रहा। अर्थात इसका दिल्ली के सम्राट के साथ कोई सम्बन्ध न रहा। सन् 1571 में महान सम्राट अकबर ने इसे अपने साम्राज्य का एक प्रान्त बनाया। दिल्लावर खाँ अपने महत्वाकाँक्षी और दुश्चरित्र लड़के अलप खाँ द्वारा कत्ल कर दिया गया। अलप खाँ सुलतान होशंगगोरी का खिताब धारण कर मसनद पर बैठा। सुलतान होशंगगोरी का लड़का मोहम्मद खाँ द्वारा मार डाला गया। मोहम्मद खाँ, सुलतान मोहम्मद खिलजी का खिताब धारण कर मालवे की मसनद पर बैठा। इसके समय में राज्य की शक्ति खूब बढ़ी। महाराणा कुम्भा ने इसी शक्तिशाली सुलतान को रण-मैदान में आने के लिये ललकारा।
मालव-विजय
हमने ऊपर महाराणा कुम्भा के पिता राणा मोकल की हत्या का
वृत्तान्त लिखा है। इन हत्यारों में से एक को, जिसका नाम माहप्पा पँवार था, मालवा के सुलतान महमूद खिलजी ने, पनाह दी थी। महाराणा ने सुलतान से उक्त हत्यारे को माँगा। सुल्तान ने उसे देने से इन्कार कर दिया। इस पर महाराणा ने एक लाख घुड़सवार और 1400 हाथियों की प्रबल सेना से मालवा की ओर कूच किया ।सन् 1440 में चित्तौड़ और मन्दोसर के बीच में दोनों सेनाओं की मुठभेड़ हो गई। भीषण लड़ाई हुईं। इसमें सुलतान पूर्ण रूप से परास्त हुआ। वह और उसकी सेना हताश होकर भागी। राणा की फौज ने उसका पीछा किया और तत्कालीन मालव राजधानी माँडू पर घेरा डाल दिया। जब सुलतान ने विजय की सब आशा खो दी और वह चारों ओर से तंग हो गया तब उसने हत्यारे माहप्प से कहा कि “अब में तुम्हें नहीं रख सकता। तुम यहाँ से चले जाओ।” माहप्प घोड़े पर बैठ कर किले से निकल कर भागने लगा इसमें उसका घोड़ा मारा गया, पर वह सुरक्षित रूप से गुजरात की ओर भाग गया। इसके बाद महाराणा ने माँडू के किले पर हमला कर उस पर अधिकार कर लिया। सुलतान महमूद खिलजी गिरफ्तार कर लिया गया। उसकी सेना भयभीत होकर बेतहाशा इधर उधर भागने लगी। कैदी सुलतान सहित महाराणा कुम्भा चित्तौड़ को लौट आये। सुलतान छः मास तक चित्तौड़ में केद रहा। बाद में उदार ओर सहृदय महाराणा ने बिना किसी प्रकार का हर्जाना लिये उसे मुक्त कर दिया। इसके बाद कृतध्न सुलतान ने गुजरात के सुलतान की सहायता से बदला लेने के लिये कई प्रयत्न किये, पर वे सब निष्फल हुए। इस विजय के उपलक्ष्य में महाराणा ने चित्तौड़ में एक कीर्ति-स्तम्भ बनवाया है। इसके बाद महाराणा कुम्भा ने और भी कई युद्धों में भाग लिया। आप का जोधपुर राज्य के मूल संस्थापक रावजोधा जी के साथ भी युद्ध हुआ और आपने मंडूर आदि पर अधिकार कर लिया। आखिर में फिर मंडूर राव जोधाजी के हाथ पड़ गया।
महाराणा कुम्भा का मालवा ओर गुजरात के सुल्तान के साथ युद्ध
महाराणा कुम्भा ने मालवा और गुजरात के मुसलमानों की संयुक्त सेना के दाँत बुरी तरह से खट्टे किये थे, तथा उन्होंने मालवा के सुलतान को भारी शिकस्त देकर किस प्रकार चित्तोड़ में छः मास तक कैद रखा था, इसका जिक्र हम ऊपर कर चुके है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस पराजय से मालवा के सुलतान के हृदय में बदला लेने की आग जोर से धधकने लगी थी। वह इसके लिये मौका ताक रहा था। सन् 1439 में महाराणा हाड़ौती पर चढ़ाई करने के लिये चित्तौड़ से रवाना हुए। जब मालवा के सुलतान ने देखा कि महाराणा हाड़ौती पर हमला करने गये हुए हैं और उदयपुर राज्य अरक्षित है, तो उसने तुरन्त उदयपुर राज्य पर हमला करने का निश्चय किया। ह० सन् १४४० में उसने उदयपुर पर कूच कर दिया। जब वह कुम्भलमेर पहुँचा तो उसने वहाँ के बानमाता के मंदिर को तोड़ने का निश्चय किया। इस समय दीपसिंह नामक एक राजपूत सरदार ने कुछ वीर योद्धाओं को इकट्ठा कर सुलतान का मुक़ाबला किया।
बराबर सात दिन तक दीपसिंह ने अतुलनीय पराक्रम के साथ सुल्तान की विशाल सेना के हमलों को निष्फल किया। आखिर में दीपसिंह वीरगति को प्राप्त हुआ। उक्त संदिर पर सुल्तान का अधिकार हो गया। सुल्तान ने उसे नष्टश्रष्ट कर जमींदस्त कर दिया। उसने माता की मूर्ति को भी तोड़ मरोड़ डाला। इस विजय से सुल्तान का उत्साह बहुत बढ़ गया। वह मन्दोन्मत्त होकर चित्तौड़ पर हमला करने के लिए रवाना हुआ, और उक्त किले पर अधिकार करने की इच्छा से अपनी कुछ सेना वहाँ छोड़ कर वह महाराणा कुम्भा से मुकाबला करने के लिये रवाना हुआ। महाराणा के मुल्कों को नष्टभ्रष्ट करने के लिये उसने अपने पिता आजम हुमायूँ को मन्दसोर की ओर भेज दिया। जब महाराणा ने यह सुना कि सुल्तान ने उदयपुर राज्य पर चढ़ाई की है, तो वे तुरन्त हाड़ौती से रवाना हो गये। मांडलगढ़ में दोनों सेनाओं का मुकाबला हुआ। भीषण युद्ध हुआ। पर इसमें कोई अन्तिम फल प्रकट नहीं हुआ। कछु दिनों के बाद महाराणा ने रात के समय सुलतान की फौज पर अकस्मात् आक्रमण कर दिया। बस फिर क्या था, सुलतान की फौज तितर बितर हो गईं। घोर पराजय का अपमान सह कर सुलतान को मांडू लौटना पड़ा। फिर इस हार का बदला चुकाने के लिये चार वर्ष बाद अर्थात् सन् 1446 में सुलतान ने बहुत बड़ी सेना के साथ मांडलगढ़ की ओर फिर कूच कर दिया। ज्यों ही शत्रु की सेना बनास नदी उतरने लगी कि महाराणा कुम्भा की सेना ने उस पर आक्रमण कर दिया। सुल्तान की सेना बेतहाशा भागी और उसने मांडू में जाकर विश्राम किया। इस हार का यह फल हुआ कि इसके आगे दस वर्ष तक उदयपुर राज्य पर हमला करने की सुलतान की हिम्मत न हुई।
