ओलीवर क्रोमवैल के नेतृत्व में हुईइंग्लैंड की क्रांति ने राजशाही के उस युग में पहली बार नागरिक सरकार की धारणा को सामने रखा। धार्मिक असहिष्णुता के युग मे इंग्लैंड की क्रांति ने उपासना पद्धति की आजादी को अपना ध्येय बनाया। राजशाही की निरंकुशता और संसद के ढुलमुलपन के खिलाफ किसानों के बेटे तलवार लेकर लड़े। क्रांति का पतन क्रोमवैल की फौजी तानाशाही में हुआ और इंग्लैंड ने फिर एक बार राजा को स्वीकार कर लिया। पर इस क्रांति के गर्भ में भविष्य के संसदीद लोकतंत्र के बीज छिपे थे। इंग्लैंड की क्रांति सन् 1628 से 1658 तक चली। अपने इस लेख में हम इसी जन क्रांति का उल्लेख करेंगे और निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर विस्तार से जानेंगे:—
इंग्लैंड की क्रांति कब हुई थी?
इग्लैंड की क्रांति के परिणाम?
इंग्लैंड की क्रांति के कारण क्या था?
इंग्लैंड की क्रांति का नाम क्या था?
इंग्लैंड की गौरवपूर्ण क्रांति के कारण और परिणाम?
इंग्लैंड की क्रांति के समय वहां का राजा कौन था?
गौरवपूर्ण क्रांति किस देश में हुई?
इंग्लैंड की क्रांति किसको कहते हैं?
इंग्लैंड की क्रांति को किस नाम से जाना जाता है?
इंग्लैंड में गौरवपूर्ण क्रांति का जनक किसे माना जाता है?
इंग्लैंड की क्रांति के कारण
17वीं शताब्दी इंग्लैंड की राजशाही के खिलाफ एक क्रांतिकारी बेचैनी लेकर आयी। लगता था कि जैसे पूरा देश दो भागों में बट गया है। एक तरफ पुराने इंग्लैंड के समर्थक थे, जो चर्च, राजा और परंपरागत समाज व्यवस्था में विश्वास करते थे। दूसरी ओर धार्मिक सहिष्णुता और बाइबिल के पवित्र सूत्रों मे उद्घघोषित आजादी के समर्थक थे, ऐसा होना ही था। यूरोप मे विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में काफी तर्कसंगत अनुसंधान हो रहे थे। इस वैज्ञानिक एवं बौद्धिक चेतना को सामाजिक अभिव्यक्ति धार्मिक कट्टरता के विरोध मे मिली। संघर्ष पहले राजशाही और संसद के बीच शुरू हुआ। फिर इसने गृह-युद्ध का रूप से लिया।
संसदीय सेनाओं का नेतृत्व ओलीवर क्रोमवैल (Oliver Cromwell) के हाथों में था। इस फौज में किसानो के बेटे लड रहे थे। मुकाबले में शाही सेना थी जो पराजित हुई और किंग चार्ल्स-प्रथम को गिरफ्तार कर लिया गया। इस गृह-युद्ध का अंत चार्ल्स के मृत्यु दंड और इंग्लैंड से राजशाही के सफाये के रूप में हुआ। क्रोमवैल की मृत्यु के बाद इंग्लैंड की जनता ने फिर से राजशाही मे पनाह ढूंढ़ी लेकिन इस क्रांति की विरासत के रूप में सहिष्णुता, दास-प्रथा विरोध नारी-मुक्ति आदि विचारो को इंग्लैंड के समाज में मान्यता मिल गयी। इस वैचारिक आधार पर भविष्य के इंग्लैंड की नीव पडने वाली थी।
