अंतरिक्ष किरणों की खोज की कहानी दिलचस्प है। सन् 1900 के लगभग सी.टी,आर. विल्सन, एन्स्टर और गीटल नामक वैज्ञानिक गैस के विद्युतीय संचालन के विषय में परीक्षण कर रहे थे। अचानक उन्होंने पाया कि विद्युतदर्शी (इलेक्ट्रेस्कोप) के चारों ओर कुचालको (Bad conductors) की व्यवस्था होते हुए भी उसमें कोई आवेश (Charge) नहीं ठहर पा रहा है। उन्हें लगा कि इसकी कारण कोई अज्ञात शक्ति है, जो आवेश को नष्ट कर रही है।
उन्हें आश्चर्य था कि इलेक्ट्रोस्कोप के चारों ओर लोहे और सीसे की मोटी दीवारों के बावजूद आवेश ठहर नहीं पा रहा था। इसका अर्थ उन्होने यही निकाला कि वह शक्ति अत्यंत अंतर्वेधी है और इलेक्ट्रोस्कोप के अंदर विद्यमान न होकर कहीं बाहर से आ रही है। इन्हीं बातो का पता रदरफोर्ड और कुक ने भी लगाया था। परंतु वे किसी निष्कर्ष पर नही पहुंच पाए। कुछ वैज्ञानिकों की राय में यह विकिरण पृथ्वी में रेडियोसक्रिय (रेडियो एक्टिव) पदार्थों के पाए जाने के कारण है। लेकिन पृथ्वी से लगभग नौ
हजार मीटर की ऊंचाई तक पहुंचने पर भी विकिरण की तीव्रता घटने के बजाएं और बढ़ गई। इससे यह बात बिल्कुल साफ हो गई कि इसका उद्गम पृथ्वी पर न होकर कहीं अंतरिक्ष में है। इसी कारण इसे अंतरिक्ष विकिरण कहा गया।
अंतरिक्ष किरणों की खोज कैसे हुई थी
सन् 1910-19 में एक वैज्ञानिक गोकिल ने समुद्र की सतह से चार हजार मीटर ऊपर गुब्वारे की सहायता से पहुंच कर यह पता लगाया कि ऊँचाई बढ़ने पर अंतरिक्ष किरणों की तीव्रता कम नहीं होती। वैज्ञानिक हैस ने सन् 1912-13 में यह खोज की कि एक विशेष ऊंचाई पर पहुंच कर विकिरण की तीव्रता में कमी होती है
परंतु और ऊपर जाने पर अचानक तीव्रता में तेजी से वृद्धि होती है। अत: इस खोज से हैस इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अंतरिक्ष किरणों का उद्गम निश्चित रूप से अंतरिक्ष में ही कहीं है।
हैस ने इसके बाद अंतरिक्ष किरणों पर परीक्षण करना शुरू कर दिया। अंतरिक्ष किरणें सामान्य तौर पर दो तरह की होती है (1) कठोर अंतरिक्ष किरणे और (2) मंद अंतरिक्ष किरणे। कठोर अंतरिक्ष किरणें लगभग 10 सेमी. मोटे सीसे को भेद कर निकल जाती है लेकिन मंद किरणें इसे भेद नही पाती। अंतरिक्ष किरणों की तीव्रता पर पृथ्वी के वायुमंडल के दबाव का भी असर पड़ता
है। इनकी तीव्रता का प्रभाव कमा लंब रूप में ज्यादा पड़ता है और कोणीय रूप मे कम। यही कारण है कि पृथ्वी के भिन्न-भिन्न अक्षांशों पर इनकी तीव्रता भिन्न-भिन्न होती है।मोटे सीसे को भेदकर पार चली जाती हैं।
अंतरिक्ष किरणोंभिन्न भिन्न देशांतरों पर भी अंतरिक्ष किरणों की तीव्रता भिन्न होती है। इसे देशांतर का प्रभाव कहा जाता है। देशांतर और अक्षांशों पर अंतरिक्ष तीव्रता के इस भिन्न-भिन्न प्रभाव से यह ज्ञात होता है कि इन किरणों पर आवेश (Charge) होता है, जिससे पृथ्वी के चुम्बकीय प्रभाव से ये किरणें विचलित जाती हैं। अंतरिक्ष किरणों की तीव्रता का प्रभाव पश्चिम में पूर्व की बजाए कुछ ज्यादा होता है। इसके अलावा इन किरणों की तीव्रता पृथ्वी के उत्तरी और दक्षिणी भाग पर भी भिन्न होती है, जिसे ‘उत्तर-दक्षिण प्रभाव” कहा जाता है। मौसम का प्रभाव अंतरिक्ष किरणों पर पड़ता है। सर्दी के मौसम में इनकी तीव्रता अधिक होती है। दिन तथा रात में भी अंतरिक्ष किरणों की तीव्रता में अंतर आ जाता हैं। रात के समय इनकी तीव्रता ज्यादा और दिन के समय कम होती है। इसे ‘अंतरिक्ष किरणों का दैनिक प्रभाव” कहा जाता है।
