अंडमान निकोबार भारत के दक्षिण-पूर्व में स्थित बंगाल की खाडी के बीच अनेक छोटे छोटे द्वीपों का एक समूह है। वास्तव में यह द्वीप-समूह एक अत्यन्त रमणीक स्थल का अनुभव कराते हैं, और केवल इतना ही नहीं, अपितु इनकी गोद में प्राकृतिक धन के इतने बहुमूल्य कोष छिपे हैं, जिनका यदि ठीक उपयोग किया जाये तो यह द्वीप किसी प्रकार भी एक स्वर्ग से कम नहीं। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं, बल्कि संसार के उन विद्वानों ने, जिन्होंने कभी इस भूमि की यात्रा की है, मुक्त कण्ठ से इन द्वीपों की सराहना की है। जो लोग एकान्त वास तथा प्रकृति की गोद में रहना अधिक पसन्द करते हैं, उनके लिये तो यही भूमि सर्वगुण सम्पन्न स्थान है। विशेष कर नव-विवाहित जोड़ों के लिये, जो विवाह के पश्चात कुछ दिन किसी एकान्त तथा शांति-पूर्ण स्थान पर बिताना चाहते हैं, यह स्थान प्रत्येक दृष्टि से उपयुक्त है। इन द्वीपों में जाने कितनी नस्लों के लोग रहते हैं। हर धर्म तथा हर रुचि के नारी पुरुष यहां देखने को मिलते हैं, और जाने कितने प्रकार की भाषाएं यहां बोली जाती हैं। इसका यह मतलब नहीं, कि यहां के लोग अत्यन्त संकुचित ढंग के हैं, अपितु यहाँ की जन-संख्या इतनी कम है, कि यदि सभी द्वीपों के लोगों की गिनती की जाये, तो चार साढ़े लाख से अधिक संख्या उनकी नहीं है। इस संख्या में अंडमान निकोबार के आदिवासी जनजाति भी शामिल हैं, जो कि बहुत ही कम हैं। इस से पूर्व, कि अंडमान निकोबार की आदिवासी जनजाति के लोगों के जनजीवन बारे में कुछ कहा जाये, इस भूमि-खण्ड की भौगोलिक स्थिति तथा यहां का कुछ इतिहास जान लेना बड़ा आवश्यक है।
अंडमान निकोबार की आदिवासी जनजाति व निवासी
कलकत्ता नगर से इस द्वीप समूह की दूरी 800 मील तथा मद्रास नगर से लगभग 760 मील है। बर्मा की राजधानी रंगून इसके बहुत निकट है और जिसकी अधिक से अधिक दूरी लगभग साढ़े तीन सौ मील है। वैसे तो अंडमान निकोबार पांच बड़े द्वीपों का समूह माना जाता है, जिनके नाम उत्तरी अंडमान, मध्य-अंडमान, दक्षिणी-अंडमान, रिटलैण्ड तथा बारातुंग हैं, परन्तु आम तोर से इन द्वीपों को तीन भागों में ही विभाजित किया गया है, जैसेउत्तरी, मध्य तथा दक्षिणी अंडमान। इनके अतिरिक्त अन्य भी कई छोटे छोटे द्वीप इस में शामिल है। पोर्ट-ब्लेयर, एलफिन्स्टन, कारनिवास, वानिंगटन आदि यहां की विशेष बन्दरगाहें हैं, परन्तु पोर्टब्लेयर का महत्त्व इन सब में अधिक माना गया है।
कई लोगों का विचार है, कि जलवायु की दृष्टि से अंडमान निकोबार के टापू रहने के योग्य नहीं, क्योंकि इनका मनुष्य के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। पर यह केवल उनका भ्रम है। हां, इतना कहा जा सकता है, कि भूमध्य- रेखा के निकट होने के कारण ये गरम हैं तथा इनमें नमी का अभाव है, परन्तु इसका स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ता, वैज्ञानिक विशेषज्ञों ने इस कथन की पुष्टि की है, और इस बात को सिद्ध भी किया है, कि यहां के जलवायु का स्वास्थ्य पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। वर्षा इन द्वीपों में खूब होती है, जिसका वार्षिक माप लगभग 34 इंच है। इसलिये यहां की भूमि खेती के लिये स्वर्ग योग्य है। वैसे इन द्वीपों का काफ़ी भाग पहाड़ी है, परन्तु खेती योग्य भूमि भी यहां पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध की जा सकती है। मनुष्य के प्रभाव से उसे अभी इस योग्य तो नहीं बनाया जा सका, पर यदि आवश्यकता हो तो यहां इतनी भूमि है, जो पांच छः लाख व्यक्तियों के बड़े से बड़े परिवारों का गुजारा आसानी से चल सकता है।
