अराकान योमाभारत की उत्तर-पूर्वी सीमाओं पर वर्मा राज्य के साथ साथ फैला घोर वनों से पटा हुआ एक पहाड़ी प्रदेश है। वर्षा के दिनों में इन पर्वतों पर इतनी अधिक वर्षा होती है, कि सभी यातायात के साधन रुक जाते हैं। घोर वनों के कारण मार्ग इतने कठिन हैं, कि एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाना बड़ा असम्भव प्रतीत होता है। घने जंगलों में जंगली जानवर भी भारी संख्या में पाये जाते हैं। जिन आदिवासियों का अरकान योमा के इस पहाड़ी क्षेत्र में वास है, उन में दो जातियां, चकमा तथा खोंग ही श्रेष्ट तथा प्रसिद्ध गिनी जाती हैं। किसी समय ये लोग आर्य धर्म को मानने वाले थे किन्तु अब बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। बर्मा के समीप होने से इन के सामाजिक तथा व्यावहारिक जीवन पर उन्हीं का विशेष प्रभाव पड़ा है। इतना कुछ होते हुये भी अपनी प्राचीन संस्कृति को इन लोगों ने नहीं बिसारा तथा आज भी उसी का अनुकरण करते चले आ रहे हैं।
अराकान योमा का आदिवासी जनजीवन
यहां की सभी जातियां बौद्ध धर्म को मानने वाली है, किन्तु हिन्दू धर्म की भी ये लोग कभी उपेक्षा नहीं करते। और रहा बौद्ध धर्म, सो वह तो आज इनका अपना धर्म है। बौद्ध धर्म के उपासक हो कर भी यह लोग हिन्दू धर्म के देवताओं में समान की श्रद्धा रखते हैं और उनकी पूजा करते हैं। चकमा जाति तथा खोंग जाति के लोगों की वैवाहिक-रीतियों का उल्लेख करने से पहले उनका इतिहास लिख देना आवश्यक है, कि ये लोग कौन थे, तथा किस प्रकार इस पिछडी हुई दशा को प्राप्त हुए ? क्या इनका अतीत कभी उन्नति के पथ पर था ? ये ऐसी बातें हैं, जिनका ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है।
अराकान योमा में वास करने वाली जनजातियों का इतिहास
वास्तव में यहां की चकमा जाति के लोग, पुराने जमाने के ऐतिहासिक राज्य चम्पानगर के रहने वाले थे। चीन के प्रसिद्ध यात्री ह्वानसॉन ने भारत में जो अपना यात्रा लेख लिखा था, उस से पता चलता है, कि आज के भागलपुर प्रदेश ही में पुरातन काल का चम्पानगर राज्य था। न जाने किस कारण अराकान के राजा ने चम्पानगर पर आक्रमण कर दिया। उस समय चम्पानगर राज्य शाक्यमोंग क्षत्रियों के राजा के अधिकार में था। ‘शाक्यमोंग’ लोगों ने बड़ी वीरता से अराकानी सेनाओं का मुकाबला किया, किन्तु अथक वीरता दिखाने के पश्चात् भी वे जीत न सके। अराकानी सेनाओं ने इन्हें बन्दी बना लिया, तथा राज्य की आज्ञा अनुसार इन्हें अराकानी जंगलों में रहने वाले जंगली मानवों के बीच छोड़ दिया गया। जहां प्रारम्भ में तो इन लोगों को भारी विपत्तियों का सामना करना पड़ा, परन्तु कुछ दिन बाद जब ये लोग वहां के आदिवासियों के जीवन से घुल मिल गये, तो इनकी कठिनाइयां दूर हो गईं।
समय बीतता गया, ओर अराकान लोगों की घनिष्ठता परस्पर बढ़ती ही गई। अन्त में इन लोगों के विवाह आदि संस्कार भी इन्हीं लोगों के साथ होने लगे। दो भिन्न विचारों के मानव परस्पर मिल कर अपने वास्तविक रूपों को छोड़ कर एक रूप होने लगे। आदिवासियों का संपर्क पा कर यह शाक्यमोंग लोग श्रपनी उच्च आर्य सभ्यता से विमुख हो कर पिछड़ गये। यह तो रहा शाक्यमोंग लोगों का हाल, इसके विपरीत अराकानी आदिवासियों की दशा सभ्य लोगों के संपर्क से बहुत कुछ सुधर गई।
