आइज़क न्यूटन का जन्म इंग्लैंड के एक छोटे से गांव में खेतों के साथ लगे एक घरौंदे में सन्1642 में क्रिसमस के दिन हुआ था। मानों सचमुच वह संसार को क्रिसमस का एक उपहार हो। एक नन्हा सा उपहार- क्योंकि मां अक्सर बताया करती थी कि आइज़क न्यूटन जन्म की बेला में इतना छोटा था कि उसे क्वार्ट-साइज़ के एक बर्तन में बड़ी आसानी के साथ रखा जा सकता था।न्यूटन की मां पहले ही विधवा हो चुकी थी, और अब यह नन्ही सी जान नौ महीने से पहले ही पृथ्वी पर आ गई। डाक्टरों ने कह दिया कि इसके ज्यादा जीने की उम्मीद नहीं है। किन्तु बड़ा होने पर उसकी गिनती इतिहास में गिने-चुने महान वैज्ञानिकों में की जाने लगी।
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आइज़क न्यूटन का जीवन परिचय
गणित में, मेकेनिक्स में,गुरूत्वाकर्षण में, तथादृष्टि विज्ञान में न्यूटन की खोज इतनी विस्तृत और इतनी मौलिक हैं कि उनमें से कोई भी उसके आविष्कार कर्ता को इतिहास में अमर कर जाने को पर्याप्त है, भले ही उसने सारे जीवन में और कुछ भी न किया
होता।
आइज़क न्यूटन की मां ने जब पुनः विवाह कर लिया अभी वह दो बरस का ही था, तो बालक आइज़क को परवरिश के लिए उसकी दादी के यहां भेज दिया गया। बचपन में उसने कुछ भी चीकने पात नहीं दिखाए कि वह कोई अद्भुत प्रतिभा लेकर अवतरित हुआ है। हां, अलबत्ता सच यह है कि वह तब भी कुछ न कुछ अपने हाथों खुद करता ही रहा करता था। हवाई चक्की का एक छोटा-सा मॉडल उसने तैयार किया था जो कि सचमुच चलता भी था, पानी से चलने वाली घड़ियां, और पत्थर की सिल पर एक सूर्य-घडी, जो आजकल रॉयल सोसाइटीलंदन की सम्पत्ति बन चुकी है। उसे शौक था दिन-रात पढ़ते रहने का, रेखाचित्रों की नकल उतारने का, फूल और जड़ी-बूटियों का इकटठा करने का।
14 साल का होते ही न्यूटन को फिर से अपनी मां के पास ले आया गया, वह फिर विधवा हो गई थी और उसे फार्म सभालने के लिए एक सहायक की ज़रूरत भी थी। किन्तु कृषि के इन कामो के लिए युवा न्यूटन बिलकुल अयोग्य सिद्ध हुआ। उसे इन कामो
मे कोई अभिरुचि नही थी, उलटे वह कुछ न कुछ पढता ही पाया जाता या फिर दिवा-स्वप्नो में, या’ लकडी के मॉडल बनाने मे दुनिया की सुध से बेखबर। मां भी आख़िर मान गई कि उसे कालिज में दाखिले के लिए तैयार करना चाहिए। 18 वर्ष की आयु में न्यूटन तदनुसार, कैम्ब्रिज मे पढ़ने के लिए दाखिल हुआ। विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कालेज में न्यूटन की शिक्षा का आरंभ हुआ।
कैम्ब्रिज मे चार साल बिताने के बाद 1665 में उसे बी० ए० की उपाधि मिली।कैम्ब्रिज मे पढते हुए ही उसकी अपने गणित के प्राध्यापक आइज़क बैरो से मित्रता हो गई। बैरो पहचान गया कि न्यूटन असाधारण प्रतिभा लेकर आया है। उसने उसे प्रोत्साहित भी किया कि वह गणित में ही अपनी योग्यता को विकसित करे।

इंग्लैंड मे उन दिनो ब्यूबॉनिक प्लेग की महामारी का आतंक था। आबादी का दसवां हिस्सा साफ हो चुका था। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में छुट्टियां घोषित कर दी गई और विद्यार्थी अपने-अपने घरों को चल दिए। न्यूटन भी अपनी मां के पास लौट आया और, प्राय डेढ साल तक अपने जन्म-गृह, उस फार्म हाउस में ही रहा, जब तक कि कैम्ब्रिज में फिर से पढ़ाई शुरू नही हो गई।