ऊंचाई से किसी अज्ञात उद्गम से आती हुई ये अंतरिक्ष किरणें पहले पृथ्वी के वायुमंडल में अवशोधित हो जाती हैं, जिससे इनकी तीव्रता में कमी हो जाती हैं। लेकिन कुछ और नीचे आने पर इनकी तीव्रता में फिर बढ़ाव आ जाता है। इससे यह भिन्न-भिन्न देशांतरों पर भी अंतरिक्ष किरणों की तीव्रता भिन्न होती है। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि ये किरणें उन आवेशित कणों से बनी हैं, जिनका एक कण कई सूक्ष्म कणों मे बंट जाता है। इसे ‘अंतरिक्ष-किरण वर्ण” कहा जाता है। कभी-कभी वायुमंडल में इन किरणों के कारण किसी विशेष स्थान पर आवेश
ज्यादा हो जाता है। इसे अंतरिक्ष किरण प्रस्फोट’ कहा जाता है।
अमेरिका ने अपने उपग्रह एक्सप्लोरर-1 और एक्सप्लोरर-3 द्वारा तथा रूस ने अपने उपग्रह स्पुतनिक तथा ल्यूनिक द्वारा ऊंचाई पर वैज्ञानिक उपकरण भेजकर यह पता लगाया कि अंतरिक्ष किरणें एक विशेष पट्टिका के रूप में प्रतीत होती हैं। इन्हें ‘विकिरण पट्टिका’ कहते हैं। इन विकिरण पट्टयों में इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन होते हैं। पट्टियों के अंदरूनी भाग के इलेक्ट्रॉनों की ऊर्जा बीस हजार वोल्ट से छः लाख वोल्ट तक होती है। तथा प्रोटॉन की ऊर्जा लगभग चार सौ करोड़ इलेक्ट्रॉन वोल्ट के बराबर होती है। यह विकिरण पट्टिका पृथ्वी से लगभग साढ़े तीन हजार किलोमीटर की ऊंचाई पर पाई जाती है।
विकिरण पट्टियों के बाहरी भाग में प्रायः मृद विकिरण ही पाया जाता है। नवीन खोजों से पता चल है कि बाह्य विकिरण पटूटी पृथ्वी के तंतु चुम्बकीय क्षेत्र में पाई जाती है, जिसमें केवल एक लाख से भी कम ऊर्जा वाले इलेक्ट्रॉन पाए जाते हैं। अमेरिका द्वारा भेजे गए अंतरिक्ष अनुसंधान यान पायनियर-4 से प्राप्त जानकारी के अनुसार बाह्य विकिरण पट्टियों का स्थान व उनकी तीव्रता में समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है। अंतरिक्ष विकिरण में कई कण पाए जाते हैं। इनमें से पाजिट्रॉन कणों की खोज सन् 1932 मेंएण्डरसन नामक वैज्ञानिक ने की थी। दूसरे प्रकार के कण इलेक्ट्रॉन है, जिनकी वजह से समय-समय पर अंतरिक्ष किरण वर्षा होती रहती है। इसके अलावा इनमें प्रोटॉन, नयूट्रॉन, अल्फा, गामा किरणे तथा मेसान भी विद्यमान रहते है। मेसान कई प्रकार के होते हैं तथा अधिकाश अस्थायी और सीमित समय मे नष्ट हो जाते हैं।
विभिन्न खोजो से यह पता चल गया है कि अंतरिक्ष किरणें अन्य किरणों से भिन्न होती हैं और इनके अंदर-बाहर स्थायी, अस्थायी, हलके तथा भारी अनेक कण और तत्वों के केन्द्रक पाए जाते हैं, परंतु अब तक इनके उद्गम का ठीक-ठीक पता नहीं चल सकता है। कुछ वैज्ञानिक इनका उद्गम अंतरिक्ष से, तो कुछ सूर्य से
बताते हैं। कुछ का मत है कि ये किसी आकाशगंगा से आती हैं परंतु अब तक किसी भी उद्गम के बारे में ठीक प्रमाण नहीं मिल पाया है। वैज्ञानिक अब तक इन पर नियंत्रण भी नहीं पा सके हैं ताकि भविष्य में इनका शक्ति के रूप मे कही इस्तेमाल किया जा सके। ऐसा अनुमान है कि इन पर नियंत्रण कर इनका उपयोग विद्युत के स्थान पर तथा वाहनों में ईंधन की तरह भी किया जा सकता है। इतना तय है कि ब्रह्माण्ड में अंतरिक्ष किरणों का असीम भण्डार है।
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