जहां तक अंडमान निकोबार द्वीप-समूह के इतिहास का सम्बन्ध है उसके प्रति अधिक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि काफ़ी खोज के पश्चात भी यहां का प्राचीन इतिहास अभी कोई मालूम न कर सका। इसका एक कारएण। है, कि यहां जमीन, समुंद्र, आकाश तथा अंडमान निकोबार के आदिवासी जनजाति के अतिरिक्त कोई भी ऐसा अवशेष नहीं दिखाई पड़ता, जिसको आधार मान कर उसके बारे रे में कोई निश्चयात्मक बात कही जा सके। इसलिये यह कहना ठीक ही होगा कि पुरातन युग में यह द्वीप मानव-शून्य ही रहे होंगे। जो लोग यहां के वास्तविक वासी कहे जाते हैं, उनके बारे में यह बिल्कुल पता नहीं चलता, कि वे कब तथा कैसे इन द्वीपों में पहुंचे ? उनकी जाति अथवा धर्म क्या था ? इस बारे में इतिहासकारों के जो अनुमान हैं, वह भी निश्चयात्मक रूप से नहीं कहे गये। वैसे उन का विचार है, कि यह लोग सम्भवत: दक्षिणी- चीन के आदिवासी जनजाति से थे। जाने किन परिस्थितियों वश इन्हें अपना देश छोड़ना पड़ा।
इनके देशान्तर्गमन के बारे में भी विद्वानों के अनेक मत हैं। कोई कहता है, कि ये लोग दक्षिणी-चीन में बसने वाले किन्हीं आदिवासी जनजाति के व्यापारी-वर्ग से सम्बन्धित थे। इनका व्यापार समय के अनुसार उस समय काफी उन्नतिशील होगा, तथा ये लोग समुद्र के रास्ते भी व्यापार करते होंगे। हो सकता है, कि उन्हीं व्यापारी लोगों को समुद्र यात्रा के समय किसी ऐसी प्राकृतिक घटना का शिकार होना पड़ा हो, जिससे इनकी नौकायें आदि नष्ट-भ्रष्ट हो गई हों, और उनमें से कुछ ने इस द्वीप पर पहुंच कर अपने प्राणों की रक्षा की हो, और फिर यही इनका एक मात्र देश बन गया हो। क्योंकि यहां से निकल कर हज़ारों मील दूर अपनी मातृ-भूमि में पहुंचने के साधन जुटाना इनके लिये यहां असम्भव हो गया होगा। आवश्कता के साधनों के अभाव ने इन्हें विवश कर दिया होगा, कि ये लोग अपना आगे का जीवन आदिवासी जनजाति के रूप में व्यतीत करें और किसी प्रकार अपने जीवन की रक्षा करें। कुछ विद्वानों का विचार है, कि ये लोग दक्षिणी चीन के आदिवासी तो थे, परन्तु हो सकता है, कि संसार की किसी श्रेष्ठ या सभ्य जाति ने इन्हें इनकी मातृ-भूमि से निकाल दिया हो और फिर अन्य किसी स्थान पर भी दूसरी जातियों ने इन्हें न टिकने दिया हो। इस प्रकार यह निरन्तर अपने लिये कोई सुरक्षित स्थान ढूंढते हुये अनेक दिशाओं को चल दिये हों, और उन्हीं में से कुछ समुंद्र की यात्रा पर चल पड़े हों, और यहां आ कर बस गये हों।
क्योंकि इस से पूर्व तो अंडमान निकोबार द्वीपसमूह के बारे में किसी को कुछ पता न था। संसार में इसका नाम तक न था। कोई न जानता था, कि खाड़ी बंगाल की नील-वर्ण गोद में इस टापू का भी अस्तित्व है। वैसे इस का उल्लेख आज से लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व के ग्रन्थों में कहीं कहीं मिलता है। परन्तु यह निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता कि यह वही टापू है या कोई दूसरा, इस बारे में अभी खोज जारी है। विद्वानों का मत है कि आज से लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व जब भारतीय राजाओं ने अपने देश की संस्कृति तथा धर्म का भारत से बाहर प्रचार करने के उद्देश्य से, विदेशों को प्रस्थान किया और वहां अपनी नौ- आबादियाँ स्थापित की, तब समुद्र के मार्गों से भी गये। हिन्देशिया आदि द्वीपों के लिये उन्होंने समुद्र द्वारा ही प्रस्थान किया, और तब सम्भवतः उन्हें इन द्वीपों में भी ठहरना पड़ा था। परन्तु आश्चर्य की बात है, कि संसार के अन्य पिछड़े हुये देशों में भारतीय संस्कृति और सभ्यता का प्रचार करने के लिये जाने वाले भारतीयों ने यहां के पिछडे हुये मानव में सभ्यता का जीवन फूकने हेतु का तनिक भी प्रयास नहीं किया। एक बार ही नहीं, अनेक बार वे यहां ठहरे, पर न जाने उन्होंने इनके जीवन को सभ्य बनाने का विचार क्यों न किया?