आदिवासियों की उन्नति, तथा शाक्यमोंग वंशजों का पतन धीरे धीरे होता रहा। किन्तु एक समय ऐसा आया जब दोनों जातियां परस्पर इतनी घुल मिल गईं कि इनका भेद मिटने लगा कि कौन आदिवासी है, तथा कौन सभ्य प्राय। विवाह आदि सम्बन्ध परस्पर हो जाने से तो इन के वरण भी घुल मिल कर किसी तीसरी ही प्रकार के हो गये। एक दूसरे ने अपने रीति-रिवाजों को भी एक दूसरे में मिश्रित कर दिया। इस प्रकार यह जातियां भारत की सभ्यता के निकट रह कर भी उस से दूर चली गईं, किन्तु अपनी आर्य संस्कृति की छापों को इन लोगों ने अपने जीवन से हटने नहीं दिया। तभी तो हज़ारों वर्ष बीत जाने के पश्चात, आज भी ये लोग अपने महान अतीत पर गर्व करते हैं।
अराकान योमा की जनजाति
चकमा शब्द वास्तव में “शाक्य-मोंग’ शब्द का ही बिगड़ा हुआ
स्वरूप है। क्योंकि पुरातन काल में जब इन लोगों को बन्दी बना कर अराकान के घने जंगलों में वहां के पिछड़े हुये आदिवासियों के बीच छोड़ा गया था, तो ये लोग अपने आप को एक बहुत बड़ी मुसीबत में फंसा हुआ समझते थे। एक तो हर समय आदिवासियों के बीच रहना। उन की भाषा खान-पान, आचार-विचार तथा, रहन-सहन आदि सभी कुछ ठीक प्रकार समझ न पाने पर इन्हें बड़ी कठिनाई अनुभव होती थी प्रारम्भ में तो आदिवासी इन्हें शत्रु समझ कर इनके प्राणों के भूखे हो गये। परन्तु धीरे धीरे उन्हें इन लोगों को अपने बीच मिलाना ही पडा, तथा उन्होंने अपनी ही भाषा के मिश्रण से शाक्य-मोंग का अपभ्रंश कर डाला जो सब से प्रथम तो चाक्यमों बना, ओर फिर धीरे धीरे बिगड़ता हुआ चकमा रह गया।
इसी प्रकार खोंग जाति के लोगों का भी अपना इतिहास है विद्वानों तथा जानकारों का मत है, कि यहां के आदिवासियों की वास्तविक संतानें ही खोंग जाति के लोग हैं। इनकी अपनी भाषा है, तथा उसकी लिपि भी अजीब ही प्रकार की है। जिसे अराकानी लिपि भी कहते हैं। खोंग जाति के लोगों की अपनी लिपि इस बात का प्रमाण है, कि कभी यह अवश्य ही सुशिक्षित रहे होंगे, पर परिस्थितियों वश यह लोग अन्य सभ्य जगत से पिछड़ कर अंधेरी दुनियां में ही रह गये। यदि यह लोग पूर्ण रूप से भयंकर जंगली मानव होते, तो शाक्यमोंग लोगों के इस प्रदेश में आगमन पर एक भीषण संग्राम मच जाता, जिससे या तो शाक्यमोंग वंशियों का नाश हो जाता, और या यह आदिवासी ही जन्म-भूमि का परित्याग कर कहीं अन्यत्र चले जाते।
यह सत्य है, कि उस दिन के अराकान चम्पानगर के शाक्यमोंग लोगों की भांति वे लोग अधिक सभ्य नहीं थे, किन्तु इतने पिछड़े हुये भी नहीं थे जो कि पूरा रूप से जंगली हों। संभव है, कि वे किन्हीं अज्ञात कारण वश उन्नतिशील जगत से पीछे रह गये हों, परन्तु इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता, कि इससे पहले कभी वे किसी वैभवशाली सभ्यता के अनुयायी अवश्य रहे थे।
जनजातियों का विवाह रिति रिवाज