सन् 1628 से लेकर सन् 1658 तक चलने वाली इस सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल की पृष्ठभूमि में फ्रांस में हुई घटनाएं थी। फ्रांस की जनता ने उन दिनों सामाजिक और आर्थिक जीवन पर राजा का पूरा आधिपत्य स्वीकार कर लिया था। इंग्लैंड के राजा ने भी इसी तर्ज पर फ्रांस के नक्शे-कदम पर अपनी जनता को चलाना चाहा। पर दोनों देशों की परिस्थितियों मे काफी अंतर था। अंग्रेज समाज ने इसे हजम करने से इंकार कर दिया। संसद ने सन् 1628 मे चार्ल्स-प्रथम को याद दिलाया कि परंपरागत अंग्रेज स्वतत्रंताओ का उल्लघन नही किया जाना चाहिए। पर चार्ल्स ने इस ‘पिटीशन ऑफ राइट्स” (Pitition of rights) पर कान नही धरा। उसने निरंकुश भाव से संसद को भंग कर दिया और अगले ग्यारह साल तक एक बार भी संसद को बुलाने की जहमत नही उठायी। इस तरह रजशाही पूरी तरह से तानाशाही में बदल गयी। चार्ल्स का मुख्यमंत्री थोमस वेंटवर्थ (Thomas Wentworth) स्टैंडफोर्ड का अर्ल (Earl of Stratford) था। उसने इंग्लैंड में भी वही नीतियां अपनायी, जो फ्रांस में कामयाब हो चुकी थी। जनता पर से उठाये गय पुराने टैक्स फिर लगा दिये गये।
इंग्लैंड की क्रांतिइसी समय धार्मिक क्षेत्र में एक बडी विस्फोटक घटना हुई। केंटरबरी (Canterbury) के आर्क बिशप विलियम लोड (William loud) ने अंग्रेज उपासना पद्धति (Anglican liturgy) में कुछ सुधार कर डाले। 23 जुलाई, 1637 को सेंट जाइस एडिनवरा के चर्च में नयी प्रार्थना पुस्तकें पहली बार पढ़ी गयी। रूढ़िवाद के समर्थक तो पहले से बेहद नाराज थे। चर्च में ही एक महिला ने पूरी ताकत से कूर्सी उठाकर आर्क बिशप के सिर पर दे मारी। स्कॉटलैंड की जनता ने एडिनबरा के किले की प्राचीरो के नीचे भारी संख्या मे जमा होकर राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्र (National Convinent) पर हस्ताक्षर किये जिसका अर्थ था कि उन्हें इन धार्मिक सुधारो में आस्था है कुछ लोगों ने तो जोश में भरकर अपने खून से दस्तखत किये थे। इस घटना से जिस युद्ध की शुरुआत हुई, उसने चार्ल्स को संसद बैठाने के लिए मजबूर कर दिया। सन् 1640 में पहली संसद बुलायी गयी, जो थोडे दिन ही चली। फिर सन् 1640 से सन् 1653 तक चलने वाली संसद बैठायी गई, जिसे लांग पार्लियामेंट (Long Parliament) के नाम से जाना जाताहै।
संसद ने राजा को मजबूर किया कि वह “एक्ट अफ अटेण्डर’ (Act of attainder) को मंजूरी दे जिसके तहत मुख्यमंत्री अर्ल ऑफ स्ट्रैफोर्ड को मृत्यु दंड दिया जाना था। संसद मे सरकार विरोधी वक्ताओं ने राजशाही की धज्जियां उडा दी। दो साल बाद राजशाही ने फिर अपना रुतबा जमाना चाहा। चार्ल्स ने संसदीय नेताओ को गिरफ्तार करना चाहा पर नाकामयाब रहा। संसदीय नेताओं को लदन शहर मे पनाह मिली। इस पर चार्ल्स ने लंदन पर हमले का फैसला किया ओर वह राजधानी छोड़ नार्टिघम (Nottingham) मे सेना तैनात करने चला गया।
यही से एक लबे गृह युद्ध की शुरुआत हुई। उन दिनों 42 वर्षीय ओलीवर क्रैमवेल संसद में कैम्ब्रिज (Cambridge) की नुमाइंदगी करते थे। क्रैमवेल ने बाइबिल की मूल पवित्रता में विश्वास करने वालों ओर पादरियों के कर्मकाण्ड व रूढिग्रस्तता का विरोध करने वालों के बीच खासी प्रतिष्ठा अर्जित कर ली थी। सन् 1641 मे राजा की अनियमिताओं ओर संसद के उद्देश्यों को लेकर संसद में इतनी उत्तेजक बहस हुई कि संदन मे ही तलवार खिच गयी। रक्तपात हाते होते बचा। राजा के खिलाफ ग्रांड रिमांस्टरस (Grand Remonstrance) यानी घोषणा पत्र पारित हो गया। चार्ल्स ने इसे अपने लिए निर्णायक चुनौती माना। उसने व्हाइट हॉल (White hall) छोड दिया ताकि लडाई के लिए फौज तैयार की जा सके। क्रैमवेल ने संसद की रक्षा के लिए 500 पौण्ड दान किये और कैम्ब्रिज में जाकर किसानों की सेना बनायी जिसके लडाके आइरनसाइडस (Ironsides) के नाम से जाने गये।