सन् 1455 में खिलजी के पास अजमेर के मुसलमानों की ओर से यह दरख्वास्त गई कि अजमेर के हिन्दू शासक ने मुसलमान धर्म
के सब व्यवहारों को बन्द कर दिया है। अगर आप अजमेर पर चढ़ाई करेंगे तो यहाँ के मुसलमान दिल से आप की मदद करेंगे। इस पर सुल्तान ने अपनी फौज की एक टुकड़ी को तो महाराणा की फौज से मुकाबला करने के लिये मन्दसौर की ओर भेजा और खुद सुलतान अजमेर पर आक्रमण करने के लिये आगे बढ़ा। अजमेर के तत्कालीन शासक गजाधरसिंह ने बड़ी वीरता के साथ चार दिन तक अजमेर की रक्षा की। आखिर में वह शत्रु-सेना पर टूट पड़ा और सैकड़ों शत्रु सैनिकों को यमलोक पहुँचा कर आप भी वीरगति को प्राप्त हुआ। यह कहना न होगा कि अजमेर पर सुल्तान का अधिकार हो गया और वह नियामतउल्ला को अजमेर का शासक नियुक्त कर मांडलगढ़ की ओर लौटा। ज्यों ही सुल्तान की सेना बनाख नदी के पास पहुँची त्योंही महाराणा कुम्भा की सेना उस पर टूट पड़ी। सुलतान की सेना पराजित होकर मांडू की ओर भाग गई। सुलतान की इस पराजय को सुप्रख्यात मुसलमान इतिहास-वेत्ता फरिश्ता’ ने भी स्वीकार किया है।
इसी साल अर्थात सन् 1455 में नागौर का सुलतान फिरोज़ खाँ इस दुनियां से कूच कर गया। पाठक जानते हैं कि यह गुजरात के
राजाओं का वंशज होकर दिल्ली के सम्राट के अधीन था। पीछे जाकर वह स्वतन्त्र हो गया था। इसकी मृत्यु के बाद इसका शम्सखाँ नामक लड़का नागौर का सुलतान हुआ। पर शम्सखाँ का लड़का मुजाइदखाँ इसे राज्यच्युत कर इसके मारने की फ़िक्र करने लगा। शस्सखाँ भाग कर महाराणा कुम्भा की शरण में गया । राणा कुंभा ने कुछ शर्तो पर उसे मदद देना स्वीकार किया। महाराणा ने बड़ी सेना के साथ नागौर पर चढ़ाई की और मुज़ाइद को परास्त कर शम्सखाँ को गद्दी पर बैठा दिया। पर थोड़े ही दिनों के बाद महाराणा ने देखा कि शम्सखाँ अपने वचन से च्युत हुआ चाहता है। वह महाराणा के साथ की गई शर्तों का पालन करने के लिये तैयार नहीं है। इतना ही नहीं, वह उनका मुकाबला करने के लिये नागौर के किले की मजबूती कर रहा है। इससे महाराणा कुम्भा को बड़ा क्रोध आया। वे विशाल सेना के साथ नागौर पर चढ़ आये। शम्सखाँ नागौर से भाग गया। नागौर का किला महाराणा के हाथ पड़ा। उन्हें शम्सखाँ के खजाने से हीरे, रत्न आदि कई बहुमूल्य पदार्थ मिले। राणा कुम्भा के समय में बने हुए एकलिंग महात्म्य में लिखा है:— “राणा कुंभ ने शकों ( मुसलमानों ) को परास्त किया। उन्होंने मुजाहिद को भगाया और नागपुर ( नागौर ) के योद्धाओं को मारा। उन्होंने सुलतान के हाथियों को ले लिया; और शकों ( मुसलमानों ) की औरतों को कैद कर लिया; असंख्य मुसलसानों को सज़ा दी; गुजरात के राजा पर विजय प्राप्त की; नागोर शहर की तमाम मस्जिदें जला दी बारह लाख गोओं को मुसलमानों से मुक्त किया। गौओं को चरने के लिये गोचर भूमि को व्यवस्था की और कुछ समय के लिये नागौर ब्राह्मणों को दे दिया।
चित्तौड़-गढ़ के कीर्ति-स्तंभ पर जो लेख है उसमें लिखा है–“ उन्होंने सुल्तान फिरोज द्वारा बनाई हुईं विशाल मस्ज़िद को ज़मीदस्त कर दिया। उन्होंने नागौर से मुसलमानों को जड़ से उड़ा दिया, ओर तमाम मस्ज़िदों को जमींद्स्त कर दिया।” महाराणा कुम्भा नागौर के किले के दरवाजे और हनुमान की मूर्ति भी ले आये और उसे उन्होंने कुंभलगढ़ के किले के खास दरवाजे के पास प्रतिष्ठित किया। यह दरवाज़ा हनुमान पोल के नाम से मशहूर है। शम्सखाँ अपनी पुत्री सहित अहमदाबाद की ओर भाग गया। उसने अपनी उक्त पुत्री सुल्तान कुतबुद्दीन को ब्याह दी इससे सुल्तान, शम्सखां के पक्ष में हो गया और उसने एक बड़ी सेना महाराणा के मुकाबले पर भेजी। ज्योंही यह सेना नागौर के पास पहुँची कि महाराणा की सेना ने विद्युत वेग से इस पर आक्रमण कर दिया। यह पूर्ण रूप से परास्त हुईं। इसकी बड़ी दुर्दशा हुई। इस सेना का अधिकांश भाग ककड़ी की तरह काट डाला गया। थोड़े से आदमी इस दुर्दशा का समाचार लेकर सुल्तान के पास वापस पहुँच सके। अब सुल्तान नागौर पर अधिकार करने के लिये खुद रण के मैदान में उतरा। महाराणा कुम्भा भी इसके मुकाबले के लिये रवाना हो गये और वे आबू आ पहुँचे।
सन् 1456 में गुजरात का सुलतान आबू के निकट पहुँचा और
उसने अपने सेनापति इम्माद-उल-मुल्क को एक बहुत बड़ी सेना के साथ आबू का किला फतह करने के लिये भेजा और आप खुद कुम्भलगढ़़ की ओर रवाना हुआ। महाराणा कुम्भा को सुलतान के इस व्यूह का पता चल गया था। उन्होंने तुरन्त सेनापति की फौज़ पर आक्रमण कर उसे छिन्न भिन्न कर दिया, और इस के बाद वे बड़ी तेज गति से कुम्भलगढ़़ की ओर रवाना हुए। वे सुलतान के पहले ही कुम्भलगढ़़ आ पहुँचे थे। इम्माद-उल-मुल्क भी आबू से निराश होकर सुल्तान के पास आ पहुँचा और दोनों ने मिलकर कुम्भलगढ़़ के किले पर हमला करने का निश्चय किया। महाराणा भी तैयार थे। उन्होंने तुरन्त किले से निकल कर सुल्तान की फौज पर हमला कर उसे पूर्ण रूप से परास्त कर दिया। सुलतान को भीषण हानि उठानी पड़ी। निराश होकर वह अपने राज्य को लौट गया। इसके बाद सन् 1457 में गुजरात के सुल्तान ने मालवा के सुल्तान से मिलकर फिर मेवाड़ पर आक्रमण किया। महाराणा ने अपूर्व वीरत्व के साथ इनका मुकाबला किया। शुरू शुरू में किसी के भाग्य का फैसला नहीं हुआ। कभी विजय की माला महाराणा के गले में पड़ती तो कभी सुलतान के, पर आखिर में गहरी हानि सहने के बाद महाराणा ने दोनों के