खेतो पर गुजारे ये 18 महीने विज्ञान के इतिहास मे शायद बहुत ही महत्त्व के दिन थे, क्योकि इन्ही दिनो आइज़क न्यूटन ने मैकेनिक्स के मौलिक सिद्धान्त ज्ञात किए, और उनका प्रयोग ग्रह-मण्डल की गतिविधि में भी उसी प्रकार कर दिखाया, गुरुत्वाकर्षण के मूल का अवागमन किया, डिफरेन्शल तथा इंटैग्रल कैल्क्युलस का आविष्कार किया, और दृष्टि-विषयक अपने प्रसिद्ध नियमों का अनुसन्धान किया। शेष जीवन अपना उसने इन्ही नियमों की व्याख्या में उनके पल्लवीकरण में तथा क्रियात्मक प्रयोगों मे गुजारा। किन्तु बौद्धिक सर्जन को उसकी वैज्ञानिक वृत्ति इन्ही अट्ठारह महीनों में प्रदर्शित कर चुकी थी जबकि वह अपनी उम्र के 23वें-24वें साल में से गुजर रहा था। किन्तु अपने इन विलक्षण अनुसंधानों व आविष्कारों को उसने एकदम प्रकाशित नहीं कर दिया। चुप रहने की यह उसकी कुछ तबियत ही बन चुकी थी जिसके कारण तमाम ज़िन्दगी उसे किसी न किसी झमेले या वाद-विवाद में उलझे ही रहना पडा।
1667 में जब कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय फिर से खुला न्यूटन को पढ़ाने का वहा कुछ थोडा सा काम मिल गया। यहां उसने आशातीत उन्नति की, क्योकि 26 बरस की उम्र में वह अपने गृह एवं अभिभावक आइज़क बैरो का उत्तराधिकारी एवं गणित का प्रोफेसर नियुक्त हो चुका था।
बड़ें अरसे से आइज़क न्यूटन प्रकाश के सम्बन्ध मे काफी व्यापक पैमाने पर परीक्षण करता भी रहा था। उसने कुछटेलिस्कोप भी तैयार किए थे, और वह अपने इस सब कामकाज से असन्तुष्ट था कि उसके बनाए ये उपकरण भी जो छाया दूर-लोक की उतारते थे, समकालीन अन्य दूरबीक्षण यन्त्रों की भांति, उनके किनारों मे भी कुछ न कुछ रंगीनी सी आ ही जाती थी। ऐसा क्यों ? और इसी समस्या का समाधान निकालने के लिए उसने प्रकाश की वृत्ति
का किंचित् सूक्ष्म अध्ययन किया। एक त्रिभुजाकार प्रिज़्म पर सूर्य की किरणें डालीं। कमरा बन्द करके खिड़की में एक छेद में से ही ये किरणें अन्दर प्रवेश पातीं। उसने देखा कि किस प्रकार वह श्वेत किरण फटकर दूसरी ओर दीवार पर एक सुन्दर सतरंगिनी बन
जाती है। सातों रंगों में भी एक निश्चित क्रम था– लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला, जामुनी और बैंगनी।
अब उसने ऐसा किया कि सिर्फ एक ही रंग– मान लो बैंगनी, दीवार पर पड़े, बाकी रंग आगे न आने पाएं। यह बैंगनी रंग की किरण अब एक-दूसरे प्रिज्म में से गुजारी गई। न्यूटन ने देखा कि इस बैंगनी किरण की दिशा तो कुछ बदल जाती है किन्तु प्रिज्म में से दोबारा गुजरने पर उसके रंग में फर्क नहीं आता, वह अब भी बैंगनी ही रहती है। यही परीक्षण उसने हर रंग से बार-बार करके देखा। सफेद किरण से एक बार विभक्त होकर ये रंग और आगे अब, नहीं फटते थे। हां, दोबारा प्रिज्म में से गुजारने पर हर रंग की दिशा में एक विशेष और अलग ही अन्तर आ जाता है। न्यूटन का निष्कर्ष बड़ा सरल, यद्यपि आश्चर्यकारी था कि सूर्य की श्वेत किरण वस्तुतः सातों रंगों का एक समास है। प्रिज्म का शीशा इन सातों को अलग-अलग दिशान्तरण दे देता है, जिससे ये अलग अलग फट जाते हैं।