इंग्लैंड की क्रांति कारण और परिणाम
आइरनसाइड्स संसदीय सेना से हरावल में लडे। उन्होने बेमिसाल बहादुरी ओर अनुशासन का परिचय दिया। पेशे से किसान आलीवर क्रैमवेल ने अपनी घुडसवार सेना का नेतृत्व करने मे अद्भुत सैन्य-कुशलता दिखायी। क्रैमवेल के सैनिक अपने को बाइबिल के सिपाही समझते उन्हें लडाई के मैदान में ही बाइबिल द्वारा प्रदत्त सामाजिक आजादी के ऊपर लंबे-लंबे प्रवचन सुनाये जाते। एजहिल (Edgehill) की पहली लडाई से क्रैमवेल ने जो सबक सीखा उसने संसदीय सेना की अगली जीतो का रास्ता खोला। सन् 1644 मे लफ्टीनेंट जनरल बन चुके क्रैमवेल ने मार्स्टन मूर (Marston moor) के मैदान में प्रिंस रूपर्ट (Prince Rupert) की शाही सेना को करारी शिकस्त दी। इस मुठभेड में क्रैमवेल ने अपने घुडसवारों के साथ निर्णायक भूमिका निभायी। उन्होंने शाही फौज के पिछले हिस्से पर हमला किया ओर कुछ ही देर मे उसे मैदान में बिछा दिया। क्रैमवेल का दूसरा हमला राजा की सेना के केन्द्र पर हुआ ओर जीत हासिल कर ली गयी। सन् 1645 मे क्रैमवेल, फेयरफैक्स (Fairfax) ओर आइरेटन (Ireton) जैसे तीन सेनापतियों के मिले-जुले नेतृत्व मे न्यू मॉडल आर्मी (New model army) ने जीतो का सिलसिला शुरू किया। उसने किलो, काउटियो ओर रेजीमेटों को अपने सामने झुकने के लिए विवश कर दिया।
अगले तीन साल राजा संसद और न्य मॉडल आर्मी के बीच त्रिकोणात्मक संघर्ष के साल थे। संसदीय नेता ढुलमुल रवैया अख्तियार कर रहे थे। फौज चाहती थी कि धार्मिक सहिष्णुता का शासन हो क्योंकि इसी धार्मिक मुद्दे पर तो किसानो के बेटे अपना खून बहाने को तैयार हुए थे। संसद ने आदेश दिया कि सेना भंग कर दी जाये, पर सेना ने अपनी तनख्वाह की मांग की ओर भंग होन से इंकार कर दिया। इस पर संसद ने समझौता-वार्ता के लिए भेजा।
क्रैमवेल सेना को समझाने के बजाय उसके साथ हो गएं, पर सेना और संसद के विवाद ने चार्ल्स को एक बार फिर महत्वपूर्ण बना दिया। सन् 1647 मे स्कॉटलैंड वालों ने अपनी पनाह में छुपे हुए चार्ल्स को संसदीय कमिश्नर के हवाले कर दिया और राजा ने
अपनी चालें खेलनी शुरू कर दी जनरल फेयरफैक्स की हिरासत में चार्ल्स को हर तरह की सुविधाएं मिल रही थी। चार्ल्स ने पूरी कोशिश की कि वह फौज को सीध प्रेसबिरियस (Presbyterian) से लडा दे। वल्स (wales) में राजा के समर्थकों ने विद्रोह किया पर क्रैमवेल ने सख्ती से इस विद्रोह को दबा दिया। क्रैमवेल के नेतृत्व मे फौज ने राजा के ऊपर मुकदमा चलाने का फैसला किया। एक क्रांतिकारी न्यायाधिकरण बनाया गया जिसका नाम “हाई कोर्ट आफ जस्टिस” था। 27 जनवरी, 1649 को इस अदालत ने चार्ल्स की मौत के वांरट पर दस्तखत कर दिये।