दाँत खट्ट कर दिये। गुजरात का सुल्तान वापस लौट गया। यही दशा मालवे के सुल्तान की भी हुईं। वह अपनी खोई हुई भूमि को भरी वापस न ले सका। उसने विजय की सारी आशा खो दी। उसकी आँखों के सामने घोर निराशा के काले बादल मंडराने लगे। इसके बाद वह दस वर्ष तक जीवित रहा, पर फिर कभी उदयपुर राज्य पर हमला करने का उसने साहस नहीं किया। सुल्तान कुतुबुद्दीन इस हार के बाद अधिक दिन तक जीता न रहा। सन् 1459 की 25 मई को वह दुनिया से कूच कर गया और उसके बाद दाऊदशाह उसका उत्तराधिकारी हुआ। इसी समय बूंदी के हाड़ाओं ने मौका पाकर अमरगढ़ पर अधिकार कर लिया और उन्होंने मांडलगढ़ के राजपू्तों को बहुत कुछ तकलीफ दी। इस पर महाराणा ने अमरगढ़ पर हमला किया, जिससें बहुत से हाड़ा मारे गये। इसके बाद महाराणा ने बूँदी पर घेरा डाला। बूंदी के हाड़ाओं के माफ़ी मांग लेने पर सहृदय महाराणा ने घेरा उठा लिया और फौज, खर्च, नज़राना इत्यादि लेकर चित्तौड़ को वापस लौट गये। इस विषय में कुछ मतभेद है,क्योंकि कुम्भलगढ़़ के शिलालेख में लिखा है कि महाराणा ने हाड़ाओं को परशास्त कर उनसे खिराज वसूल किया।
सन् 1524 में महाराणा कुम्भा के पास यह समाचार पहुँचा कि नागौर में मुसलमानों ने गायें मारना शुरू किया है। बस, फिर क्या था ? आप तुरन्त 25 हज़ार सवारों के साथ नागौर पर हमला करने के लिये रवाना हो गये। उन्होंने हजारों शत्रुओं को तलवार के घाट उतार दिया। नागौर के किले पर अधिकार कर शत्रुओं को लूट लिया। महाराणा कुम्भा के हाथ लाखों रुपयों का सामान लगा। नागौर का मुसलमान शासक अहमदाबाद के सुल्तान के पास भाग गया। अहमदाबाद का सुल्तान बहुत बड़ी सेना लेकर सिरोही के रास्ते से कुम्मलगढ़़ के निकट पहुँचा। उधर महाराणा भी तैयार थे। वे भी बहादुर राजपूतों के साथ उसके मुकाबले के लिये आगे बढ़े। दोनों का मुकाबला हुआ और घमासान युद्ध हुआ। सुलतान ने ऑंधे मुँह की खाई। पहले की तरह इस बार सी वह खूब पिटा और सीधा मुंह करके उसने गुजरात का रास्ता पकड़ा।
महाराणा कुम्भा की मृत्यु
दुःख की बात है कि इ० सन् 1468 में परम पराक्रमी परम राज-
नीतिज्ञ महाराणा कुम्भा अपने पुत्र उदयकरण के द्वारा विशवासघात से मार डाले गये। इस हत्या के मूल उद्देश के विषय में तरह तरह के अनुमान लगाये जाते हैं। किसी किसी का मत है कि महाराणा कुम्भ के शत्रुओं ने उदयकरण को सिंहासन का लोभ देकर यह कर कृत्य करवाया था। कोई कोई इसके दूसरे ही कारण बतलाते हैं। कुछ भी हो, इसमें सन्देह नहीं कि हत्यारे उदयकरण ने इस अमानुषिक कुकृत्य से भारतवर्ष के इतिहास में अपना काला मुँह कर लिया है। उस दुष्ट पितृहन्ता के नाम से आज हृदय में अपने आप घृणा और तिरस्कार के भाव पैदा होते हैं। “उदो तू हत्यारो इन शब्दों से भाट लोग उसके पाप कृत्य का प्रकाशन करते हैं।
महाराणा कुम्भा की महानता
35 वर्ष के गौरवमय राज्य के बाद कुम्भा इस संसार को छोड़ स्वर्गधाम को सिधार गये। भारत के इतिहास में महाराणा कुम्भा का नाम बड़े गौरव और आदर के साथ लिया जायगा। जिन महान नृपतियों ने भारत के इतिहास को अभिमान करने योग्य वस्तु बनाया है, उनमें महाराणा कुम्भा का आसन बहुत ऊँचा है। जिन महान पुरुषों से इतिहास बनता है, उनमें से महाराणा कुम्भा एक थे। कुम्भलगढ़़ के शिलालेख में इनकी कीर्ति-कलाए के विषय में जो कुछ लिखा है, उसका सारांश यह है–“’वे धर्म और पवित्रता
के अवतार थे। उनका दान राजा भोज और राजा कर्ण से भी बढ़ चढ़ कर था।
सैनिक दृष्टि से महाराणा कुम्भा
सैनिक दृष्टि से महाराणा कुम्भा का आसन बहुत ऊँचा है। वे एक
सैनिक होते हुए भी सहृदय थे । मनुष्यता की अत्युष भावनाओ के वे प्रत्यक्ष अवतार थे, यही कारण है कि उन्होंने असीम पराक्रमी होते हुए भी तैमूरलंग ओर अलाउद्दीन खिलजी जैसे पार्श्विक कृत्य नहीं किये। उन्होंने व्यर्थ में खून की नदियाँ बहाना–निर्दोष मनुष्यों को कत्ल करना–उच्च श्रेणी के क्षात्रधर्म के विरुद्ध समझा। वे बड़े भाग्यशाली थे। विजय हमेशा हाथ जोड़े हुए उनके सामने खड़ी रहती थी। वे युद्ध में हमेशा विजय-लाभ करते थे,चित्तौड़, कुम्भलगढ़़, रानपुर, आबू आदि के शिलालेखों से पता चलता है कि उन्होंने अपने सब दुश्मनों को अच्छी तरह चने चबवाये थे। उनकी विजयी तलवार की धाक सारे भारत में थी। उन्होंने कई राजाओं को अपना मातहत सरदार बनाया था। उन्होंने बूंदी, वामोद पर अधिकार कर हाडौती को जीता था। उन्होंने मेवाड़, मांडलगढ़ सिंहपुर, खाडु, चाटसु, टोड़ा और अजमेर का परगना अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया था। उन्होंने साम्भर के राजा को अपना मातहत बनाकर वहाँ की झील के नमक पर कर बैठाया था। उन्होंने नरवर, जहाजपुर, मालपुरा, जावर और गंगधार को फतह किया था। मंडोर पर अपना विजयी झंडा उड़ाया था। आमेर पर अधिकार कर कोटरा की लड़ाई में फतह पायी थी। उन्होंने सारंगपुर को विजय कर वहाँ के मुसलमान शासक मोहम्मद का गर्व चूर्ण किया था। उन्होंने हमीरपुर पर विजय-डंका बजाकर वहाँ के राजा रणबीर की कन्या के साथ विवाह किया था। उन्होंने मालवा के सुलतान से जंकाचल घाटी विजय कर उस पर किला बनाया था। उन्होंने दिल्ली के सुलतान का बहुत सा मुल्क फतह किया था। उन्होंने गोकर्ण पर्वत पर अधिकार कर आबू राज्य को अपने अधीन किया था। उन्होंने गागरोन ( कोढा स्टेट ) और बिसलपुर को जीतकर धन्यनगर और खंडेल को जमींदरत किया था। रणथम्भौर के इतिहास प्रसिद्ध किले पर उन्होंने अपनी विजय पताका फहराई थी। उन्होंने मुजफ्फर के गर्व को बेतरह पद दलित कर नागौर पर विजय-डंका बजाया था। उन्होंने जांगल देश ( अजमेर का पश्चिमीय भाग ) को लूटा तथा गौंडवार को अपने राज्य में मिलाया था। उन्होंने मालवा और गुजरात जैसे शक्तिशाली सुलतानों की सम्मिलित फौज को बुरी तरह पछाड़ा था। इन महान सफलताओं के उपलक्ष्य में दिल्ली और गुजरात के सुलतान ने आपको छ॒त्री नजर कर आपका सम्मान किया था। संसार में उन्हें राजगुरु, दानगुरु, चापशुरू ओर परमगुरु के सम्मान सूचक नामों से जानता था।