इन परीक्षणों के आधार पर आइज़क न्यूटन इस परिणाम पर पहुंचा कि ऐसा लेंस बना सकना असंभव है जिसमें कि रंगीनी की यह कालर सी जरा भी न आए। उसने सोचा कि यदि लेंसों का प्रयोग ही न किया जाए, तो ? और एक रिफ्लेक्टिंग टेलिस्कोप ईजाद किया गया। जिसमें तारों की रोशनी को एक बिन्दु पर केन्द्रित करने के लिए धातु विनिमभित, प्याले की शक्ल का एक दर्पण इस्तेमाल किया जाता है। क्योकि इस किस्म के टेलिस्कोप में रोशनी को शीशे मे से गुजरना ही नही पडता। किरण के अंशो को अलग-अलग दिशा ग्रहण नही करनी पडती और इसीलिए वह वर्ण-ब्यामिश्रण भी अब नही होता। हैरानी तो इस बात पर होती है कि ऐसे लेन्स तैयार करने मे जिनमे कि यह रंगीनी का स्पर्ण आए ही नही, वैज्ञानिकों को एक सदी और लग गई। अलग-अलग किस्म के शीशों को मिलाकर बनाए गए लेंसो में आजकल वह पुराना वर्ण-स्पर्श नहीं आता।
अपने बनाए टेलिस्कोप की सारी आन्तर रचना न्यूटन ने खुद अपने हाथो ही की थी। न्यूटन के दर्पण का व्यास लगभग एक इंच था, जबकि माउंट पैलोमार की कलीफोर्निया इस्टीट्यूट आफ टेक्नोलोजी की वेधशाला में एक रिफ्लेक्टिग मिर॒र का व्यास लगभग 17 फुट है।
दृष्टि-विज्ञान के सम्बन्ध में उसके अनुसंधानों की और यही आइज़क न्यूटन के प्रथम वैज्ञानिक निबन्ध का विषय था, विज्ञान जगत ने आलोचना भी कम नही की थी और प्रशंसा भी कम नही। न्यूटन को अपनी स्थापनाओं के प्रतिपादन में उस युग के योग्यतम वैज्ञानिकों क्रिस्चियन ह्यूजेन्स,रॉबर्ट हुक इत्यादि के आक्षेपों का प्रतिवाद करता पडा था। इन वाद विवादों के प्रसंग से ही विज्ञान की प्रणाली के सम्बन्ध मे एक नूतन दिशा-संकेत देने का अवसर उसे सिला था कि विज्ञान में कुछ भी कार्य करने का सबसे अच्छा, सुरक्षित तरीका यही हो सकता है कि पहले तो वस्तुओ के गुणों का अन्तर-वीक्षण मनोयोग के साथ किया जाए और फिर इन गणों को परीक्षण द्वारा समर्थित करते हुए उनकी व्याख्या मे धीरे-धीरे कुछ उपयुक्त स्थापनाएं उपस्थित की जाए।
तब आइज़क न्यूटन की आयु मुश्किल से 30 ही पार कर पाई थी, किन्तु विज्ञान जगत में उसकी प्रतिष्ठा एक समीक्षात्मक एवं परीक्षात्मक वैज्ञानिक के रूप में स्थायी हो चुकी थी। आलोचकों के प्रत्याख्यान से वह खिन्न हो चुका था, सो उसने निश्चय कर लिया कि अपनी और खोजों को वह अब प्रकाशित नही करेगा। वैज्ञानिक अनुसंधान में और नई स्थापनाओं मे तो वह पूर्ववत अब भी लगा रहा, और विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व पार्लियामेंट में करने के लिए भी उसके पास समय निकल आता था।
सन् 1684 में विश्व विख्यात नक्षत्रविद एडमंड हैली ग्रहों की गतिविधि के सम्बन्ध मे केपलर के सिद्धान्तो पर विचार-विनिमय के लिए न्यूटन के पास आया। इस परस्पर दानादान का परिणाम यह हुआ कि हैली को भी पता चल गया कि न्यूटन सभी भौतिक
सिद्धान्तो के मूलभूत सिद्धान्त– ब्रह्माण्ड-व्यापी सामान्य गुत्वाकर्षण के अंगाग की स्थापना कर चुका है। हैली ने न्यूटन को प्रेरित किया कि इन खोजों को प्रकाश मे लाना चाहिए और न्यूटन को कोई फालतू कठिनाई न हो इसलिए यद्यपि हैली खुद कोई अमीर आदमी नही था। वह यह भी मान गया कि मुद्रण का सारा खर्चा वही उठाएगा।
परिणाम– फिलासोफियाए नेचरलिस प्रिंसीपिया मैयमेटिका’ का प्रकाशन तीन खडों मे युग की वैज्ञानिक भाषा लैटिन मे, प्रस्तुत हुआ, जिसका अनुवाद कुछ-कुछ यूं हो सकता है– विज्ञान के गणनात्मक सिद्धान्त प्रिंसीपिया विश्व के इतिहास में एक प्रस्थान बिन्दु, प्रिंसीपिया का प्रतिपाद्य यह है कि गति मात्र- वह गति धरती पर हो, आकाश में ही कही हो– एक ही नियम श्रृंखला में बद्ध है, एक ही नियम मे अनुस्यूत है।
