उज्जैनमध्य प्रदेश राज्य का एक प्राचीन, ऐतिहासिक और धार्मिक नगर है। उज्जैन शहर क्षिप्रा नदी के किनारे स्थित है। उज्जैन को भारत की सांस्कृतिक काया का मणिपुर-चक्र और भारत की मोक्ष दायिका सात प्राचीन पुरियों में से एक माना गया है। प्राचीन विश्व की याम्योत्तर (शून्य देशांतर) रेखा यहीं से गुजरती थी। पुराणों में उज्जयिनी, अवंतिका, अमरावती, प्रतिकल्पा, कुमुद्बती आदि नामों से इसकी महिमा गायी गई है। महाकवि कालिदास द्वारा वर्णित “श्री विशाला विशाला” एवं भाणों में उल्लिखित “सार्वभौम” नगरी यही रही है। इस नगरी से ऋषि सांदीपनि, महाकात्यायन, भाष, सिद्धसेन दिवाकर, भर्तृहरि, कालिदास- वराहमिहिर- अमर- सिंहादि नवरत्न, परमार्थ, शुद्रक, बाणभट्ट, मयूर, राजशेखर, पुष्पदंत, हरिषेण, शंकराचार्य, बलल्लभाचार्य, जगदरूप आदि संस्कृतिवेत्ता महापुरुषों का घनीभूत संबंध रहा है। इस प्रकार उज्जयिनी धर्म और संस्कृति के विभिन्न आयामों से समृद्ध रही है।
उज्जैन का इतिहास – उज्जैन हिस्ट्री इन हिन्दी
राजनैतिक दृष्टि से उज्जैन का एक लंबा इतिहास रहा है।
उज्जैन के गढ़ क्षेत्र में हुए उत्खनन से आद्यैतिहासिक एवं प्रारंभिक लोहयुगीन सामग्री प्रभूत मात्रा में प्राप्त हुई है। पुराणों व महाभारत में उल्लेख आता है कि वृष्णि, वीर कृष्ण व बलराम यहां गुरू सांदीपनि के आश्रम में विद्याध्ययन हेतु आए थे। कृष्ण की एक पत्नी मित्रवृंदा उज्जैन की ही राजकुमारी थी। उसके दो भाई विंद एवं अनुविंद महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। बुद्ध के समय में चण्डप्रद्योत यहां का एक अत्यंत प्रतापी शासक हुआ। भारत के अन्य शासक उससे भय खाते थे। उसकी दुहिता वासवदत्ता एवं वत्स नरेश उदयन की प्रणय गाथा इतिहास-प्रसिद्ध हैं।
प्रद्योत वंश के उपरांत उज्जैन मगध साम्राज्य का अंग बन गया। यह शहर प्राचीन अवंति राज्य (मध्य मालवा) के उत्तरी भाग की राजधानी था। मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य यहां आया था। उसके बेटे बिंदुसार के राज्य में उसका पौत्र अशोक यहां का राज्यपाल रहा था। अशोक की एक भार्या वेदिसा देवी से उसे महेंद्र और संघमित्रा जैसी संतति मिली, जिसने कालांतर में श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया था। 232 ई०पू० में अशोक का पौत्र संप्रति इसके पश्चिमी इलाकों का राजा बना और उसने उज्जैन को अपनी राजधानी बनाया। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद शक राजाओं ने यहां पहली से चौथी शताब्दी तक शासन किया और उज्जैन शकों और सातवाहनों की राजनैतिक स्पर्द्धां का केंद्र बन गया।
शकों के पहले आक्रमण को उज्जैन के वीर विक्रमादित्य ने प्रथम शताब्दी में विफल कर दिया था। 106 और 130 ई० के मध्य सातवाहन राजा गौतमी पुत्र शात्कर्णी ने इसे अपने कब्जे में कर लिया था, किंतु 130 ई० में विदेशी पश्चिमी शकों ने चष्टन के नेतृत्व में उज्जैन हस्तगत कर लिया। बाद में कनिष्क ने इसे चष्टन से छीन लिया था। चष्टन और रूद्रदामा (130-50) शक वंश के प्रतापी महाक्षत्रप थे। रूद्रदामा के पश्चात् उसका पुत्र दमघसद और जीवदामा क्षत्रप बने। 236 से 240 ई० के बीच आभीर राजा ईश्वर दत्त ने इस वंश से कुछ क्षेत्र छीन लिए थे। इस वंश के अंतिम राजा रूद्रसिंह तृतीय ने 390 ई० तक राज्य किया। ऐसा माना जाता है कि अपने साम्राज्य विस्तार के बाद चंद्रगुप्त द्वितीय (375-418) ने शक क्षत्रप को हराकर “शकारि” (शक-नाशक) की पदवी धारण की। उसकी इस विजय ने उस समय भारत में विदेशी शासन का अंत कर दिया और रोम के साथ समुद्री व्यापार का मार्ग खोल दिया।