चकमा जाति के लोगों में विवाह रीतियां जिस अनोखे प्रकार से प्रस्तुत की जाती हैं, वह भी उल्लेखनीय है। उत्तरी भारत के आर्य वंशजों की तरह इन लोगों में कन्या के लिये वर की खोज कन्या का पिता नहीं करता बल्कि पुत्र के जवान होने पर पुत्र के पिता को ही उसके लिये किसी योग्य वधू की आवश्यकता अनुभव होती है। जब कोई कन्या उसकी दृष्टि में अपने पुत्र की वधू बनाने के योग्य सिद्ध होती है, तो वह स्वयं लड़की के बाप के पास एक ‘आस’ ले कर जाता है। तथा उसके द्वार पर पहुंच कर वह लड़की के पिता को अपना परिचय देकर कहता है, “में आपके पास एक आस ले कर आया हूँ, आशा है आप निराश नहीं करोगे।” और फिर मूल-प्रसंग से उसे परिचित कराता है। इस पर लड़की का पिता सम्पूर्ण गाँव वालों की पंचायत बुलाता है, जिसमें गांव के सभी प्रतिष्ठित जन एकत्रित होते हैं। यदि उनके समक्ष लड़की वाला अपनी पुत्री उसके पुत्र के साथ ब्याहने को राज़ी हो जाये, तो फिर लड़की की कीमत निश्चित होती है। कीमत का अर्थ यह नहीं है, कि लड़की का बाप लड़के वाले से लड़की का सौदा करता हो, और उसकी कीमत माँगता हो, अपितु इसका अर्थ यह होता है, कि यदि उसकी पुत्री की मृत्यु लड़के अथवा उसके पति के अत्याचारों द्वारा हो, जैसे, किसी अपराध से रुष्ट हो कर वह उसका खून कर डाले। तो यही निश्चित किया हुआ मूल्य चुका कर उसे सामाजिक बन्धनों से पीछा छुड़ाना पड़ता है। अन्यथा उसे ज़ालिम, खूनी, समाजद्रोही समझ कर गांव तथा जाति दोनों से पृथक कर दिया जाता है। लड़की का यह मूल्य डेढ़ सौ रुपये से ऊपर किसी भी राशि तक निश्चित किया जा सकता है। वास्तव में यह मुल्य लड़की तथा लड़के वाले दोनों की आर्थिक दशा को ध्यान में रखते हुये निश्चित किया जाता है। इस बात का पंचायती सदस्य विशेष ध्यान रखते हैं, कि यह मूल्य किसी भी पक्ष की सामर्थ्य से अधिक सिद्ध न हो। यह सब हो जाने पर लड़की वाला लड़के वाले के सामने बारात लाने का प्रस्ताव रखता है।
किसी निश्चित शुभ दिवस को लड़का अपनी बरात के साथ लड़की वाले के घर आता है। अन्य भारतीय आर्य जातियों की तरह इन लोगों में “भाँवर’ अथवा “फेरे फिरने की रीति नहीं होती अपितु लड़के तथा लड़की को साथ साथ काठ की दो चौकियों पर सजा कर बिठा दिया जाता हैं, और सभी सगे सम्बन्धी उनके चारों ओर बैठ जाते हैं। दूल्हा तथा दुलहन के आगे एक थाली में चावल,मिष्ठान्न, अण्डे तथा अन्य आवश्यक वस्तुएं रीति अनुसार रख दी जाती हैं। इसके बाद दोनों का गठबन्धन कर दिया जाता है। यह सब कुछ हो जाने पर सभी उपस्थित जन धीरे धीरे कच्चे सूत के धागे उन के चारों ओर लपेटते जाते हैं। जिसका अर्थ यह होता है, कि अब यह दोनों अलग अलग नहीं रहे, अपितु एक सूत्र में बन्ध चुके हैं, जीवन-मरण का साथ हो चुका है। अब कोई भी शक्ति इन्हें पृथक नहीं कर सकती। दोनों जीवन सूत्र के इन कच्चे डोरों में बंध कर आज एक हो चुके हैं। इस रसम की समाप्ति पर सभी उपस्थित जनों को दुल्हा तथा दुल्हन प्रणाम करते हैं, और उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। फिर लड़की तथा लड़के के लिये भोजन लाया जाता है, जिसे वह एक दूसरे को खिलाते हैं, और यहां तक पहुँच कर विवाह समाप्त हो जाता है।