आइज़क न्यूटन के गति के नियम
न्यूटन के गति के नियमोंकी रूपरेखाप्रिंसीपीया में प्रस्तुत है।गति का पहला नियम है अचल स्थिति में पडी कोई वस्तु अचल ही पडी रहेगी जब तक कि उसकी उस स्थिति को बल द्वारा परिवर्तित नही कर दिया जाता, और गति की स्थित मे प्रवर्तमान कोई भी वस्तु उसी गति से निरन्तर चलती ही रहेगी जब तक कि उसकी उसी स्थिति मे कोई बल द्वारा परिवर्तन नही ले आया जाता। न्यूटन ने अनुभव किया कि किसी भी वस्तु को चलायमान करने के लिए वह वस्तु चाहे वृक्ष से गिरता कोई फल हो या समुद्र मे आया ज्वार हो, स्थिति परिवर्तन के लिए शक्ति की, बल की, आवश्यकता होती है। जरा सोचिये— जिस गाडी में हम यात्रा कर रहे है, सहसा रुक जाए तो क्या होगा ? क्योकि हमारे शरीर में तो अभी वही गति है, हम नही रुक सकेगे अगर हमारा सिर सामने की सीट में से एकदम टकरा नही जाता। इन तथ्यों का प्रत्यक्ष तो लोग पहले भी करते आए थे किन्तु न्यूटन ने उन्हें, गणित के नियमों के अनुसार, एक सूत्र का रूप दे दिया।
गति के दूसरे नियम में यह प्रतिपादित किया गया है कि– गति में परिवर्तन किस कदर आ रहा है, यदि हमे यह पता चल जाए तो, हम उस परिवर्तन के लिए वांछित शक्ति का परिमाण भी जान सकते है। गति मे परिवर्तन की इस नियमितता को विज्ञान मे आरोहावरोह (एक्सिलेशन) कहते हैं– जिसका अर्थ गति मे घटती, बढती, दोनो हो सकती है। उदाहरण के तौर पर एक मोटर गाड़ी को 25 मील प्रति घंटा की रफ्तार पर लाने के लिए ज़्यादा ताकत की जरूरत होती है बजाय उसी गाड़ी को उतने ही बल में शून्य से 15 मील प्रति घण्टा की रफ्तार में ले आने के लिए। दूसरे नियम का एक और निष्कर्ष यह भी निकलता है कि 60 मील प्रति घंटा की रफ्तार से चली जा रही एक मोटर को दस सैकंड के अन्दर-अन्दर रोकने के लिए वही ताकत आवश्यक है जो 30 मील की रफ्तार से चली जा रही उसी गाड़ी को 5 सैकंड में रोकने के लिए अपेक्षित होगी।
गति का तीसरा नियम यह है कि हर भौतिक क्रिया की ‘प्रतिक्रिया’ अवश्यम्भावी है और यह प्रतिक्रिया जहां परिमाण में ‘क्रिया’ के तुल्य होगी वहां दिशा में उसकी विरोधी भी होगी। इस एक नियम के कितने ही उपयोग हैं जिनमें सबसे अद्भुत संभवत: राकेटों की उड़ान में प्रत्यक्ष होता है। उधर, गरमा गरम गैसें पीछे की ओर निकलनी शुरू होती हैं और इधर रॉकेट आगे की ओर चलना शुरू कर देता है। या फिर अपने बगीचे में छिड़काव करते हुए शाम को देखें कि किस तरह, जैसे-जैसे पानी नॉजल से बाहर की ओर निकलता है, नॉजल खुद चक्कर करता हुआ पीछे की ओर जा रहा होता है।
और अकेला गुरुत्वाकर्षण का व्यापक नियम शायद इन सब सिद्धान्तों से कहीं अधिक आश्चर्यकारी था। न्यूटन ने इसमें प्रतिपादित किया कि पृथ्वी का हर कण हर दूसरे कण के साथ, जैसे एक खिंचाव के द्वारा बंधा हुआ है। धरती जहां पेड़ पर लदे फल को अपनी ओर खींचती है, वहां फल भी धरती को अपनी ओर खींच रहा होता है। यह नियम ग्रह-नक्षत्रों पर भी उसी तरह लागू होता है। सूर्य पृथ्वी को अपनी ओर खींचता है, पृथ्वी चन्द्रमा को और चन्द्रमा पृथ्वी को। गणित के एक सूत्र में यही बात प्रस्तुत करनी हो, तो दो वस्तुओं का यह परस्पर आकर्षण दो बातों पर निर्भर करता है। एक तो इस पर कि दोनों चीज़ें कितनी भारी हैं, और दूसरे इस पर कि उनमें निकटता व दूरी कितनी है।