क्रैमवेल की फौजों ने आयरलैंड ओर स्काटलैंड में भारी जीते हासिल की। सन् 1650 आते-आते दक्षिण इंग्लैंड पूरी तरह क्रैमवेल के शासन की गिरफ्त में आ गया फिर चार्ल्स द्वितीय ने बगावत करने की कोशिश की। चार्ल्स प्रथम की मृत्यु के बाद संसद ने फौज का आग्रह मान लिया था। क्रैमवेल ने इस बगावत को वर्सेस्टर (Worcester) की लडाई में कुचल डाला। संसद ने क्रैमवेल का राजनीतिक शासक तो मान लिया पर धार्मिक मसले को लेकर संसद और क्रैमवेल के बीच कभी नही पटी। क्रैमवेल उपासना पद्धति की आजादी में और संसद पुराने कर्मकांडो में विश्वास रखती थी। क्रैमवेल यह भी चाहत थे कि सरकार चुनी हुई नागरिक सरकार हो। संसद ही कर लगाये और कानून बनाये। कार्यपालिका कानूनी दायरे में रहकर काम करे। मौजूदा संसद यह सब मानने को तैयार नही थी।
अप्रैल, 1653 में संसद को अपने आगे झुकाने के लिए क्रैमवेल ने अचानक सदन में प्रवेश किया। हाउस ऑफ कॉर्मस में क्रैमवेल ने अपने विरोधी सांसदों को शराबी, वेश्यागामी और भ्रष्ट करार दिया। क्रैमवेल क सैनिकों ने अंदर घुसकर सभी को जबरन बाहर
निकाल दिया। ससद के दरवाजे पर ताला लगाकर लिख दिया गया “दिस हाउस इज टू लेट” (यह स्थान किराये के लिए खाली है)। फिर क्रैमवेल ने अपनी संसद बनाने की नाकाम कोशिश की और आखिर में वह “लॉड प्राटेक्टर ऑफ इंग्लैंड हो गया। यही से इंग्लैंड की क्रांति की असफलता की शुरुआत हुई। क्रैमवेल एक नागरिक सरकार स्थापित करने के बजाय फौजी तानाशाही स्थापित कर बैठे। उन्होंने इस कदर किफायती रवैया अपनाया कि जनता परेशान हो गयी। इंग्लैंड में होने वाले परंपरगत आमोद-प्रमोद बंद हो गये। इन्ही परिस्थितियों में राजशाही के समर्थन की भावनाये उभरनी शुरू हुई।
सन् 1658 में बीमारी से क्रैमवेल का निधन हो गया। एक बार फिर राजशाही ओर संसद की स्थापना हुई क्योंकि क्रैमवेल के बेटे रिचर्ड के पास न तो अपने पिता की क्रांतिकारी विरासत थी और न ही राजकीय कुशलता। मई 1660 में चार्ल्स द्वितीय को गद्दी पर बैठाया गया। लगातार उथल-पुथल ओर युद्ध से जनता ऊब चुकी थी। लेकिन इंग्लैंड की राजनीति से जुडे लागो मे अपने अधिकारो को कायम रखने की प्रवृत्ति भी जोर पकड चुकी थी। इसी प्रवृत्ति ने बाद में पश्चिमी किस्म के लोकतंत्र को जन्म दिया।
ऊपर के लेख में अब तक आपने इंग्लैंड की क्रांति का 1628 से लेकर 1658 तक का उल्लेख पढ़ा। आगे के अपने इस लेख में हम इंग्लैंड की क्रांति का 1688 से 1689 तक का उल्लेख करेंगे। यह क्रांति, इंग्लैंड की संसदीय क्रांति या इंग्लैंड की गौरवपूर्ण क्रांति या रक्तहीन क्रांति के नाम से प्रसिद्ध है।
पहली बार 17वी शताब्दी में संसद ने राजा को उसके देवी अधिकारों से वंचित कर दिया आश्चर्य की बात तो यह थी की इतने बडे सामाजिक राजनैतिक परिवर्तन में खून की एक बूंद भी नही बही। ऊपर से देखने मे यह कैथोलिकों और प्रोटेस्टो का झगडा भले ही दिखायी दे, पर वह धार्मिक विवाद परिवर्तनकामी गतिशीलता का मिजाज रखता था। जेम्स की सत्ता के बाद विलियम और मैरी को सिंहासन तो मिला लेकिन न तो ये कर लगा सकते थे ओर न ही सेना रख सकते थे। संसदीय क्रांति ने ब्रिटेन को दुनिया भर मे व्यापार करने की दिशा में धकेला ओर लोकतंत्र की आधारशिला रखी।