विवाह तो समाप्त हो जाता है, परन्तु अभी बारात विदा नहीं की जाती, शेष विदाई की रसम अगले दिन के लिये छोड़ दी जाती है। अगले दिन सभी उपस्थित महमानों तथा सगे सम्बन्धियों को एक प्रीति-भोज दिया जाता है। जब भोजन से छुट्टी पा ली जाती है, तो वर तथा वधू साथ-साथ हाथों में हाथ डाले आकर सभी महमानों के समक्ष नमस्कार करते हैं। फिर लड़की का बाप अपनी पुत्री तथा दामाद को कुछ आवश्यक ग्रहस्थ नीति समझा कर विदा कर देता है।
इसके विपरीत खोंग जाति के लोगों की विवाह-रीति इन “’चकमा’ लोगों से कुछ थोड़ी सी भिन्न है। किन्तु इस जाति में भी लड़के के ही पिता को दुलहन की खोज करनी पड़ती है। जब कोई योग्य लड़की उसे पसन्द आजाती है, तो वह उसके पिता के पास जा कर उसकी पुत्री का सुसर बनने का प्रस्ताव रखता है। यदि लड़की का पिता इसे स्वीकार कर ले, तो गांव के सभी प्रतिष्ठित जनों को एकत्रित कर के एक मुर्गा मंगाया जाता है। मुर्गा लाने का प्रबन्ध लड़की वाले पर होता है। जब मुर्गा आ जाता है, तो उसे मार कर उसकी जीभ निकाल ली जाती है। इस जीभ पर बने हुये प्राकृतिक चिन्हों द्वारा ही पण्डित जन विवाह के शुभ अथवा अशुभ होने का निर्णय करते हैं। यदि लक्षण शुभ विवाह की ओर संकेत करते हैं, तब तो लड़का अपनी बारात किसी अच्छे महूर्त में लेकर आ जाता है, अन्यथा विवाह सम्बन्ध लक्षण के प्रतिकूल होने पर तत्काल समाप्त कर दिया जाता है।
इन लोगों की बारात भी बड़े अजीब प्रकार की होती है। विशेष प्रियजनों को ही बारात में चलने का अधिकार होता है। ये सभी लोग विवाह वाले दिन, उल्टे सीधे बने हुये बेढंगे ढोल आदि पीटते हुये लड़की के घर आते हैं। इसके पश्चात बौद्ध धर्म का पण्डित जिसे अराकानी भाषा में ये लोग “पुंगई” कहते है आता है। यही धर्म-ग्रन्थी इन लोगों के विवाह आदि संस्कार रीति अनुसार कराया करता है। लड़के को एक पवित्र स्थान पर खड़ा करके लड़की को बुला कर उस की बगल में खड़ा कर दिया जाता है। उस समय वर तथा वधू का मेकअप देखने योग्य होता है। अनेक प्रकार के सुन्दर रंगीन वस्त्र उन्हें पहनाये जाते हैं। इसके बाद पुंगई अपनी मुठ्ठियों में उबले हुये चावल लेकर दोनों हाथों को इस प्रकार एक दूसरे पर रखता है, जिस से गुणा चिन्ह की आकृति सी बन जाती है। तथा उसी अवस्था में अपने हाथों से वह वर तथा वधू को उन चावलों का भोजन कराता है। इस प्रकार सात बार करने के पश्चात् वधू पर वर का सामाजिक तौर पर पूर्णा अधिकार हो जाता है। यह है
खोंग जाति के लोगों की विवाह रीति है।
अराकान योमा की इन आदिवासियों की स्त्रियाँ प्राय: विवाह के सुअवसर पर भारत की अन्य जातियों की स्त्रियों की भांति ही नृत्य तथा गीत गाया करती हैं। भले ही यह गीत भाषा की अनभिज्ञता के कारण हमारी समझ में नहीं आते, और चाहे उन में संगीत कला की दृष्टि से कोई गुण नहीं, फिर भी उसमें छिपे हुये भाव उनकी उच्च काव्य-कल्पना के प्रतीक हैं। जिनसे उनके प्राचीन आदर्श, जीवन तथा उच्च-ज्ञान का अनुमान लगाया जा सकता है।
अराकान जनजातियों की वेशभूषा