महाराणा कुम्भा की विद्वता
महाराणा कुम्भा न केवल महान नृपति, वीर और चतुर सेना नायक
ही थे, वरन् वे बड़े भारी विद्वान और कवि भी थे। कुम्भलगढ़ के शिलालेख में लिखा है कि उनके लिये काव्य सृष्टि करना उतना ही सरल था, जितना रण मैदान में जाना। आप अपने समय के अद्वितीय कवि माने जाते थे। संगीत विद्या में आप परम निष्णात थे। नाटय-शास्त्र के तो आप अपने समय के अद्वितीय विद्वान थे ओर इसके लिये आप “अभिनव भारताचार्य” की उच्च उपाधि से भी विभूषित थे। आपने संगीत राज, संगीत मीमांसा आदि ग्रंथों की रचना की। आपने गीतगोविंद पर रसिकप्रिया नामक टीका लिखी।आपने संगीत रत्नाकर भाष्य भी लिखा इससे आपके नाटक विज्ञान के ज्ञान का पता लगता है। इनके अतिरिक्त आपने चार नाटक और चंडीशतक पर टीका लिखी। चित्तौड़ के शिलालेख से मालूम होता है कि राणा कुम्भ ने अपने उक्त चार नाटकों में कर्नाटकी, मैदापटी और महाराष्ट्रीय भाषाओं का भी उपयोग किया था। उस समय के बने हुए एक माहात्म्य से पता चलता है कि महाराणा कुम्भा वेद, स्मृति, मीमांसा, नाटय-शास्त्र, राजनीति, गणित, व्याकरण, उपनिषद और तर्क-शास्त्र के भी बढ़े पंडित थे। आपने गीतगोविंद पर रसिकप्रिया नामक जो टीका लिखी है, उससे यह प्रतीत होता है कि आप संस्कृत के भी बडे पंडित थे । आप संस्कृत का गद्य और पद्म बड़ी आसानी से लिख सकते थे। एकलिंग महात्य का पिछला हिस्सा आपही ने लिखा है । उससे प्रकट होता है कि आप मधुर और सुन्दर कविता करने में भी बढ़े सिंद्धहस्त थे। आप चौहान सम्राट बिसलदेव की तरह प्राकृत भाषा के भी बड़े विद्यान थे। महाराणा कुम्भा केवल विद्वान् ही न थे वरन विद्वानों के कद्रदान भी थे। आप निर्माण शास्त्र में भी बड़ी दिलचस्पी रखते थे। आपने जो विविध भव्य इमारतें बनवाई है वे आपके निर्माण विद्या प्रेम को प्रकट करती है। आपने इस विद्या पर निम्नलिखित आठ पुस्तकें भी लिखवाई थी ( 1 ) देवता मूर्ति प्रकण। (2 ) प्रासाद मंडन। (3 ) राजवल्लम (4) रूप मंडन । ( 5 ) वास्तुमंडन । ( 6 ) वास्तुशात्र (7 ) वास्तु सार (8) रूपावतार । कहने का मतलब यह हैं कि महाराणा कुम्भा ने केवल एक ही क्षेत्र में नहीं, वरन् विविध क्षेत्रों में गपनी महानता का परिचय दिया था।
महाराणा कुम्भा के बाद
महाराणा कुम्भा के बाद पितृघाती राणा ऊदा उदयपुर के राज्यासन पर बैठा जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं। इस हत्यारे के नाम ने मेवाड़ के गौरवशाली इतिहास को कलंकित किया है। यह केवल चार वर्ष राज कर सका। इस अल्पस्थायी राज्यकाल में इसने आप ‘ कीर्ति को धूल में मिला दी। आखिर सब सरदारों ने मिलकर इसे पद्भ्रष्ट कर दिया तथा इसे देश से भी निकाल दिया। इसके बाद वह सहायता पाने की आशा से तत्कालीन दिल्ली सम्राट बहलोल लोदी से मिलने के लिये रवाना हुआ, पर बीच ही में बिजली गिरने से इस पापी को अपने पापों के प्रायश्वित रूप में प्रकृति की ओर से प्राणदंड मिला। इसके बाद राणा रायमल राजसिंहासन पर विराजे। ये योग्य पिता के योग्य पुत्र थे। इन्होंने गद्दी पर बेठते ही तत्कालीन मुगल सम्राट पर विजय प्राप्त की। आपने मालवे के सुलतान को भी युद्ध में पछाड़ा। आपके संग्राम सिंह प्रथ्वीराज और जयमल नामक तीन पुत्र थे। सन् 1509 में आपका देहान्त हो गया। आपके बाद आपके पुत्र सांगा या संग्राम सिंह राज्यासन पर विराजे। ये अपने स्वर्गीय पितामह महाराणा कुम्भा की तरह महा पराक्रमी थे।
महाराणा सांगा उदयपुर राज्य
महाराणा सांगा का इतिहास जानने से पहले तत्कालीन परिस्थिति जान ले जरूरी है:– अजमेर के चौहानों, कन्नौज के गहरवालों और गुजरात के सोलंकियों का पतन होते ही उदयपुर राज्य में गुहिलोत और मारवाड़ में राठोड़ हिन्दुस्तान के राजनैतिक गगन पर चमकने लगे। इनके चमकने से सारी राजपूत जाति में पुनः नवजीवन का संचार होने लगा। इधर दिल्ली में अफगानों की शक्ति दिन प्रति दिन घटने लगी। राजपूतों की उन्नति और अफगानों की अवनति से देश के अन्दर ऐसे चिन्ह दृष्टिगोचर होने लगे कि अब वह समय दूर नहीं है, जब हिन्दू लोग पुनः अपना नष्ट साम्राज्य प्राप्त कर लें।
