राजस्थान के जयपुर में एक ऐतिहासिक इमारत है ईसरलाट यह आतिश के अहाते मे ही वह लाट या मीनार है जो आज तक गुलाबी नगर की आकाश रेखा बनी हुई है। जयपुर वाले इसे सरगा सूली कहते है, किन्तु इसका अधिकृत ओर उपयुक्त नाम ‘ईसरलाट” है।
ईसरलाट का इतिहास हिन्दी में
1743 ई में सवाई जयसिंह की मृत्यु होने के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र इश्वरी सिंह उसका उत्तराधिकारी हुआ, किन्तु उसके नसीब में न राज लिखा था ओर न चैन। उसका सौतेला भाई माधोसिंह अपने मामा उदयपुर के महाराणा की शह से स्वयं जयपुर का राज्य हथियाने के सपने सजो रहा था। जब माधोसिंह ने महाराणा, कोट के दुर्जनसाल ओर बूंदी के उम्मेद सिंह के सहयोग से जयपुर पर धावा बोला तो ईश्वरी सिंह ने अपने प्रधानमन्त्री राजामल खत्री और धुला के राव के नेतृत्व मे एक सेना भेजी। दोनो ही सेना नायक बडी वीरता से लड़े ओर उन्होंने आक्रमणकारी को रणक्षेत्र छोडकर भागने पर विवश कर दिया। 1744 ई मे यह हमला तो विफल रहा, लेकिन 1748 ई में माधोसिंह ने महाराणा, मल्हार राव होल्कर, जोधपुर, कोटा, बूंदी और शाहपुरा के राजाओं की सहायता से फिर कूच किया। जयपुर से बीस मील दर बगरू के पास दोनो सेनाओ की मुठभेड हुई और सात शत्रुओं की सम्मिलित सेना को ईश्वरी सिंह के सेनापति हरगोविन्द नाटाणी ने फिर परास्त किया। यह सफलता सचमुच बडी महत्त्वपर्ण थी और ईश्वरी सिंह ने इसके उपलक्ष मे 1749 ई मे सात खण्डो या सात मंजिल का यह विजय-स्तम्भ बनवाया, जिसे आज ईसरलाट के नाम से जाना जाता है।
ईसरलाट की कहानी
इस ऐतिहासिक तथ्य की अवहेलना कर जयपुर वासियों ने इस मीनार के साथ एक कहानी जोड दी। यह कहानी ईश्वरी सिंह को अपने प्रधानमंत्री और सेनापति हरगोविन्द नाटाणी की बेटी का प्रेमी बताती है और जताती है कि उसे देखने के लिये ही ईश्वरी सिंह ने यह मीनार बनवाई। उन्नीसवी सदी के अन्त मे श्री कृष्णराम भट्ट ने भी अपने “कच्छवश महाकाव्य” मे इस कहानी को स्थान देकर कुछ श्लोक लिख डाले। किन्तु, उस काल मे राजा की ऐसी इच्छा को पूरी करने के और भी अनेक रास्ते हो सकते थे। यह नितांत हास्यास्पद ही है कि ईश्वरी सिंह जैसा विवेकवान और वीर राजा अपनी किसी चहेती को मात्र देखने के लिये इतनी ऊंची मीनार पर चढ़ता। यह कहानी सभवत पहली बार सूर्यमल्ल मिश्रण के वंश भास्कर मे आई है, जो ईसरलाट के बनने के कम से कम सौ वर्ष बाद लिखा गया था। ” वंश भास्कर” वदी के आश्रय मे लिखा गया था और बूंदी उस युद्ध मे पराजित हुई थी जिसके उपलक्ष मे यह विजय-स्तम्भ बना। इस कहानी से बूंदी के विजेता ईश्वरी सिंह और हरगोविन्द दोनो का ही अपयश हो जाता था ओर उनकी विजय की बात भी गौण। फिर ईश्वरीसिह के आत्मघात के बाद राजा बनने वाले माधोसिह को भी यह विजय- चर्चा नही सहाती होगी। अतः नाटाणी हरगोविन्द की दुहिता ओर ईश्वरी सिंह के प्रेम की बात का बतंगड ही बनता गया और कच्छ वंश महाकाव्य में भी स्थान पा गया।