प्रिंसीपिया के दूसरे भाग में प्रथम भाग की कल्पनाओं को पल्लवित भी किया गया है और कुछ नये विचार–गति के अवरोध के सम्बन्ध में भी आए हैं। यहां, उदाहरणतया, न्यूटन ने सुझाया है कि समुद्र में जहाज़ बिना किसी प्रकार की रुकावट के चुपचाप चलता चल सके इसके लिए उसकी शक्ल कैसी होनी चाहिए। पुस्तक के इसी भाग में तरंगों की गति का वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत हुआ है जिसका समर्थन आधुनिक विज्ञान अक्षरश: कर चुका है, क्योंकि आज के युग में, भौतिकी को उसकी आवश्यकता बहुत अधिक है।
प्रिंसीपिया के तीसरे भाग को मानव बुद्धि का एक महान चमत्कार माना जाता है। पृथ्वी पर प्रत्यक्षित वस्तुओं की गतिविधि के अध्ययन द्वारा न्यूटन गति तथा गुरुत्वाकर्षण के मौलिक सिद्धान्तों पर पहुंचा और दोनों ही नियमों को सूर्य की परिक्रमा कर रहे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर अभिव्याप्त देख गया। इन्हीं के द्वारा सूर्य तथा प्रथ्वी के परिमाण तक को सदा के लिए माप-तोल कर रख गया। गणित के आधार पर वह यह भी दर्शा गया है कि ध्रुवों पर धरती चपटी क्यों होती है? और भुमध्य रेखा पर उभरी हुई क्यों ?
चन्द्रमा के परिक्रमण मार्ग में ये अनियमितताएं क्यों आती हैं ? क्योंकि सूर्य का भारी-भरकम परिमाण उसे निरंतर अपनी ओर खींच रहा होता है। सूर्य और चन्द्रमा, दोनों, समुद्रों को अपनी अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। इन ज्वार-भाटों की गणना भी गणित के दो-एक सरल नियमों द्वारा की जा सकती है। दो वस्तुओं में परस्पर आकर्षण कितना होता है– न्यूटन का गणित सही-सही बता सकता था। किन्तु इस गुरुत्वाकर्षण का कारण क्या होता है ? इस प्रशन पर वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था। हमारे लिए बस इतना जान लेना ही पर्याप्त है कि गुरुत्वाकर्षण कुछ है जो हमारे निर्दिष्ट इन नियमों के अनुसार सक्रिय होता है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की, समुद्रों की, गतिविधि की व्याख्या करने के लिए पर्याप्त है। वैज्ञानिक के तौर पर आइज़क न्यूटन की ख्याति का मुख्य आधार उस युग में प्रिंसीपिया थी यद्यपि कुछ और निबन्ध भी उसने लिखे, विशेषतः दृष्टि-विज्ञान के सम्बन्ध में और प्रकाश के सम्बन्ध में तथा केल्क्यूलस का आविष्कार भी किया।
सन् 1699 में न्यूटन को टकसाल का मास्टर बना दिया गया और उसके पर्यवेक्षण में सिक्कों की बनावट में कुछ सुधार किए गए ताकि उनकी नकल अब न की जा सके। 1703 में उसे रॉयल सोसाइटी का प्रेजिडेंट चुना गया जहां वह मरने तक कायम रहा। 1705 में महारानी ऐनी ने उसे सर की उपाधि प्रदान की। 1727 में सरआइज़क न्यूटन की मृत्यु हुई, तब उसकी आयु 85 वर्ष थी। वेस्ट मिन्स्टर ऐबे में उसकी अंत्येष्टि सम्पन्न हुई। युगों में ऐसी प्रतिभा कभी-कभी जन्म लेती हैं। किन्तु उसने स्वयं अपने पूर्वाचार्यो का ऋण स्वीकार करते हुए कहा था, “अगर में कुछ भी आगे देख सका हूं तो वह दिग्गजों के कन्धों पर खड़े होकर ही।