‘चकमा’ तथा ‘खोंग’ जाति के लोगों में वेशभूषा की दृष्टि से भी
बड़ा भेद है। चकमा लोग तो फिर भी कुछ कुछ भारतीय वेशभूषा का अनुकरण किये हैं। परन्तु खोंग जाति के लोग तो बिल्कुल ही भिन्न प्रकार के हैं। खोंग जनजाति के लोगों को दूर से देखने पर स्त्री तथा पुरुष में कोई भी भेद मालुम नहीं पड़ता। यह पहचानना ही कठिन हो जाता है, कि कौन स्त्री है, तथा कौन पुरुष, क्योंकि दोनों की वेशभूषा एक समान ही होती है। चकमा जनजाति की स्त्रियों की भांति खोंग स्त्रियां धोती अथवा साड़ी आदि का उपयोग नहीं करतीं, बल्कि केवल एक लुंगी ही बांधती हैं। इसके अतिरिक्त सिर के केश बढ़ाने का रिवाज पुरुषों में भी है। सिर के बाल कटवाना इस जाति में सामाजिक तौर पर निषिद्ध है। इसके बारे में इन का मत है, कि प्राचीन काल में अराकान देश पर एक बड़ा ही बलवान राजा शासन करता था तथा उसकी रानी इतनी रूपवती थी, कि राजा ने राज्य का सम्पूर्ण भार उसके प्रेम में डूब करकेवल उसी पर छोड़ दिया, और स्वयं हर समय उस की प्रेम लीला में खोया रहने लगा। किन्तु रानी ने अपनी चेतना का परित्याग नहीं किया, अपितु इस बुद्धि मानी से राज्य प्रवन्ध चलाया, कि प्रजा में सुख शान्ति का साम्राज्य छा गया। प्रजा अपनी महारानी को किसी देवी शक्ति का अवतार समझने लगी। तभी एक दिन रानी को ऐसा अनुभव हुआ जैसे पुरुष लोग नारी जाति को अपनी मानव जाति से भिन्न मान कर उसे समान दृष्टि से नहीं देखते उसने तभी इस भेद को मिटाने के लिये प्रजा से प्रार्थना की कि स्त्रियां अपनी महारानी की इच्छा अनुसार धोती या साड़ी का परित्याग कर अब लुंगी बाँधा करें तथा पुरुष सिर के केश बढ़ायें तथा हाथ और पैरों पर ग़रुदने गुदवाया करें।
अपनी देवी समान महारानी के आदेश को प्रजा टाल नहीं पाई,
तथा उसे देवादेश समझ कर उसका अनुकरण कर उठी। तभी से सब खोंग जाति के पुरुष हाथ पैरों पर गरुदने गुदवाते हैं, तथा सिर के केश बढ़ाते हैं। दूसरी ओर स्त्रियों में भी साड़ी के स्थान पर वही लुंगी बाँधने का रिवाज चला आ रहा है। स्त्रियों में चोटी करने का रिवाज नहीं है, बल्कि सभी स्त्री पुरुष अपनी अपनी केश राशियों को संवार कर पीछे की झोर गांठ के रूप में बाँध लेते हैं।
अराकान आदिवासियों के त्योहार उत्सव
अराकान के यह लोग ‘विस्शु’ नामी त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। यही इनका सब से मुख्य त्योहार है। बसंत के सुअवसर पर यह लोग गौतम बुद्ध, लक्ष्मी तथा दुर्गा आदि देव पुरुषों तथा देवियों की पूजा बड़ी श्रद्धा से करते हैं। तथा ऐसे अवसर पर स्त्री पुरुष सभी इकट्ठा मिल कर नृत्य भी करते हैं, तथा खूब गाते बजाते हैं। इन लोगों में एक अनोखी प्रथा और भी प्रचलित है, कि जब इन के गांव के किसी सरदार आदि की मृत्यु होती है। तो उसे सजा कर बड़ी धूमधाम से एक रथ में रख कर श्मशान की ओर ले जाते हैं, वहां पहुंच कर रथ के दोनों ओर मोटे मोटे रस्से बांध दिये जाते हैं, जिसमें एक ओर स्वर्ग तथा दूसरी शोर नरक निश्चित कर दिया जाता है, फिर सभी एकत्रित जनों को बराबर बराबर बांट कर रस्सों को खींचा जाता है। यदि स्वर्ग के पक्ष वाले व्यक्ति जीत जाते हैं, तो यह समझा जाता है, कि सरदार अपने शुभ कर्मों के अनुसार स्वर्ग को गया है, अन्यथा नरक पक्ष के जीतने पर उसका वास नरक में ही समझा जाता है। यह सब कुछ करने के पश्चात ही रीति अनुसार उसका अन्तिम संस्कार किया जाता है।