ओलीवर क्रैमवेल की क्रांति ने इंग्लैंड को एक ऐसे रास्ते पर डाल दिया था जिस पर राजशाही ने अधिकारो का कम हाते जाना एक एतिहासिक आवश्यकता बन गयी थी। विज्ञान के आविष्कार युरोप में पूरे मानवीय चिंतन पर असर डाल रहे थे। कॉस्मिक फर्नेस (Cosmic Furnace) का निर्माण करके ओद्यागिक क्रांति की दशा में एक कदम ओर बढाया जा चुका था। हालाकि मंजिल अभी दूर थी पर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय (Cambridge University) में सन् 1687 में एक युवक गणितज्ञ आइजक न्यूटन (Issac Newton) ने अपनी पुस्तक प्रिंसिपिया (Principia) का प्रकाशन किया था, जिसमें गुरुत्वावर्षण का सिद्धांत पेश किया गया था। भविष्य के विज्ञान ओर समाज पर इस महान पुस्तक का प्रभाव पड़ना ही था। जाहिर था कि युरोप का आदमी धार्मिक परमवाद (Religious Absofutism) होकर अपने अधिकारों के प्रति सजग हो रहा था।
राजनैतिक रूप से युरोप उस समय फ्रांस के राजा लूईस चौदहवें (Louis XlV) की साग्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं के खिलाफ संघर्षं कर रहा था। लूईस पूरे युरोप का तानाशाही बनने का सपना बुन रहा था। उसने मैडम दि मैंटनॉन (Madame de Maintenon) से गुप्त विवाह भी रचा लिया था। इस पत्नी ने लूइस को कैथोलिकों के समर्थन की प्रेरणा दी। प्राटेस्टटों की तो जैस आफत ही आ गयी । उन्हें जबरन कैथोलिक बनाया जाने लगा। जैसे ही लूइस को लगा कि सभी प्रोरेस्टट कैथोलिक बनाये जा चुके है उसने नार्टस की राजाज्ञा (Edict of Nartus) को दोबारा लागू कर दिया। बचे हुए प्राटेस्टटों को कैथोलिक बनने के लिए केवल 15 दिन दिये गये। करीब दो लाख प्रोस्टेट अपने धर्म की आन पर अपना सब कुछ छोडकर चल दिये। पिलिग्रिम फादर्स के नाम से विख्यात इन शरणार्थियों का इंग्लैंड यूनाइटेड प्रोविस और ब्रेडनबर्ग में पनाह मिली। इन वंचित शरणार्थियों ने हर जगह कैथोलिकवाद के प्रति नफरत फैलायी जिससे लोगों के दिमागों में उथल-पुथल मच गयी ओर वे सरकार के खिलाफ विद्रोह की बात करने लगे।
इसी पृष्ठभूमि में इंग्लैंड में संसदीय क्रांति या गौरवपूर्ण क्रांति का जन्म हुआ। क्रैमवेल की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठे चार्ल्स द्वितीय का निधन 6 फरवरी 1685 को हुआ ओर ड्यूक ऑफ यार्क, जेम्स द्वितीय को सिंहासन मिला। जेम्स को अपनी गद्दी सुदृढ़ रखने के लिए यद्ध लडना पडा। उसके भतीजे ड्यूक ऑफ मनमाउथ (Duke of Monmouth) के विद्रोह को दबाने के लिए सजमूर (Sedgemoor) की लडाई हुई जिममें हारकर मनमाउथ भागा पर मत्यु दंड से नही बच पाया। उसके समर्थकों को भी मुख्य न्यायाधीश जफरीज (Jeffrey’s) ने कड़ी सजाएं दी। ये मुकदमे बेहद बदनाम हुए। जफरीज पहले भी अपने रवैये के कारण एक क्रूर जज के रूप में कुख्यात हो चुका था। इसी तरह के सलाहकार और अधिकारियों ने जेम्स द्वितीय को उदण्ड और जिद्दी बना दिया