ऐसे अवसर पर पैतृक धन को पुन: प्राप्त करने के लिये हिन्दुस्तान के रंग मंच पर महाराणा सांगा प्रकट हुए। तत्काल ही वे सारी हिन्दू जाति के नेता बन गये। उनका देश प्रेम और कर्तव्य पालन, उनके उच्च विचार और उदारता, उनकी वीरता और महान मन- स्विता और हिन्दुस्तान के सब से अधिक शक्तिशाली राज्य के स्वामी होने के परिणाम स्वरूप उनकी स्थिति ने उन्हें इस उच्च स्थान को ग्रहण करने के योग्य सिद्ध किया। सुप्रसिद्ध इतिहास लेखक हरबिलास शारदा लिखते हैं. कि “साँगा भारत के वे अन्तिम सम्राट थे कि जिनकी अधीनता में समस्त राजपूत जातियाँ विदेशी आक्रमणकारियों को निकालकर बाहर करने के लिये एकत्रित हुई।” परवर्ती काल में यद्यपि कई नेताओं का उत्थान हुआ, और कई वीरों ने अद्वितीय साहस के कार्य सम्पादन किये। महान युद्ध भी किये। अपने समय की सबसे अधिक बलशाली शक्तियों का मुकाबला भी किया। परन्तु राणा सांगा के पश्चात् कभी किसी ऐसे राजपूत का उत्थान न हुआ जिसमे समस्त राजपूत जाति की हार्दिक शक्ति और सम्मान पर आधिपत्य प्राप्त किया हो तथा जिसने भारत के मुकुट के लिये मध्य एशिया के उन आक्रमणकारियों से-जिनके भाई बन्धुओं ने दक्षिणी युरोप को तहस नहस कर डाला था। लड़ने के लिये भिन्न भिन्न राजपूत जातियों को सम्मिलित कर उनका नेतृत्व ग्रहण किया हो। साँगा के समय में भारत का राजनेतिक गगन बहुत मेघाच्छन हो रहा था। कई आपत्तियाँ भारत के सर पर मंडरा रही थीं। साम्राज्य छिन्न भिन्न हो रहा था। एक ओर मुसलमान आक्रमणकारियों की धूम थी दूसरी ओर राजपूत ही आपस में लड़कर कट रहे थे।पारस्परिक द्वेष की अग्नि खम्ताज में धाँय धांय करके जल रही थी। ऐसे कठिन समय में राणा संग्रामसिंह ( साँगा ) अवतीर्ण हुए। उन्होंने अपनी बुद्धिमानी और पराक्रम के जोर पर सारे साम्राज्य को फिर श्रृंखलाबद्ध कर दिया और वह समय बहुत ही अनकरीब रह गया था, जब वे दिल्ली में इब्राहिम लोदी के सिंहासन पर आरूढ़ होते; पर यह आशा देव दुर्वियोग से कहिये या हिन्दुओं के चरित्र की उन नाशकारी त्रुटियों के कारण कहिये-जों उनके सामाजिक और धार्मिक अन्ध विश्वासों के कारण उत्पन्न हुई थीं, शीघ्र ही निराशा में परिणत हो गई। विजय का प्याला जो होठों तक पहुँच चुका था, प्रथ्वी पर गिरा दिया गया। हिन्दू साम्राज्य के स्थान पर, हिन्दुओं ही की सहायता से मुग़ल साम्राज्य की नींव पड़ी।
जुल्म और राज्यारोहण
महाराणा सांगा ( संग्रामसिंह ) उदयपुर के प्रसिद्ध राणा कुम्भा के पौत्र और राणा रायमल के पुत्र थे। राणा रायमल के ग्यारह रानियों थीं, जिनसे उनको चौदह पुत्र और दो कन्याएं उत्पन्न हुईं। सबसे ज्येष्ठ पुत्र का नाम प्रथ्वीराज था। ये बड़े ही वीर और तेजस्वी थे। बदनोर के राव सुल्तान की इतिहास प्रसिद्ध कन्या ताराबाई इन्हीं की महिषी थीं। इन्होंने कई ऐसे बहादुरी के कार्य किये जो आज भी इतिहास के अन्दर प्रसिद्ध हैं। अप्रासंगिक होने से उनका वर्णन यहाँ पर करना व्यर्थ है। पृथ्वीराज को उनके बहनोई जयपाल ने धोखे से विष देकर मार डाला। वीर रमणी तारा अपने पति के साथ सती हुई। पृथ्वीराज की मृत्यु के पश्चात् राणा संग्रामसिंह युवराज की जगह चुने गये। ये राणा रायमल के तीसरे पुत्र थे। वि० संवत् 1566 में राणा रायमल का देहान्त हो गया। उनके स्थान पर ज्येष्ठ सुदी 5 वि०सं० 1566 के दिन संग्रामसिंह सिंहासनारूढ़ हुए। सिंहासन पर बैठते ही राणा सांगा ने अपने राज्य की सीमा को बढ़ाना प्रारंभ किया। केवल पश्चिम को छोड़कर, जहाँ कि राठौड़ों का सितारा तेजी पर था–सांगा का राज्य दिल्ली, गुजरात और मालवा के मुसलमान राज्यों से घिरा हुआ था। राणा सांगा को इन तीनों राज्यों से युद्ध करना पड़ा। इन तीनों राज्यों ने एकत्रित होकर सम्मिलित शक्ति से एक ही स्थान पर राणा सांगा से युद्ध किया। परन्तु संग्रामसिंह ने अपने अपूर्व युद्ध-कौशल के बल से उस सम्मिलित शक्ति को परास्त कर दिया। उन्होंने शत्रु के कई प्रान्तों पर अधिकर भी कर लिया। संग्रामसिंह ने अपने कृत्यों से उदयपुर राज्य के महत्त्व को इतना बढ़ा दिया कि उसकी समानता चौहान साम्राज्य के पतन के पश्चात कोई भी राज्य नहीं कर सकता। उन्होंने अपने वीर कार्यों से भारत में बहुत शासन प्राप्त किया। एसकिन ने लिखा है–“उस समय समस्त भारत वासियों के हृदय में ये तरंगे उठने लगीं कि अब बहुत शीघ्र राज्य परिवर्तन होने वाला है, और इस आशा द्वारा वे प्रसन्नता से भारत में स्वदेशी राज्य की स्थापना का स्वागत करने को तैयार हो उठे।” 16 मार्च सन् 1527 ई० को यदि खानवा के मैदान में एक दुर्घटना न हुई होती तो निश्चय था कि भारत का शाही मुकुट एक हिन्दू के मस्तक पर विराजमान होता और प्रभुत्व की पताका इंद्रप्रस्थ को छोड़कर चित्तौड़ की बुर्जों पर लहराती।
महाराणा संग्रामसिंह को अपने जीवन-काल में कितने ही युद्ध करने पड़े। जिनमें से सुलतान इब्राहीम लोदी के साथ का युद्ध, सुलतान मुहम्मद खिलजी के साथ का युद्ध, गुजरात का आक्रमण ओर मुज़फ्फर शाह का उदयपुर राज्य पर आक्रमण विशेष मशहूर है। इन सब युद्धों में राणा संग्रामसिंह विजयी होते रहे। एक युद्ध में उनका बांयाँ हाथ बिलकुल कट गया ओर एक पैर लंगड़ा हो गया। एकाक्षी तो वे पहले ही हो गये थे, इस प्रकार इन युद्धों की वजह से महाराणा सांगा एक आँख व एक हाथ से बिलकुल वंचित और एक पैर से अर्द्ध वंचित हो गये।
स्वेच्छा से राज छोड़ने की घोषणा