ईसरलाट मीनार जयपुरअशीम कुमार राय ने इस प्रेम कहानी को सर्वथा अनर्गल ओर बेतुकी माना है, किन्तु उनसे एक भूल हो गई है। उन्होंने हरगोविन्द नाटाणी का मकान छोटी चौपड पर स्थित कोतवाली को बताया है जो ईसरलाट से कोई 500 मीटर दूर है। कोतवाली वास्तव मे सवाई जय सिंह के समकालीन लूणकरण नाटाणी की हवेली थी जबकि हरगोविन्द की हवेली इस लाट के सामने ही नाटाणियों के रास्ते मे है।
हरगोविन्द नाटाणी था तो बनिया, लेकिन था बडा दिलेर और हिम्मतवाला सिपाही। राजमहल की लडाई में वह जयपुर की फौज की हरावल मे था ओर अपनी व्यह-रचना से उसने मरहठों, कोटा और उदयपुर की मिली-जली फौज के छक्के छुड़ा दिये थे। बेशक, इस कामयाबी ने उसके होंसले काफी बुलन्द कर दिये थे ओर वह फोज बख्शी से रियासत के सबसे बडे ओहदे मुसाहिबी पर पहुंचना चाहता था। उस वक्त मुसाहिब था केशवदास खत्री जो सवाई जयसिंह के विश्वासपात्र और काबिल प्रधानमत्री राजामल खत्री का ही पुत्र था और खुद भी बडा काबिल था। लेकिन जब हरगोविन्द महाराजा ईश्वरी सिंह और केशवदास मे मनमुटाव कराने में सफल हुआ तो ईश्वरी सिंह ने केशवदास को जहर खाने के लिये मजबूर कर दिया। केशवदास का मरना था कि ईश्वरी सिंह और जयपुर के बुरे दिन आ गये और सारे शहर में यह बात चल गई
मत्री मोटो मारियो खत्री केशवदास।
अब थे छोडो ईसरा, राज करण री आस।।
माधोसिंह जयपुर की गद्दी हासिल करने के लिये बराबर जोड-तोड कर रहा था ओर अपने मामा उदयपुर के महाराणा की मदद से उसने होल्कर की मरहठा फौज को अपनी हिमायत पर फिर बुला लिया था। ईंश्वरी सिंह के काबिल मुसाहिब को मरवाने वाला हरगोविन्द ईश्वरी सिंह का भी नही रहा। 1750 ईस्वी में जब होल्कर जयपुर पर चढ आया और ईश्वरी सिंह ने हरगोविन्द से फौज जुटाने के लिये कहा तो पहले तो वह दिलासे देता रहा कि ‘एक लाख कछवाहे मेरे खीसे (जेब) में है’ और बाद मे जब हमलावर शहर के बाहर ही आ खडे हुए तो उसने ढिठाई से जवाब दिया कि “हुजूर, खीसा तो फट गया! अब ईश्वरी सिंह क्या करता, सवाई जय सिंह के इस बडे बेटे ने तब अपने को जलील होने से बचाने के लिये सोमलखार (सखिया) खाया और काले साप से अपने आपको डसाया। सारे राजनीतिक जजालो से उसे छट्टी मिल गई।
हरगोविन्द और विद्याधर दीवान ने ईश्वरी सिंह की आत्महत्या का समाचार खुद होल्कर को दिया और पन्द्रह दिन वाद होल्कर माधोसिंह को हाथी पर अपने साथ बैठाकर इस शहर में निकला। इस ऐतिहासिक घटना का एक जयपुरी टप्पा है
माधो मागे आधो’ ईसर दे ने पाव।
ज्यो गोविन्द किरपा करे तो सारा ही पर दाव।।
ईसरलाट की सातों मंजिले अष्टकोणीय बनी है और हर दो मंजिल के बाद चारो ओर घुमती हुई गैलरी या दीर्घा है। दीपावली और अन्य अवसरों पर जब यह मीनार बिजली की रोशनी से प्रकाशमय हो जाती है तो इसकी शोभा देखते ही बनती है। ईसरलाट को किसने बनाया इस पर इतिहास देखने से पता चलता है कि ईसरलाट को बनाने वाले उस्ता (कारीगर) का नाम गणेश खोबाल बताया जाता है।
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