तलवार के धनी अमरसिंह राठौर को आज कौन नहीं जानता ?
इन्होंने अपनी वीरता की धाक मुगल बादशाह पर पूरी तरह से,
स्थायी रूप से जमा दी थी। आज भी देश के नवयुवक कलाकार रंगमंच पर वीर अमरसिंह राठौर की याद ताजा कर देते है। यद्यपि वे शाहजहां के दरबारी थे । कन्तु स्वाभिमानी व्यक्ति थे अपना अपमान कभी सहन नहीं कर पाते थे। एक बार बादशाह किसी व्यक्ति के बहकावे में आकर भरे दरबार में अमरसिंह राठौड़ को जुर्माना की धमकी दी । वे उस धमकी को सहन न कर सके और निर्भीकता के साथ प्रत्युत्तर दिया कि मेरे जुर्माने की राशि इस तलवार में हैं। मैं इसकी तक्ष्णता से आपका सारा जुर्माना चुका दूंगा।”
अमरसिंह राठौर की वीरता की कहानी
अमरसिंह राठौर जोधपुर के राजा गजसिंह के ज्येष्ठ पुत्र थे। ये बड़े
पराक्रमी थे इन्होंने अपने पिता के साथ युद्ध में बड़े उत्साह से भाग लिया था और अपने बाहुबल के आधार पर विजय श्री भी प्राप्त की थी। वीर होने के साथ साथ अमरसिंह राठौड़ अत्यन्त क्रोधी स्वभाव के भी थे। इसी कारण इनके पिताजी इनसे अप्रसन्न थे और राजगद्दी पर बैठने का अधिकार भी छीन लिया गया। अन्त में राजगद्दी पर इनके छोटे भाई यशवन्त सिंह को बैठाया।
ऐसी अपमानित स्थिति में अमरसिंह राठौर अपनी जन्म भूमि में नहीं टिके और वहां से चल दिए। इनके साथ कुछ मित्रगण भी थे। मित्रों की सलाह से दिल्ली के सम्राट शाहजहां के यहाँ नौकरी कर ली। शाहजहां वीर पुरुष को अपने पास पाकर बहुत ही प्रसन्न था। वह राजपूतों की वीरता से भलीभांति परिचित था विशेष रूप से अमरसिंह राठौर जेसे वीर योद्धा से तो वह अत्यन्त खुश था।
शाहजहां ने प्रसन्न होकर अमरसिंह राठौड़ को अच्छा प्रतिष्ठापूर्ण
पद भी दिया। अमरसिंह राठौर ने थोड़े ही दिनों में अपने वीरता पूर्ण कार्यो से बादशाह के हृदय पर प्रभाव जमा लिया। उसने बादशाह के अनेक विद्रोहियों का दमन किया तथा उनसे किले भी जीते। शाहजहां उसकी वीरता और विजय से प्रसन्न होकर तीन हजार सिपाहियों का सरदार बनाया और “राव” की उपाधि से विभूषित भी किया। उन्हें नागौर किले की जागीर भी दी।
अमरसिंह राठौरअमरसिंह राठौड़ की सफलता और बादशाह द्वारा दिए गये सम्मान से शाहजहां के साले सिपहसालार सलावत खां को मन ही मन घोर ईर्ष्या थी। उसने अमरसिंह के विरुद्ध कई बार बादशाह को भड़काने की कौशिश की तथा दरबार में भी ऐसा वातावरण बनाना चाहता था, परन्तु सफल न हो सका। सलावत खां समय की इन्तजार में था। समय सभी को मिलता है, सदपयोग और दुरुपयोग मनुष्य की बुद्धि और विवेक पर निर्भर है। एक बार अमरसिंह राठौर किसी कारणवश 15 दिन तक दरबार में अनुपस्थित रहा। सलावत खां ने उसकी अनुपस्थिति से फायदा उठाया और बादशाह को उसके विरुद्ध भड़काता रहा। बादशाह भी अन्त में अपने साले साहब के चक्कर में चढ़ गए। जिस दिन अमरसिंह राठौड़ दरबार में पहुंचे तो शाहजहां ने उन पर जुर्माना करने की धमकी दी। जुर्माने की बात सुनते ही अमरसिंह राठौर को क्रोध आ गया उन्होंने दरबार में तलवार निकाल ली और कड़क कर कहा कि “मेरा सारा जुर्माना इस तलवार में है। मैं इसकी तीक्ष्णता से सारा जुर्माना चुका दूंगा ।” और इतना कहकर वहां से चले गये।