अंगहीन होने के कुछ दिनों के पश्चात् हकीमों की चिकित्सा से महाराणा सांगा जब आराम हो गये तो इसके उपलक्ष में उत्सव मनाने के निमित्त उन्होंने सब सरदारों और उमरावों को आमंत्रित किया। महाराणा इस बड़े दरबार में आये, और उनका उचित सत्कार भी हुआ, पर सदा के रिवाज की तरह उन्होंने दोनों हाथ छाती तक न उठा कर केवल दाहिना हाथ सिर तक उठाया। इस प्रकार सब॒ लोगों के अभिवादन का जवाब दिया। इसके पश्चात् हमेशा की तरह राज्य सिंहासन पर न बैठ कर वे एक साधारण सरदार को तरह जमीन पर ही बैठ गये। इस घटना से तमाम दरबारी आश्चर्य निमग्न हो गये। वे आपस में कानाफूसी करने लगे । इस पर महाराणा सांगा ने स्वयं ही खड़े होकर ऊँची आवाज से कहा– “भारत का यह प्राचीन और दृढ़ नियम है कि जब कोई मूर्ति टूट जाये या उसका कोई हिस्सा खण्डित हो जाय तो फिर वह पूजा के योग्य नहीं रहती। उसके स्थान पर दूसरी मूर्ति स्थापित की जाती है। इसी प्रकार राज्य-सिंहासन– जो कि प्रजा की दृष्टि में पूजनीय है- पर बेठने वाला व्यक्ति भी ऐसा होना चाहिये जो सर्वांग हो और राज्य की सेवा करने के पूर्ण योग्य हो। मेरी एक आँख के सिवाय एक भुजा और एक पैर भी निकम्मा हो गया है। ऐसी हालत में में अपने आपको कदापि इस योग्य नहीं समझता। इसलिये इस पवित्र स्थान पर आप सब लोग जिसे उचित समझें, बिठलाये और मुझे अपने निर्वाह के लिये कुछ दें दें जिससे में भी अन्य सामन्तों की तरह अपनी हैसियत के अनुसार राज्य की
सेवा कर सकूं।”
इस पर सब दरबारियों ने कहा कि महाराणा की अंगहानि रणक्षेत्र में हुईं है, इसलिये यह हानि राज्य-सिंहासन के गौरव को घटाने की अपेक्षा वद्धित ही अधिक करेगी। यह कह कर सब लोगों ने महाराणा सांगा का हाथ पकड़ कर उन्हें राज्य-सिंहासन पर आरूढ़ कर दिया। घटना बहुत साधारण है। पर हिन्दुओं की राज्य कल्पना के वास्तविक उद्देशों को बतलाने वाली है। यह घटना बतलाती है कि हिन्दुओं की राज्य कल्पना का आर्दश यह नहीं था कि राजा प्रजा को अपनी इच्छानुकूल चलावे, और देश का शासन भी अपनी व्यक्तिगत इच्छा के अनुसार करे। बल्कि वह आर्दश यह था कि राजा प्रजा का मुख्य कर्मचारी है और उसका शारीरिक सुख, आकांक्षाएँ और व्यवसाय प्रजा की भलाई के नीचे हैं।उसका कर्तव्य शासन करना है न कि अधिकार। यदि प्रजा की सेवा करने योग्य गुणों की उसमें न्यूनता हो तो उसे सिंहासन-त्याग के निमित्त हमेशा प्रम्तुत रहना चाहिये।
भारत पर मुगलों का आक्रमण
जिस समय भारत के अन्दर पठानों की ताकत लड़्खड़ा कर गिरने
वाली थी, उस समय काबुल में एक असाधारण योग्यता वाले पुरुष का आविर्भव हुआ। इस व्यक्ति का नाम जहिरुद्वीन मुहम्मद बाबर था। 15 फरवरी सन् 1483 में फरगाना नामक छोटी सी रियासत के राजा उमरशेख के घर बाबर का जन्म हुआ। 11 वर्ष की उमर होने पर बाबर के पिता का देहान्त हो गया और उसी दिन से वह अपने बाप की रियासत का मालिक हुआ। बाबर बचपन से ही नेपोलियन की तरह महत्वाकांक्षी था ओर इन्हीं ऊँची महत्त्वाकांक्षाओं के कारण उसे ऐसी भयंकर विपत्तियों का सामना करना पड़ा कि कभी कभी तो उसके पास खाने को चने तक नहीं रहते थे। पर उत्साही बाबर के हृदय पर इन विपत्तियों का विशेष प्रभाव न पड़ा। इन विपत्तियों के आने से उसकी महत्त्वाकांक्षाओं को अधिकाधिक बल मिलता गया।
मतलब यह कि अनेक स्थानों पर भ्रमण करते करते अन्त में बाबर
को एक बुढ़िया के द्वारा हिन्दुस्तान की शम्य श्यामला भूमि का पता लगा। भारत भूमि की इतनी प्रशंसा सुनते ही उसके मुँह में पानी भर आया। महत्वाकांक्षी तो वह था ही, भावी विपत्तियों की रंचमात्र भी पर्वाह न कर वह 12000 सैनिकों को साथ लेकर भारत विजय के निमित्त चल पड़ा। रास्ते में और भी बहुत से लोग आ आकर उसकी फौज में मिलने लगे। सबसे पहले पानीपत के मशहूर रणक्षेत्र में दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी से उसका मुकाबला हुआ। यहाँ आते आते बाबर की सेना 70000 के लगभग हो गई थी। 19 अप्रैल 1526 के दिन यह इतिहास प्रसिद्ध भयंकर युद्ध हुआ। जिसमें इब्राहीम लोदी की फौज पराजित हुईं, और विजयमाला बाबर के गले में पड़ी। इसके एक ही सप्ताह पश्चात् दिल्ली का शाही ताज बाबर के मस्तक पर मंडित हुआ और उसी दिन से भारत हमेशा के लिए सूत्ररूप से गुलाम हो गया। इब्राहीम लोदी से विजय पाने पर भी बाबर निश्चिन्त न हुआ। वह भली प्रकार जानता था कि हिन्दुस्तान में उसका प्रधान शत्रु इब्राहीम लोदी नहीं है, प्रत्युत राणा संग्रामसिंह है, ओर इसलिये वह महाराणा सांगा ( संग्रामसिंह ) पर विजय प्राप्त करने के साधन इकट्टे करने लगा।
राणा सांगा और बाबर
इस स्थान पर प्रसंगवशात् हम राणा सांगा और बाबर के जीवन पर एक तुलनात्मक दृष्टि डालना उचित समझते हैं। क्योंकि हमारे खयाल से इन दोनों महापुरुषों के जीवन में बहुत कुछ साम्य है। राणा सांगा और बाबर ये दोनों ही भारत में अपने समय के प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। जिस प्रकार राणा सांगा एक साधारण राजपूत न थे, उसी प्रकार बाबर भी साधारण व्यक्ति न था। दोनों एक ही ढंग के और एक ही अवस्था के थे। राणा सांगा का जन्म 1482 में ओर बाबर का 1483 में हुआ था। दोनों वीर थे ओर दोनों ही ने मुसीबत के मदरसों में तालीम पायी थी। बाबर का पूर्व जीवन दुःख निराशा और पराजय में व्यतीत हुआ था। फिर भी उसमें अदम्य उत्साह, भारी महत्त्वाकांक्षा कर्म शीलता ओर निजी वीरता का काफ़ी समावेश था। विपरीत परिस्थितियों के धक्के खा खाकर इतना मज़बूत हो गया था कि कठिन से कठिन विपत्ति के समय में भी उसका धैर्य विचलित न होता था। उसका जीवन उत्तर की जंगली जातियों और तुर्किस्तान तथा ट्रान्स आक्सियाना की क्रूर, उपद्रवी और विश्वासघाती जातियों में व्यतीत हुआ था। इसके बलवान शरीर, अदम्य