यहां कोई भी ऐसा प्राचीन अवशेष देखने को नहीं मिलता, जिस से यह ज्ञात हो पाता, कि उन्होंने इसके लिए प्रयास तो किया था, परन्तु परिस्थितियों ने उसे सजीव होने का अवसर नहीं दिया और वह मिट गईं। न तो यहां कोई प्राचीन मन्दिर देखने को मिलता है और न कोई अन्य स्रोत यहां प्राप्त हुआ है, जिस से कि यहां की प्राचीन कहानी के प्रति कुछ थोड़ी बहुत जानकारी प्राप्त की जा सकती। यहां तक कि इन के रहन-सहन, खान-पान, काम-धन्धा आदि विषयों में भी उसकी कोई झलक दिखाई नहीं पड़ती। अब प्रश्न उठता है, कि ऐसा क्यों हुआ? क्या इसलिये कि वहां पर बसने वाले लोग बहुत कम-संख्या में थे? और क्या इसलिये कि यहां पर ठहरने वाले प्रचारकों ने इन आदिवासियों को घृणा की दृष्टि से देखा और इसलिये उनका उपहास कर दिया ?
अंडमान निकोबार की आदिवासी जनजातिपरन्तु यह दोनों बातें सत्य नहीं हो सकतीं, क्योकि इस कथन में वास्तविकता का अभास नहीं हो पाता। पहली चीज़ तो यह है, कि यदि उन की आबादी बहुत ही कम थी, जैसे सौ, दो सो, या चार सौ, तो ऐसी अवस्था में तो उन लोगों को सजीव करने के लिये अधिक यत्न भी नहीं करने पड़ते, क्योंकि पिछड़े हुये लोग तो सदा निहारा करते हैं, कि वे अपनें उस नारकीय जीवन से शीघ्रातिशीघ्र निकलें और सभ्य बनें। अंडमान निकोबार की इन आदिवासी जनजाति को भी यदि कोई गले लगाता, तो वे अवश्य ही उनका स्वागत करते, और उस संस्कृति के अनुयायी हो कर अपने आप को सभ्य बना सकते। कई इतिहासकारों का ऐसा मत है, कि उन्हें किसी ने गले नहीं लगाया। दूसरों को देख कर भी वे अशिक्षा वश अपने आप को उठा पाने के साधन नहीं जुटा पाये। इस प्रकार वे पिछड़े तो थे ही, तथा आने वाले समय ने जब उनकी कोई परवाह न की तो वे पिछड़ते ही चले गये झौर अन्त में इतने अधिक पीछे रह गये, कि समय उन से काफी कोस आगे निकल गया।
कुछ इतिहासकारों का मत है, कि वे इतने अधिक असभ्य थे, जो उन्होंने सभ्यता के प्रकाश को स्वीकार ही नहीं किया, और अंधेरे में ही रहना उन्हें भला लगा। आने वाले प्रत्येक प्रकाश को उन्होंने अनादरकी दृष्टि से देखा, और इसलिए वे पीछे रह गये। इन उंगलियों पर गिने जाने वाले आदिवासी जनजाति के लिये समय ने अधिक प्रतीक्षा नहीं की, और वह इन से दूर हो कर आगे निकल गया। क्योंकि आगे एक और विशाल आदिवासी जनजाति असभ्यता के अंधकार में पड़ा छटपटा रही थी। उसे एक प्रकाश की आवश्यकता थी, और जब बढ़ता बढ़ता यह प्रकाश उनके निकट पहुंचा, तो उनकी दुनियां में उजाला हो गया। उस उजाले में जब उन्होंने अपनी दीन अवस्था को देखा तो वे व्याकुल होकर अपना उद्धार करने को प्रकाश की शरण में आ गये। उस प्रकाश की शरण में,जो उनके अंधकार-पूर्ण जीवन में उजाला ले कर आया था। उनके सुप्त हृदय के लिये जाग्रति का सन्देश ले कर आया था। उनकी मरती हुई आत्मा को जीवन-दान देने आया था।