जेम्स के अंदर कई गुण भी थे। वह एक बेहतरीन नाविक भी था। पर राजकाज के मामले में बेहद कच्चा था, उसके ऊपर कैथोलिकवाद का भूत सवार था। पोप की राय के खिलाफ उसने कदम-कदम पर अपने कटर धार्मिक विश्वास को प्रोटेस्टेंट जनता पर थोपने की काशिश की। प्रोटेस्टेंट शरणार्थियों मे पहले ही कैथोलिकवाद के प्रति गुस्से का माहौल बना रखा था। इसलिए वहाइट हॉल में खुले आम प्राथना सभाएं होने लगी और जगह जगह जिजस क्राइस (Jesus Christ) दिखाई देने लगे। स्कॉटलैंड में तो और भी खराब स्थिति थी। क्रैमवेल के जमाने में प्रमुखता पाये प्यूरिटनस (Puritons) कोयातनाएं दी जाने लगी इस तरह राजशाही की ज्यादतियों का घड़ा भरने लगा अप्रैल 1687 में राजा ने दंडमाचन की घोषणा (Declarations of Indulgence) की। इसका मकसद था कैथोलिकों और प्रोटेंस्टों को उपासना की आजादी देना। जेम्स चाहता था कि प्रोटेस्टेंट एंग्लिकन चर्च से अलग हो जाये। प्रोटेस्टेंट शायद एक बार संतुष्ट भी हो जाते अगर उन्हे विश्वास होता कि जेम्स अपनी लडकी मैरी को उत्तराधिकारी बनायेगा।
मैरी का विवाह विलियम ऑफ ओरेंज (William of Orange) से हुआ था। विलियम सारे युरोप में प्रोटेस्टेंट के नेता के रूप मे मशहूर था। वह जन्म से बच था और फ्रांस के लूइस चौदहवें द्वारा सताये जाने से बेहद नाराज था। लूइस और विलियम की शत्रुता
उस जमाने में राजनीति के हर जानकार की जुबान पर थी। जून 1688 में जेम्स की दूसरी पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया। जिसे फौरन कैथोलिक धर्म में दीक्षित कर दिया गया, प्रोटेस्टेंट इस नयी घटना से काफी चौंक गये। उन्हे लगा कि अब प्रोटेस्टेंट विलियम की पत्नी मैरी इंग्लैंड की गद्दी की उत्तराधिकारी नही बन पायेगी। साथ में यह अवाह भी फैल गयी कि वह बच्चा असल में रानी के गर्भ से नही जन्मा बल्कि कैथोलिकों की साजिश का नतीजा है। लदंनवासियों ने अपनी इन भावनाओं का प्रदर्शन सात विशपों की रिहाई का उत्सव मना कर किया। वे विशप दण्डमाचन की घोषणा का विरोध करने के लिए गिरफ्तार हुए थे।
गौरवशाली इंग्लैंड की क्रांति की घडी नजदीक आ पहुंची। प्रोरेस्टटों ने मैरी और विलियम को अपना नेतृत्व करने के लिए आमंत्रित किया। विलियम प्रोटेस्टेंटवाद और स्वतंत्रा की हिफाजत करने का उदेश्य लेकर अंग्रेजों की धरती की तरफ चला। राजा की तरफ से उसे रोकने और पकड़ने के लिए जॉन चर्चिल (John churchil) को भेजा गया। 3 नवबर 1688 को टोरबे( Torbav) में विलियम ने इंग्लैंड में कदम रखा और चर्चिल की फौज का सामना किया। पर चर्चिल को विलियम में भविष्य का सम्राट दिखायी दे रहा था। उसने अपनी फौज विलियम के नेतृत्व में दे दी। जेम्स को लगा कि उसके साथ अब कोई नही रहा। उसने पलायन किया ओर फ्रांस में शरण ली। लूइस चौदहवें ने अपने शत्रु विलियम के शत्रु को हाथों हाथ लिया। विलियम और मैरी को नये राजा और रानी के रूप में स्वीकार कर लिया गया। विलियम ने जेम्स चर्चिल को उसकी सेवाओं के लिए ड्यूक ऑफ मार्लबरा बनाया। यह एक स्वर्णिम रक्तहीन क्रांति थी। इसमे कोई खून खराबा नही हुआ था। जेम्स के जज जफरीज जसे सलाहकारों ने भागने की कोशिश की पर उन्हें पकड़ लिया गया।