साहस और बेशकिमती तजुरबे ने ही मनुष्यता और सभ्यता में उन्नत राजपूत जाति का मुकाबला करने में सहायता की। बाबर का आचरण शुद्ध था, वह एक सच्चा मुसलमान था, हमेशा हँस मुख ओर प्रसन्न रहा करता था। राजनैतिक मामलों को छोंडकर दूसरी बातों में वह उदार भी था । व्यक्तिगत योग्यता और नेतृत्व की दृष्टि से वह उन तमाम सरदारों और नेताओं से-जो उसके पूर्व भारत में आ चुके थे—अधिक बुद्धिमान और शक्तिशाली था। साहस, दृढ़ता और शारीरिक पराक्रम में वह महाराणा के समान ही था। पर शुरता, वीरता, उद्धारता आदि गुणों में वह महाराणा संग्रामसिंह से कम था, पर इसके साथ ही स्थिति के अनुभव में, सहन शीलता और धैर्य में वह महाराणा सांगा से बढ़कर भी था। लगातार की पराजय और क्रमागत दुखों की लड़ी ने बाबर को धैर्यवान, स्थिति-परीक्षक और धूर्त बना दिया। भयंकर संकटो की अग्नि में पड़ कर उसकी विचार शक्ति तप्तसुवर्ण की तरह शुद्ध हो गई थी और इस कारण वह मानवीय हृदय और मनुष्य के मानसिक विकारों के परखने में निपुण हो गया था। पर इसके विरुद्ध महाराणा सांगा में लगातार सफलता के मिलते रहने से और विपत्तियों की बौछार न पड़ने से इन गुणों का समावेश न हो पाया। लगातार की विजय से उनके हृदय में आत्म विश्वास, साहस और आशावाद का संचार हो गया। जिसके कारण वे परिस्थिति का रहस्य समझने में और लोगों के मनोभावों के परखने में कुछ कमजोर रह गये ओर इन्हीं गुणों की कमी के कारण शायद उनकी यह इतिहास-विख्यात पराजय हुई। महाराणा सांगा महावीर और शूर नेता थे; तो बाबर अधिक राजनीतिज्ञ,अधिक चतुर और कुशल सेनापति था। सांगा की ओर प्रतिष्ठा, वीरता, साहस और सेना की संख्या अधिक थी; तो बाबर की ओर युद्ध नीति, चतुरता और धार्मिक उत्साह का आधिक्य था। मतलब यह कि भारत के तत्कालीन इतिहास में ये दोनों ही व्यक्ति महापुरुष थे।
खानवा का युद्ध
हम पहले ही लिख आये हैं कि बाबर को जितना डर महाराणा सांगा का था, उतना किसी का भी नहीं था। इसलिये वह राणा को पराजित करने के लिये कई दिलों से तैयारी कर रहा था। अन्त में ११ फ़रवरी सन् 1527 के दिन बाबर, राणा सांगा से मुकाबला करने के लिये आगरा से रवाना हुआ। कुछ दिनों तक वह शहर के बाहर ठहर कर अपनी फौज ओर तोपखाने को ठीक करने लगा। उसने आलमखाँ को ग्वालियर एवं मकन, कासिमबेग, हमीद और मोहम्मद जैतून को ‘संबल भेजा और वह स्वयं मेढाकुर होता हुआ फतहपुर सीकरी पहुँचा। यहां आकर वह अपनी मोर्च बंदी करने लगा।
इधर महाराणा सांगा भी बाबर का मुकाबला करने के लिये चित्तौड़ पहुँचे। इब्राहीम लोदी के खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने की इच्छा से उनका भाई मुहम्मद लोदी भी राणा की शरण में आ गया था। इसके अतिरिक्त और कई अफगान सरदारों से– जो कि बाबर को हिन्दुस्तान से निकालना चाहते थे, राणा सांगा को सहायता मिली थी। राणा सांगा की फौज के रणथम्भौर पहुंचने का समाचार जब बाबर को मिला तो वह बहुत डर गया। क्योंकि राणा सांगा के बल और विक्रम से वह पूर्ण परिचित था। वह अपनी दिनचर्यामें भी लिखता है कि “ सांगा बड़ा शक्तिशाली राजा था और जो बड़ा गौरव उसको प्राप्त था, वह उसकी वीरता और तलवार के बल से ही था।” अस्तु, जब उसने सुना कि राणा सांगा बढ़ते चले आ रहे हैं तो उसने तोमर राजा सिलहदी के द्वारा संधि का प्रस्ताव भेजा, पर राणा ने उसे स्वीकार नहीं किया और कंदर के मज़बूत किले पर अधिकार करते हुए वे बयाना की ओर आगे बढ़ने लगे। रास्ते में हसनखाँ मेवाती नामक अफ़गान भी 10000 सवारों के साथ महाराणा सांगा की सेना में आ मिला। बाबर अपनी दिनचर्या में लिखता है:— “ जब उसकी सेना में यह खबर पहुँची कि राणा सांगा अपनी सम्पूर्ण सेना के साथ शीघ्रता से आ रहा है तो हमारे गुप्तचर न तो बयाने के किले में पहुँच सके और न वहां की कुछ खबर ही वे पहुँचा सके। बयाने की सेना कुछ दूर तक बाहर निकल आईं। शत्रु उस पर टूट पड़ा और वह भाग निकली। तब महाराणा सांगा ने बयाना पर अधिकार कर लिया।
इसके पश्चात् महाराणा की सेना और आगे बढ़ी और 21 फरवरी 1527 को उसने बाबर की आगे वाली सेना को बिलकुल नष्ठ कर दिया। यह समाचार बाबर को मालूम हुआ तो वह विजय की ओर से पूरा निराश हो गया ओर आत्मरक्षा के लिये मोर्च बन्दी करने लगा।एर्सकिन साहब लिखते हैं कि मुग़लों के साथ राजपूतों की गहरी मुठभेड़ हुईं, जिसमें मुगल अच्छी तरह पीटे गये। इस पराजय ने उन्हें अपने लिये शत्रु की प्रतिष्ठा करना सिखाया। कुछ दिन पूर्व मुग़ल सेना की एक टुकड़ी असावधानी से किले से निकल कर बहुत दूर चली आई। उसे देखते ही राजपूत उस पर टूट पढ़े और उसे वापस किले में भगा दिया। उन्होंने वहाँ जाकर अपनी सेना में राजपूतों के वीरत्व की बड़ी प्रशंसा की जिस से मुगल लोग और सी भयभीत हो गये। उत्साही, शूर, योद्धे ओर रक्तपात के प्रेमी राजपूत जातीय भाव से प्रेरित होकर अपने वीर नेता की अध्यक्षता में शत्रु के बढ़े से बड़े योद्धा का सामना करने को तैयार थे और अपनी आत्म प्रतिष्ठा के लिये जीवन विसर्जन करने को हमेशा प्रस्तुत रहते थे। स्टेनली लेनपूल लिखते हैं कि “राजपूतों की शूरवीरता और प्रतिष्ठा के उच्चभाव उन्हें साहस और बलिदान के लिये इतना उत्तेजित करते थे जितना कि बाबर के अर्द्धसभ्य सिपाहियों के ध्यान में भी आना कठिन था। बाबर के अग्रभाग के सेनापति मीर अब्दुल अजीज ने सात आठ मील तक आगे बढ़कर चौकियाँ कायम की थीं पर राजपूतों की सेना ने उन्हें नष्ट कर दिया।
