1979 में ईरान के शाह रजा पहलवी के गद्दी छोड़कर भागने तथा धार्मिक नेता अयातुल्लाह खुमैनी के आगमन से आंतरिक विघटन, सांप्रदायिकता तथा बिखराव ने जो माहौल बनाया, उससे ईरान में गृहयुद्ध छिड़ने की अटकलें लगायी जाने लगीं। उधर, इराक ने भी इसे उपयुक्त अवसर,समझा, जब वह ईरान से पुराना हिसाब बराबर कर सकता था। शत-अल-अरब नदी का सीमा-विवाद, शिया-सुन्नी के मजहबी मतभेद, क्षेत्रीयता जैसे अनेक मुद्दे भी साथ ही साथ आ जुड़े और गृहयुद्ध की सम्भावनाएं ईरान-इराक युद्ध मे परिणत हो गयीं यही ईरान इराक युद्ध का कारण रहा।
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ईरान इराक संघर्ष के कारण
ईरान इराक युद्ध की पृष्ठभूमि मे मुख्य रूप से दो बाते खास हैं, जिन्हें आपसी वैमनस्य और तनाव का कारण माना जा सकता है। पहला कारण है सीमा संबंधी विवाद तथा दूसरा धर्म संबंधी। 1977 मे ईरान ने संयुक्त अरब अमीरात से जिन द्वीपों को छीन कर अपने कब्जे में कर लिया था, उन द्वीपों पर इराक अपना अधिकार जताता और निरंतर उन पर अपने स्वामित्व का दावा करता आ रहा था। इसी तरह शत-अल-अरब (Satt al arab) जलडमरूमध्य (Stait) पर 1913 के समझौते के तहत केवल इराक का अधिकार था। बाद मे 1937 मे ईरान ने इस जलडमरूमध्य पर कुछ रियायतें प्राप्त कर ली थी किन्तु 1975 के अल्जीयर्स (Algiers) समझौते के अन्तर्गत इस पर ईरान इराक, दोनों का समान अधिकार स्वीकार किया गया।
अब इराक का कहना था कि 1937 और -1975 के दोनों समझौतो को रद्द करके 1913 वाली स्थिति को फिर से बहाल किया जाये। यह जलडमरूमध्य इराक के लिए इतना महत्त्वपूर्ण इसलिए है, क्योकि ‘बसरा’ नामक माल-बंदरगाह (Commercial port) यही स्थित है। उधर, ईरान का दावा है कि इराक के पास फारस की खाड़ी का मात्र दो प्रतिशत हिस्सा है, अतः शत-अल-अरब जलडमरूमध्य पर उसका कोई अधिकार नही। इसी प्रकार ईरानी क्षेत्र मे स्थित खुर्रम शहर (khorram shahar) पर भी इराक अपना दावा पेश करता रहा है।
दूसरा धर्म सम्बन्धी कारण भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है जिसमे इस युद्ध को सांप्रदायिक रंग दिया। कहा जाता है कि ईरान इराक का युद्ध खास तौर से धर्म के मुद्दे को लेकर ही शुरू हुआ था। ईरान तथा इराक, दोनो देशों में शिया संप्रदाय के लोगो का बहुमत है। शिया लोगो का बहुमत होने के बावजूद इराक में शासन हमेशा सुन्नी लोगो के हाथ मे रहा, जबकि ईरान में शिया सम्प्रदाय के लोगो का ही शासन है। इसके अलावा ईरान में कुछ फारसी और सुन्नी भी हैं, जिनका शासन मे कोई दखल नही है।
कछ लोग मानते है कि ईरान इराक का युद्ध के आरम्भ होने और इतना लम्बा खिच जाने के पीछे दोनो देशो के प्रमुखों इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन और ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता तथा इस्लामी क्रांतिकारी परिषद के अध्यक्ष अयातुल्लाह खुमैनी के महत्त्वाकांक्षी व्यक्तित्वों का टकराव भी एक बड़ा कारण है।
1975 में भी ईरान इराक मे एक छोटा-सा युद्ध हुआ था। तब सीरिया के सदप्रयासों से सन्धि हो गयी किन्तु इस सन्धि-पत्र पर हस्ताक्षर करना इराकक को काफी मंहगा पडा था। चूंकि सीरिया का झुकाव सदा ईरान की ओर रहा है, इसलिए सन्धि मे शत-अल-अरब जलडमरूमध्य का वह हिस्सा, जो ईरान इराक के मध्य साझे मे था, अब ईरान के अधिकार में मान लिया गया।इसके अलावा शाह विरोधियो तथा क्रातिकारियो को संरक्षण व मदद न देने की बात भी सद्दाम हसैन को माननी पड़ी थी।

ईरान इराक के युद्ध की शुरुआत कहां से हुई
22 सितम्बर 1980 को ईरान के खुर्रम शहर पर अचानक हमला कर इराक ने युद्ध की पहल की और उस पर अधिकार कर लिया। अहवाज (Ahwaz) और अबादान (Abadan) मे भी उसके सैनिक जा चढे। होर्मुज की खाड़ी तथा शत-अल-अरब पर उसने अधिकार कर लिया। एक सप्ताह मे ही इराक ने समुद्री रास्ते की नाकेबंदी करके ईरान के तेल निर्यात को बन्द कर दिया।