शकों और गुप्तों के काल में इस क्षेत्र का काफी आर्थिक विकास हुआ। पांचवीं शताब्दी के अंत में हूणों के साथ कुछ गुर्जर लोग भी आए थे और वे प्रतिहार कहलाए। इनकी एक शाखा उज्जैन में राज्य करती थी। उसने नागभट्ट प्रथम के नेतृत्व में अरबों को परास्त किया था। उसका उत्तराधिकारी कुक्कुट था। उसके बाद देवराज तथा वत्सराज राजा बने। वत्सराज ने 744 में चालुक्य राजा विक्रमादित्य की मृत्यु के पश्चात् मालवा जीतकर उज्जयिनी में हिरण्यगर्भ दानोत्सव किया। प्रथम राष्ट्रकूट राजा दंतिदुर्ग (753-60) ने भी उज्जयिनी में हिरण्यगर्भ दानोत्सव किया।
वत्सराज ने कन्नौज के राजा इंद्रायुद्ध को हराकर कुछ समय तक वहां भी अपना शासन स्थापित किया। उसने बंगाल के राजा धर्मपाल को भी हराया, परंतु 792 में वह राष्ट्रकूट राजा ध्रुव से हार गया। वत्सराज के बाद नागभट्ट द्वितीय भी 802 में राष्ट्रकूट सेना से हार गया। 810 ई० में उसने चक्रायुद्ध को कन्नौज से खदेड़ दिया। मुंगेर के युद्ध में उसने धर्मपाल को भी हराया। उसके बाद रामभद्र और मिहिरभोज (836-62) गद्दी पर बैठे मिहिरभोज के समय में राष्ट्रकूट राजा कृष्ण द्वितीय उज्जैन तक पहुँच आया था, परंतु हार गया। मिहिरभोज के उत्तराधिकारियों में महेंद्रपाल प्रथम (885-910), भोज द्वितीय और महीपाल (912-42) थे। महीपाल के बाद के शासकों ने कन्नौज से राज्य किया।
उज्जैन के दर्शनीय स्थल963 ई० में राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय ने परमार राजा सीयक को हराकर उज्जयिनी पर अधिकार कर लिया। 1000 से 1300 ई० तक मालवा परमार शक्ति का केंद्र रहा। काफी वर्षों तक उज्जैन उनकी राजधानी में सीयक द्वितीय, मुंजदेव, भोजराज, उदयादित्य तथा नारवर्मन राजाओं ने साहित्य एवं संस्कृति की अपूर्व सेवा की। बारहवीं शताब्दी में अजमेर के शासकअजयराज ने उज्जैन पर आक्रमण किया और यहां के सेनापति को बंदी बना लिया। दिल्ली के दास वंश के शासक अल्तमश ने 1231 में और खिलजी वंश के शासक अलाउद्दीन खिलजी ने 1305 में आक्रमण कर उज्जैन पर कब्जा कर लिया। 1398 में तैमूर लंग के आक्रमण के बाद उपजी अराजकता के फलस्वरूप फिरोजशाह तुगलक के धार के जागीरदार दिलावर खाँ ने 1401 ई० में मांडू में अपने आपको दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र घोषित कर लिया। उसके पुत्र हुसंग शाह (1405-34) ने 1406 में अपनी राजधानी उज्जैन से मांडू बदल ली थी। इस प्रकार खिलजी तथा अफगान मालवा में स्वतंत्र राज्य करते रहे।
मुगल सम्राट अकबर ने जब मालवा पर अधिकार किया, तो उसने उज्जैन को अपना प्रांतीय मुख्यालय बनाया। मुगल शासक अकबर, जहांगीर, शाहजहां तथा औरंगजेब उज्जैन आए थे। औरंगजेब और दारा ने उज्जैन के निकट ही धरमत में 25 अप्रैल, 1658 को उत्तराधिकार का युद्ध लड़ा था, जिसमें औरंगजेब विजयी रहा। 1723 में बाजीराव ने मालवा पर आक्रमण करके मुगल सूबेदार सैयद बहादुरशाह को हराकर उज्जैन पर कब्जा कर लिया और यहां राणोजी सिंधिया को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया। बाद में राणोजी ने यहां अपना स्वतंत्र शासन स्थापित कर लिया।