इस तरह राजपूतों की निरन्तर सफलता, उनके उत्साह, उनकी
आशातीत सफलता ओर उनकी सेना की विशालता-जो क़रीब सवा लाख होगी, को देखकर बाबर की सेना में समष्टिरूप से निराशा का दौर दौरा हो गया। इससे बाबर को फिर एक बार सुलह की बात छेड़ना पड़ी। इस अवसर में उसने अपनी मोर्चे बन्दी को और भी मजबूत किया। इतने में काबुल से चला हुआ 500 स्वयं सेवकों का एक दल उसकी सेना में आ मिला, पर बाब॒र की निराशा और बैचेनी बढ़ती ही गई। तब उसने अपने गत जीवन पर दृष्टि डालकर उन पापों को जानना चाहा, जिनके फल स्वरूप उसे यह् दु:ख उठाना पड़ रहा था। अन्त में उसे प्रतीत होने लगा कि उसने नित्य मदिरापान का स्वभाव डालकर अपने धर्म के एक मुख्य सिद्धान्त को कुचल डाला है। उसने उसी समय इस संकट से बचने के लिये इस पाप के को तिलांजलि देने का विचार किया। उसने मदिरापान की कसम ली ओर शराब पीने के सोने चाँदी के गिलासों और सुराहियों को उसने तुड़वा कर उनके टुकड़ों को गरीबों में बंटवा दिया। इसके अतिरिक्त मुसलमानी धर्म के अनुसार उसने दाढ़ी न मुडवाने की प्रतिज्ञा की। पर इन कामों से सब लोगों की निराशा घटने के बदले अधिकाधिक बढ़ती ही गई। वह अपनी दिनचर्या में लिखता है:—
इस समय पहले की घटनाओं से क्या छोटे ओर क्या बड़े सब ही
भयभीत हो रहे थे। एक भी आदमी ऐसा नहीं था, जो बहादुरी की बातें करके साहस वर्द्धित करता हो। वजीर जिनका फर्ज ही नेक सलाह देने का था, और अमीर जो राज्य की सम्पत्ति को भोगते आ रहे थे, कोई भी वीरता से न बोलता था, और न उनकी सलाह ही दृढ़ मनुष्यों के योग्य थी। अन्त में अपनी फौज में साहस और वीरता का पूर्ण अभाव देखकर मैंने सब अमीरों ओर सरदारों को बुलाकर कहा— सरदारों और सिपाहियों ! प्रत्येक मनुष्य जो इस संसार में आता है, वह अवश्य मरता है। जब हम यहाँ से चले जायगे तब एक निराकार ईश्वर ही बाकी रह जायगा। जो कोई जीवन का भोग करेगा, उसे जरूर ही मौत का प्याला पीना पड़ेगा। जो इस दुनियां में मौत की सराय के अन्दर आकर ठहरता है, उसे एक दिन जरूर बिना भूले इस घर से विदा लेनी होगी। इसलिये अप्रतिष्ठा के साथ जीते रहने की अपेक्षा प्रतिष्ठा के साथ मरना कहीं उत्तम है। परमात्मा हम पर प्रसन्न हैं, उसने हमें ऐसी स्थिति में ला रखा है कि यदि हम लड़ाई में मारे जाये तो शहीद होंगे ओर यदि जीते रहे तो विजय प्राप्त करेंगे। इसलिये हम सबको मिलकर एक स्वर से इस बात की शपथ लेना चाहिये कि देह में प्राण रहते कोई भी लडाई से मुँह न मोड़ेगा और न युद्ध अथवा मारकाट में पीठ दिखावेगा।
इस भाषण से उत्साहित होकर क़रीब 20000 वीरों ने कुरान हाथ
में ले लेकर कसम खाई। पर बाबर को इस पर भी विश्वास न हुआ और उसने सिलहिदी को सुलह का पैग़ाम लेकर फिर राणा के पास भेजा। बाबर ने इस शर्त पर महाराणा सांगा को कर देना स्वीकार किया कि वह दिल्ली ओर उसके अधीनस्थ प्रान्त का स्वामी बना रहे। पर महाराणा सांगा ने इसको भी स्वीकार न किया । इससे सिलहिद्दी बहुत अप्रसन्न हुआ और उसने भविष्य में महाराणा के साथ किस प्रकार विश्वासघात कर इसका बदला लिया यह आगे जाकर मालूम होगा। अस्तु ! जब बाबर संधि से बिलकुल निराश हो गया तो अन्त में उसने जी तोड़ कर लड़ाई करना ही निश्चित किया। यदि इसी अवसर पर महाराणासुस्ती न करके उस पर आक्रमण कर देते तो मुग़ल वंश कभी दिल्ली के सिंहासन पर प्रतिष्ठित न होता और आज भारत के इतिहास का रूप ही दुसरा नजर आता। पर जब दैव ही अनुकूल में हो तो सब का किया हो ही क्या सकता है। हाँ, भारत के भाग्य में गुलाम होना बदा था।
बाबर ने सब प्रोग्राम निश्चित कर अपने पड़ाव को वहाँ से हटा कर
दो मील आगे वाले मोर्चे पर जमाया। 12 मार्च को बाबर ने अपनी सेना ओर तोपखाने का इन्तिजाम किया और उसने चारों ओर घुमकर सब लोगों को दिलासा दे दे कर उत्तेजित किया। प्रातकाल साढ़े नौ बजे युद्ध आरंभ हुआ। राजपूतों ने बाबर की सेना के दाहिने और मध्य भाग पर तीन आक्रमण किये। जिसके प्रभाव से वे मैदान छोड़ कर भागने लगे। इस पर अलग रखी हुई सेना उसकी मदद के लिये भेजी गई और राजपूतों के रिसालों पर तोपें दागना प्रारंभ हुई, पर बीर राजपूत इससे भी विचलित न हुए । वे उसी बहादुरी के साथ युद्ध करते रहे। इतने ही में दगाबाज सिलदहिद्दी अपने 35000 सवारों को लेकर सांगा का साथ छोड़ बाबर से जा मिला। पर इसका भी राजपूत-सैन्य पर कुछ विशेष प्रभाव न पड़ा, वह पूर्ववत ही लड़ती रही। इन सब घटनाओं के साथ ही एक घटना और हो गई, जिसने सारे युद्ध के ढंग को ही बदल दिया। वह समय बहुत ही निकट आ चुका था कि जब बाबर की फौज भागने लगती, पर इसी बीच किसी मुगल सैनिक का चलाया हुआ तीर महाराणा सांगा के मस्तक पद इतने ज़ोर से लगा कि जिससे वे बेसुध हो गये। बस, इस समय में महाराणा का बेसुध,हो जाना ही हिन्दुस्तान के दुर्भाग्य का कारण हो गया।यद्यपि कुछ लोगों ने चतुराई के साथ उनके रिक्तस्थान पर सरदार आज्जाजी को बिठा दिया, पर ज्यों ही राजपूत सेना में महाराणा सांगा के घायल होने का समाचार फैला त्योंही वह निराश हो गई, ओर उसके पैर उखड़ने लगे। इधर अवसर देखकर मुग़लों ने ज़ोरशोर से आक्रमण कर दिया, फल वही हुआ जो भारत के भाग्य में लिखा था। राजपूत सेना भाग