बादशाह अमरसिंह राठौड़ के इस व्यवहार से भरे दरबार में अपमानित हुए। उन्हें बहुत क्रोध आया तथा राव साहब को बुलवाया गया। अमरसिंह राठौर का क्रोध अब भी शांत न था क्योंकि वे सलावत खां के कार्यों से परिचित थे। वे क्रोध: में आकर दरबार में चल दिये, सलावत खां को दरबार में देखते ही उनकी आंखों से क्रोधाग्नि निकलने लगी। उन्होंने उसी समय सलावत खाँ का सिर घड़ से अलग कर दिया और बादशाह को मारने के लिए कटारी फैंकी। बादशाह अपने बचाव के लिए महल में भाग गये। अगर ऐसा न करते तो अवश्य मारे जाते। इसके बाद दरबार में घमासान युद्ध हुआ कई सरदार और अमीर मौत के घाट उतार दिए गए। फौज ने किले के दरवाजे बन्द कर लिये और अमरसिंह राठौर को घेरना चाहा किंतु शेर को बांधना मुश्किल था। वह वीर योद्धा किले की दीवार से घोड़े सहित कूद पड़ा, घोड़ा खाई में गिरकर पुरन्त मर गया किन्तु अमरसिंह राठौर सुरक्षित वहां से निकल गये। सम्पूर्ण सेना के सैनिकों के हृदय में भय था वे उनके नाममात्र से ही बहुत घबराते थे।
शाहजहां का हृदय भी अमरसिंह से बहुत भयभीत था और सचमुच में अमरसिंह राठौड़ अपने दुश्मन के लिए बहुत खतरनाक ही नहीं बल्कि मौत रूप में थे। बादशाह फिर भी इस अपमान का बदला लेना चाहता था। उसने दरबार लगा के उसमें उसको पकड़वाने का बीड़ा उठवाया और पकड़कर लाने वाले को पद और इताम की घोषणा भी की। आश्चर्य की बात तो यह थी कि दरबार में सभी सरदार और अमीर लोग एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। किसी का साहस नहीं हुआ जो राठौर को पकड़ने की प्रतिज्ञा करता अपने आपको मौत के मुंह में झोंकता। अन्त में गद्दार अरवजुन गोरे जी अमरसिंह राठौर का साला था, इस लोभ के चक्कर में आ गया। सत्य है-घर का भेदी लंका ढावे। उसने अमरसिंह को पकड़वाने का बीड़ा उठा लिया।
अर्जुन गोरे ने अपना जाल फैलाना शुरू किया, कई तरकीबें सोची । एक दिन निश्चय करके वह अपने बहनोई अमरसिंह राठौड़ के पास पहुंचा। उसने कहा, बादशाह तुमसे संधि करना चाहते हैं। वह पिछले बेर भाव को भूल गये हैं और आपको दरबार में बुलाया है।
अमरसिंह राठौड़ दिल के साफ थे, उनकी नीयत में गन्दगी नहीं थी । अपने साले अर्जुन गोरे की बातों में आ गये और उनके साथ आगरा चल दिये। उन्हें उसके धोखे की कतई कल्पना भी न थी। अर्जुन गोरे यह भली भांति जानता था कि अमरसिंह से लडकर जीत की आशा रखना केवल हवाई किले बनाना होगा, अत: छल- कपट का ही सहारा लिया। उसने एक उपाय सोचा और अमरसिंह को किले के दूसरे द्वार से ले जाने लगा। उस समय उक्त द्वार बन्द था। द्वार की खिड़की ही केवल अन्दर प्रवेश पाने का सहारा था। द्वार की खिड़की से घुसते हुए अमरसिंह पर अर्जुन गोरे ने पीछे से तलवार का वार करके उसे मार दिया। परन्तु वीरवर अमरसिंह राठौर ने मरते मरते भी अर्जुन गोरे पर कटारी फेंकी जिससे उसे अपनी नाक से हाथ धोना पड़ा तथा हमेशा के लिये नकटा हो गया।
बादशाह को जब अर्जुन गोरे के कायरता एवं विश्वासघात से परिपूर्ण कार्य का समाचार मिला तो अत्यन्त दुःख हुआ। बादशाह ने अनुभव किया कि उसने अपने एक वीर को सदा के लिये खो दिया। अर्जुन गोरे के लोभ और धोखे पर क्रोध आया। उन्होंने उसी समय अर्जुन गोरे को देश से निकाल दिया और अमरसिंह के भतीजे को ही पद दिया गया। अमरसिंह राठौर का नाम आज भीराजस्थान के इतिहास में प्रसिद्ध है तथा जब भी नाम आता है गौरव से सिर ऊंचा हो जाता है। आगरे के किले के दरवाजे पर जहां उनकी मृत्यु हुई थी “अमरसिंह द्वार नाम से आज भी प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त किले से कुदने पर जहां उनका घोड़ा मरा था उसका चिन्ह आज तक बना हुआ है।
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