1761 में पानीपत का द्वितीय युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई। बाद में माधवराव सिंधिया यहां का प्रसिद्ध शासक हुआ। उसने दिल्ली के मुगल सम्राट पर भी अपना प्रभुत्व जमाया। 1794 में उसकी मृत्यु के बाद दौलतराव सिंधिया (1794-1827) शासक बना। 23 सितंबर, 1803 को लार्ड वेल्जली के भाई आर्थर वेल्जली ने सिंघिया और भौंसले की संयुक्त सेना को असाई के पास हरा दिया। उसने असीरगढ़ और बुरहानपुर पर भी कब्जा करने का प्रयत्न किया। नवंबर, 1803 में सिंधिया की फौजें लसवाड़ी नामक स्थान पर भी पराजित हुई, फलस्वरूप सिंधिया ने अंग्रेजों से संधि कर ली। उसने अपने यहाँ अंग्रेज रेजीडेंट रखना और भसीन की संधि मानना स्वीकार कर लिया। 1810 में दौलतराव सिंधिया ने अपनी राजधानी उज्जैन से ग्वालियर बदल ली।
उज्जैन व्यापार और कला
शकों के काल में उज्जैन व्यापार का केंद्र था। यहां से मूल्यवान और अर्ध-मूल्यवान रत्नों का निर्यात होता था। यहां लोहे और पत्थर की किलेबंदी का काम व्यापक स्तर पर किया गया था। प्राचीन काल में उज्जैन दो व्यापारिक रास्तों के बीच पड़ता था, एक रास्ता भड़ौंच से कौशांबी तक जाताथा और दूसरा पाटलीपुत्र से प्रतिष्ठान तक। सन् 200 ई० के बाद इगेट और कार्नेसिया रत्नों के निर्यात के कारण इसका महत्त्व ज्यादा बढ़ गया था। यहां कच्चा माल क्षिप्रा नदी के माध्यम से प्राप्त किया जाता था। अशोक ने इस शहर का विवरण अपने एक शिलालेख में, कालिदास ने मेघदूत में, बाण भट्ट ने काव्य कादंबरी में और शूद्रक ने मृच्छकटिक में किया है। अल्तमश यहां से विक्रमादित्य की एक प्रसिद्ध मूर्ति दिल्ली ले गया था।
यहां हड़प्पा संस्कृति के बाद के अवशेष मिले हैं। इस संस्कृति के मिट्टी के बर्तन भूरे रंग के और चित्रित होते थे। मकान बनाने के लिए लोग कच्ची ईंटों तथा सरकंडों का प्रयोग करते थे। वे घोड़े और ताँबे से परिचित थे। सभ्यता के अंतिम दिनों में लोहे का प्रयोग भी होने लगा था। वे चावल के अतिरिक्त गाय तथा हिरण का माँस खाते थे।
उज्जैन धर्म और संस्कृति
ह्वांगसांग ने सातवीं शताब्दी में अपनी भारत यात्रा के दौरान इस स्थान की यात्रा भी की थी। यहां का महाकालेश्वर मंदिर प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। उपलब्ध अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गौतम बुद्ध ने भी यहां कई बार धर्म प्रवचन किया था। यहां एक संस्कृत विश्वविद्यालय भी था और यहां की संस्कृत शिक्षा का प्रचार दूर-दूर तक था। उज्जैन प्राचीन काल से ही सभी धर्मों का केंद्र भी रहा है। आधुनिक काल में यह हिंदुओं के उन पवित्र स्थानों में से एक है, जहां बारह और छह वर्षों के पश्चात क्रमशः कुंभ और अर्धकुंभ मेले आयोजित किए जाते हैं। उज्जैन में कुंभ पर्व पर वृहस्पति सिंह राशि पर होता है, इस कारण इसे “सिंहस्थ” भी कहा जाता है। इस पर्व पर स्नान का सर्वाधिक महत्त्व है। इस कारण हजारों साधु-संत तथा लाखों यात्री इस अवसर पर क्षिप्रा स्नान हेतु उज्जैन में एकत्रित होते हैं।
उज्जैन के दर्शनीय स्थल
उज्जैन में अनेक पर्यटन स्थल हैं, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख
क्षिप्रा तट
क्षिप्रा के मनोरम तट पर अनेक दर्शनीय व विशाल घाट हैं, जिनमें त्रिवेणी-संगम, गोतीर्थ, नरसिंह तीर्थ, पिशाचमोचन तीर्थ, हरिहर तीर्थ, केदार तीर्थ, प्रयाग तीर्थ, ओखर तीर्थ, गंगा तीर्थ, मंदाकिनी तीर्थ, सिद्ध तीर्थ आदिविशेष उल्लेखनीय हैं। पुराणों में इसे अमृत संभवा व ज्वरघ्नी माना गया है।
ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर
उज्जैन सभी धर्मों एवं मत-संप्रदायों के समन्वय का केंद्र रहा है। असंख्य शिवलिंगों, एकादश रूद्र, अष्ट भैरव, द्वादश आदित्य, छह विनायक, चौबीस मातृका, मारूति-चतुष्टय, दस विष्णु, नवदुर्गा, नवग्रह आदि के धर्मस्थल इस पवित्र क्षेत्र में होने की चर्चा स्कंदपुराण के अवंतीखंड में आईं है। प्राचीन काल में यहां जैन व बौद्ध धर्म तथा मध्य काल में इस्लाम के विभिन्न संप्रदायों का पर्याप्त प्रचार व प्रसार रहा है। फिर भी उज्जैन मूलतः एक शैव क्षेत्र है। यहां चौरासी ईश्वर विशेष पूजित रहे हैं। इस क्षेत्र के अधिपति भगवान भूतभावन महाकालेश्वर माने गये हैं। यहां का ज्योतिर्लिंग महाकाल दक्षिण मूर्ति होने के भारत के अन्य ज्योर्तिलिंगों की तुलना में विशिष्ट महत्त्व रखता है।
उज्जैन के पर्यटन स्थलपरमार काल में पुनः निर्मित विशालतम महाकाल मंदिर सहित उज्जैन के अनेक प्राचीन मंदिरों को सन् 1235 ई० दिल्ली के गुलामवंशी सुल्तान अल्तमश के धर्माध निर्देश पर ध्वस्त कर दिया गया था। यद्यपि इन स्थानों की पूजा-अर्चना बाद में भी जारी रही, किंतु इनमें से अनेक का पुनः निर्माण मराठा काल में ही संभव हो सका। महाकालेश्वर, अनादि-कल्पेश्वर, वृद्ध-महाकाल, हरसिद्धि, कालिका, चिंतामण-गणेश, द्वारकाधीश (गोपाल), जनार्दन, अनंतनारायण, नवग्रह, तिलभांडेश्वर, कर्कराज आदि मंदिरों का वर्तमान स्वरूप राणोजी सिंधिया के मंत्री रामचंद्र शेणवी की देन है, जिसने उज्जैन के विगत सांस्कृतिक वैभव को बहुत कुछ लौटा दिया। उज्जैन महाकाल मंदिर तीन खंडों वाला एक विशाल धार्मिक निर्माण है और भारत के लाखों यात्रियों की असीम श्रद्धा का केंद्र है।
शैवधर्म-स्थल
महाकाल मंदिर परिसर, मंगलनाथ, कालभैरव, विक्रांत भैरव, दत्त अखाड़ा आदि।
शाक्त धर्म-स्थल
हरसिद्धि, चौंसठ योगिनी, गढ़-कालिका, नगरकोट की रानी
आदि।
वैष्णव धर्म-स्थल
गोपाल मंदिर, अनंतनारायण मंदिर, अंकपात, गोमती कुंड,
राम-जनार्दन मंदिर, श्रीनाथ जी व गोवर्धन नाथ जी की हवेलियां, चतुर व्यूह आदि के मंदिर।
अन्य हिंदू धर्म-स्थल
त्रिवेणी-संगम पर नवग्रह मंदिर, पाटीदारों का राम मंदिर
रामानुजकोट, सराफा का जनार्दन मंदिर, क्षिप्रा तट का क्षिप्रा मंदिर, रणजीत हनुमान मंदिर, चिंतामण-गणेश, मनकामनेश्वर गणेश मंदिर, स्थिरमन (थलमन) गणेश मंदिर आदि।
जैन धर्म-स्थल
अवंतिपार्श्वनाथ मंदिर, नमक मंडी स्थित जिनालय एवं उपाश्रय, जयसिंहपुरा का दिगंबर जैन मंदिर, आसामपुरा का जिनालय।
मुस्लिम धर्म-स्थल
ख्वाजा शकेब की मस्जिद, छत्री चौक स्थित मस्जिद, जामा मस्जिद, बोहरों का रोजा।
ऐतिहासिक स्थल
वैश्या टेकरी का स्तूप स्थल, भृर्तहरि गुफा, पीर मत्स्येंद्र की समाधि, रूमी का मकबरा, बिना नींव की मस्जिद, कालियादेह महल व कुंड, वेधशाला, कोठी महल, बेगम का मकबरा तथा जयपुर के राजा जयसिंह द्वितीय द्वारा 1724 में बनवाया गया जंतर-मंतर।
अन्य दर्शनीय स्थल
विक्रम विश्वविद्यालय परिसर, श्री सिंथेटिक्स, कालिदास अकादमी, सिंधिया प्राच्य शोध संस्थान, विक्रम कीर्ति मंदिर, विक्रम विश्वविद्यालय में पुरातत्त्व संग्रहालय, डॉ. वि. श्री. वाकणकर स्मृति जिला पुरातत्त्व संग्रहालय, जयसिंहपुरा
दिगंबर जेन संग्रहालय, भारतीय कला भवन आदि भी दर्शनीय स्थल हैं।
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