इस सब के बावजूद संसद जेम्स की उदंडताओं की कडवी यादें भूली नही थी। उसने नये राजा-रानी पर सौ फीसदी विश्वास नही किया। उसने विलियम और मैरी का अधिकारों का विधेयक (Bill of rights) स्वीकार करने पर मजबूर किया। इस विधेयक के अनुसार सत्ता में संसद का हिस्सा निर्विवाद हो गया। राजा की शक्तियां आनुवंशिक दैवी अधिकार की देन नही रह गयी बल्कि वह राष्ट की इच्छा के अनुकूल होने लगी। इस नये कानून से राजा संसद के नियंत्रण में हो गया। अब कोई कैथोलिक शासन नही कर सकता था। राजा से कर लगान का अधिकार भी छीन लिया गया था और उसे निजी सेना रखने की आज्ञा भी नही थी।
सन् 1689 में सहिष्णुता कानून (Toleration act) बना जिसने प्रोटेस्टेंटों को तो उपासना की स्वतंत्रता दी पर कैथोलिकों को नही। इस तरह से इंग्लैंड का 50 वर्षीय धार्मिक विवाद खत्म हुआ। मैरी की सन् 1695 में मत्यु हो गयी। विलियम तो मूलतः डच था और उसी दिलचस्पी लूइस चौदहवें से निपटने में ज्यादा थी। इसलिए उसका ध्यान हमेशा युरोप के दूसरे हिस्सों पर लगा रहा। नये कानूनों की ताकत लेकर इंग्लैंड ने संवैधानिक शासन का पहला अनुभव लिया। सन् 1702 में मैरी की बहन एन (Ann) ने गद्दी संभाली। सन् 1714 में उसके निधन के बादद जार्ज-प्रथम राजा बना। उस समय तक इंग्लैंड और स्कॉटलैंड यूनाइटेड किंगडम ऑफ ग्रेट ब्रिटेन (United Kingdom of great Britain) का रूप ले चुके थे।
सन् 1718 के बाद हाउस ऑफ कामर्स (ब्रिटिश संसद) का हर सात साल बाद चुनाव होने लगा। संसद तत्कालीन भूपतिया के हितों का प्रतिनिधित्व करती थी क्योंकि यही तबका शासक वर्ग का भी निर्माण करता था। संसदीय गौरवपूर्ण इंग्लैंड की क्रांति के परिपक्व हाने के साथ-साथ ब्रिटेन ने बड़े पैमाने पर व्यापारिक और समुद्री गतिविधियां शुरू की। उसके व्यापारियों ने जमकर मुनाफा कमाया। यूनाइटेड प्रार्विसज की तकलीफों ने उनके फायदों में ओर बढ़ौतरी की। ब्रिटेन के उपनिवेशों के माल का आयात ओर फिर उसका निर्यात व्यापारियों के लिए जोरदार धंधा साबित हुआ, इस मुनाफे से ब्रिटिश खेती पर उद्योग के क्षेत्र में हुई प्रगति में पूजी निवेश किया जा सका। इसी शताब्दी में कई तकनीकी खोजें हुई, जो बाद की ओद्योगिक क्रांति में इस्तेमाल की गयी।
सन् 1694 में बैंक ऑफ इंग्लैंड की स्थापना हुई, जिसने सरकारी ऋण का एक स्थिर चरित्र प्रदान किया ओर कई तरह की आर्थिक गतिविधियां को नियंत्रित करने में प्रमुख भूमिका निभायी। सन् 1666 के भयानक अग्निकांड में भस्म हुए लंदन का पत्थर से
निर्माण किया जा चुका था। नये युग मे उसका क्षेत्रफल पेरिस से दोगुना था और आबादी पूरी साढ़े सात लाख थी। सेंट पॉल का भव्य गिरजाघर शहर और ब्रिटिश साम्राज्य के धन-धान्य और अधिकार का प्रतीक लगता था। 17वी शताब्दी के इन आखिर वर्षों ने ब्रिटिश साम्राज्य की जडे मजबूत की। राजशाही के अधिकारों के खात्मे ने एक नयी मिसाल को जन्म दिया। इसकी अभिव्यक्ति अगली शताब्दी में हुई। 18वीं शताब्दी दो महान घटनाओं के लिए तैयार होने लगी थी। अमरीकी स्वतंत्रता का युद्ध और फ्रांस की पूंजीवादी क्रांति।
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