अराकान आदिवासियों का जीवन
अराकान पहाड़ियों में भारत के अन्य प्रदेशों की भांति मकान एक दूसरे के निकट नहीं होते, अपितु बड़ी दूर दूर स्थित होते हैं। बात वास्तव में यह है, कि सभी लोग अपने घर अपने खेतों के मध्य में ही बनाते हैं। इकट्ठा मकान बनाने का वहां रिवाज नहीं है। अराकान लोगों को फूलों से बड़ा प्यार होता है। बालों तथा वस्त्रों में फूल लगाये रहने का इन्हें बड़ा चाव होता है। सुबह सवेरे ही युवक वन को जाते हैं, तथा वहां से सुन्दर पुष्प तोड़ कर लाते हैं। और अपनी पत्नियों के बालों में लगाते हैं। ग्रहस्थ जीवन में इन दम्पत्तियों के बीच पुष्प का जितना महत्व होता है, उतना किसी अन्य वस्तु का नहीं। यह लोग कहीं भी हों, काम पर अथवा आराम पर, हर समय इन के वस्त्रों अथवा केशों में सुगन्धित पुष्प सजे रहते हैं। यहां कोई भी शुभ कार्य बिना पुष्पों के पूर्ण नहीं समझा जाता। हमारे गांवों की चौपालों की तरह वहां विशेष पंचायतों के लिये चौपालें नहीं होती, अपितु एक खोंग-गृह होता है। यह खोंग-गृह गांव के निकट ही किसी रमणीक तथा शांत वातावरण में बनाया जाता है। बाँस की फट्टियों से बनाया गया यह छोटा सा भवन बड़ा साधारण होता है। यही इन लोगों का धर्म स्थान अथवा मन्दिर होता है, जहां गांव के सभी लोग पूजा पाठ आदि करते हैं। भगवान बुद्ध की मूर्ति भी इसके बीच सजी होती है। यह मूर्तियां अधिकतर लकड़ी की बनी होती हैं।
प्रत्येक खोंग-गृह का एक पुजारी भी होता है। इस का काम मन्दिर की देख भाल तथा पूजा पाठ आदि करना है। इसके अतिरिक्त इन अराकानियों के विवाह आदि संस्कार भी यह पुजारी ही करता है। केवल इतना ही कार्य इस पुजारी का नहीं होता, इसके अलावा गांव के बच्चों की शिक्षा दीक्षा आदि कार्य भी इसी के ज़िम्मे होते हैं। इसकी वेशभूषा भी बड़ी सरल होती है। पीत्र वर्ण के वस्त्रों में ये पुरातन काल के धर्माचार्य की भांति प्रतीत होता है। इस पुजारी को अपने खर्च के लिये कहीं मांगने नहीं जाना पड़ता, बल्कि जिस चीज़ की भी उसे आवश्यकता होती है, वह गांव के लोग ही उसके
लिये उपलब्ध करा देते हैं। खाना-दाना भी उसका ग्राम-वासियों के ही सिर होता है श। जब कोई महमान आदि गांव में आता है, तो उसका खाना आदि भी गाँव की लड़कियां ही उसके लिये मन्दिर पर पहुंचा देती हैं, क्योंकि उसका रहने का प्रवन्ध इन्हीं मन्दिरों पर किया जाता है। अपने महमानों की टहल सेवा में ये लोग इतने उच्च आदर्श के तो हैं नहीं, जो उसके लिये अपना सभी कुछ भुला दें, परन्तु फिर भी उससे पर्याप्त स्नेह रखते हैं यदि ये शिक्षित हो जायें, तो हो सकता है, कि अपनी जंगली बातें त्याग कर यह लोग भारत के सभ्य नागरिक बन जायें।
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