ईरान ने भी जवाबी कार्रवाई की और इराक की राजधानी बगदाद, बसरा व अन्य तेल उत्पादक नगरों व कारखानों पर भयंकर बमबारी हुई। फलस्वरूप इराक को काफी हानि उठानी पड़ी। ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता तथा इस्लामी क्रांतिकारी परिषद के अध्यक्ष अयातुल्लाह खुमैनी तथा वहा के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अन्य नेताओ ने दुश्मन को अपनी भूमि से पूर्णत खदेड देने का
संकल्प लिया।
पडोसी देशों की दखलंदाजी से युद्ध और भी उग्र होता चला गया। लीबिया व सीरिया ने ईरान और जोर्डन, सऊदी अरब, ओमान तथा कुछ अन्य छोटे-छोटे देशों ने इराक का समर्थन किया। महत्त्वपूर्ण बात यह रही कि संसार की दोनों बडी शक्तियां, रूस और अमरीका मूकदर्शक बनी रहीं। यद्यपि इराक के पास सोवियत शस्त्र थे और परम्परागत सम्बन्धों के कारण वह उसे नैतिक समर्थन भी दे रहा था किंतु प्रत्यक्ष रूप से कोई भी सामने नहीं आया। अमरीका ने मध्य-पूर्व (Middle East) में बढते साम्यवाद (Communism) के वर्चस्व को कुचलने के लिए शाह रजा पहलवी के समय से ही ईरान को मोहरा बना रखा था और वह खरबों डालरों के आधुनिक शस्त्र ईरान को देता रहा था। बदले में वह तेल प्राप्त करता था किन्तु अयातुल्लाह खुमैनी के शासक बनने और अमरीका द्वारा शाह के समर्थन के कारण वहां अमरीका विरोध की लहर फैल गयी।
प्रश्न यह है कि यह ईरान इराक का युद्ध हुआ क्यों? इस युद्ध से ईरान-इराक को क्या लाभ होने वाला है? विश्व की राजनीति पर इसका क्या प्रभाव पडेगा?
1975 में सीरिया की मध्यस्थता में हुए ईरान और इराक के समझौते के अन्तर्गत ईरान ने इराक के सीमावर्ती क्षेत्रों में बसे कुर्दों को किसी प्रकार की सहायता न देने का वचन दिया था किन्तु ईरान में मजहबी आंधी के अगुवा आयतुल्लाह खुमैनी ने, जो अपने आपको मुस्लिम जगत का सर्वोच्च धार्मिक नेता मानने लगे थे, इस वचन को तोड दिया तथा कुर्दो के साथ-साथ इराक के शिया निवासियों को भी आर्थिक सहायता व सैनिक प्राशिक्षण देकर उन्हें अपने ही देश के विरुद्ध भडकाया। इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को काफिर (इस्लाम-विरोधी) थी संज्ञा दी और उनके विरुद्ध की गयी अपनी कार्यवाहियों वो धार्मिक आंदोलन बताया।
इस युद्ध के चलते रहने से विश्व की महा शक्तियों के बीच टकराव की स्थिति कभी भी उत्पन्न हो सकती थी।अमेरिका व उसके सहयोगी देशों के तेलवाहक जहाज होर्मुज जलमार्ग से होकर गुजरते हैं। ईरान कई बार इस जलमार्ग को बन्द करने की धमकी दे चुका था। यदि ईरान ने ऐसा किया तो अमरीका हस्तक्षेप कर
सकता है। अमेरीकी हस्तक्षेप होने पर सोवियत संघ भी चुप नहीं बैठेगा। अब यह युद्ध उस स्थिति में पहुंच चुका था, जब दोनों ही देश अर्थव्यवस्था और सामान्य जीवन के चरमरा जाने से युद्ध की भयावहता से उबर गये है किन्तु यह प्रतिष्ठा का प्रश्न बन कर रह गया था कि आखिर युद्धविराम के लिए पहल कौन करे शाह के समय में जमा हो गये अमरीकी शस्त्र भण्डार के खत्म हो जाने से
ईरान के सैन्य-बल पर प्रभाव तो पडा था किन्तु वे सम्भावनाएं निर्मूल सिद्ध हुई थी कि अमरीकी समर्थन के अभाव में ईरान का पूरी रह विनाश हो जायेगा। सिर्फ ईरान के अडियल रवैये से युद्ध विराम के कार्य में गतिरोंध बना हुआ था। ईरान ने कभी युद्ध विराम के लिए मध्यस्थता के प्रयासों को पसन्द नहीं किया क्योकि वह इराक को इस बात के लिए सजा देना चाहता है कि वह युद्ध छेड़कर लाखों लोगो की मौत का कारण बना है। अमरीकी अनुमान के अनुसार उस समय तक इस युद्ध मे 1,00,000 इराकी तथा 2,50,000 ईरानी मारे जा चुके थे।
चूंकि ईरान-इराक दोनो देश गुट निरपेक्ष आंदोलन से जुड़े है और
अधिकतर देश इनके मित्र थे, उनके लिए पशोपेश की स्थिति बनी हुई थी कि वे किस का समर्थन करे और किसका विरोध ? जहां तक सयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयासो का प्रश्न था खाडी के युद्ध को रोकने के लिए, ईरान अपनी इस जिद्द पर अड़ा हुआ था कि वह पहले इराक को आक्रमण कर्ता घोषित करे व उसकी आलोचना करे। तभी वह उसके प्रस्तावों पर विचार करेगा।