अंडमान निकोबार निवासियों ने उसका आदर नहीं किया, इसलिए वे पीछे रह गये, और यह ठीक है, कि समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। निरन्तर बढ़ते जाना ही उसका स्वभाव है इसलिये वह बढ़ता जाता है। उसके साथ बहने वाले गुण भी, यदि उन्हें कोई न तोड़े, तो उसके साथ ही चिमटे चले जाते हैं। यह आदिवासी भी पिछड़ गए, और यहां तक अंधेरे में चले गये कि बिल्कुल हब्शी हो गये। इन का जीवन बिल्कुल जंगली हो गया। ये लोग अपने पुरातन काल को भी भूल गये। इनका कोई धर्म न रहा। संसार की समस्त देन पर से इनका विश्वास उठ गया। और एक समय ऐसा आया कि ये लोग संसार के सब से पहले मानव की तरह पशु बन गये। सारा दिन पापी पेट की आग बुझाना ही इनका एक मात्र धन्धा रह गया। इनका कोई समाज न रहा और ये लोग पथ-भ्रष्ट हो कर पूर्ण रूप से असभ्य हो गये।
समय समय पर सभ्य जातियां यहां आती रहीं है, ऐसा इतिहासकारों का मत है। पहले हिन्दू धर्म के सभ्य लोग यहां आये, फिर बौद्ध, इस्लाम और इसाई। इन लोगों ने बड़ी चेेष्ठा की कि यह किसी न किसी धर्म की शरण लें, परन्तु ऐसा न हो सका। हिन्दू काल के पश्चात जब बौद्ध-युग आया तो उसने असीम उन्नति की, और वह भारत ही नहीं, अपितु इस से बाहर के एशियाई देशों में भी बड़ी तेजी से फैलता चला गया। बौद्ध धर्म के प्रचारकों ने इस द्वीप की अनेक बार यात्रा की, क्योंकि अन्य देशों को आते जाते समय वे लोग इस द्वीप में विश्राम अवश्य लिया करते थे, और यह द्वीप उनके जहाज़ों का पड़ाव काफ़ी समय तक रहा, इस से अधिक कुछ नहीं।
इतना कुछ होते हुये भी दुनियां ही नहीं, अपितु स्वयं भारत के आम लोग भी इस द्वीप के अस्तित्व के प्रति पूर्ण अनभिज्ञ ही रहे। अठारहवीं शताब्दी के अस्त में इस के प्रति लोगों को कुछ कुछ जानकारी प्राप्त हुई थी। इसके पश्चात जब अंग्रेजों के भाग्य का सितारा उदय हुआ, और वे बड़े वेग मे अपने साम्राज्य को बढ़ाने की चेष्टा करने लगे, तो सन् 1798 में अंग्रेजी नौसेना के प्रसिद्ध कप्तान मिस्टर “आर्चीव्रोल्ड ब्लेयर” ने अंडमान निकोबार द्वीप- समूह को अपने अधिपत्य में ले लिया और यहां एक नवीन नगर की स्थापना की। मिस्टर ब्लेयर को वास्तव में यह स्थान बडा ही पसन्द आया था और इतना ही नहीं, बल्कि उसके विचार में साम्राज्य की रक्षा के लिये भी यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान था। इसके अतिरिक्त जलयानों को कोयला आदि प्राप्त कराने के लिये भी उसने इसे एक बड़े काम का अड्डा विचार किया।
इसके पश्चात ही अंडमान द्वीपों की वास्तविक तथा उन्नतिशील कहानी प्रारम्भ होती है। सब से पहले तथा नवीन नगर का जन्म ही द्वीपों की काया पलट करने का सब से पहला दृढ़ प्रयास था, जिससे यहां का उन्नति-शील इतिहास शुरू होता है। किन्तु अभी बहुत कुछ होने को शेष था। कप्तान ब्लेयर ने जिस नगर को बसाने की योजना बनाई थी उसे अभी साहस-पूर्ण उन्नति नहीं मिली थी, बल्कि वह केवल एक छोटी बस्ती अर्थात् गांव के रूप में ही रह गया था। सन् 1858 में अंग्रेंजों के कदम भारत खण्ड पर अच्छी तरह जमने लगे, तब अंग्रेज़ी सरकार को इस द्वीप का महत्त्व विशेष रूप से दृष्टिगोचर हुआ। उस दिन यह सोचा गया कि कप्तान ब्लेयर क्यों इस उजाड़ तथा छोटे से द्वीप को पूरी तरह बसाने पर जोर देता था ?
समय ने अंडमान निकोबार द्वीप को नव-जीवन का सन्देश दिया। और उसी समय वहां पहले नींव रखे गये ग्राम को आबाद करने का कार्यक्रम प्रारम्भ हो गया। उचित प्रयास ने थोड़े ही दिनों में उस गांव-रूपी आबादी को एक छोटे से नगर का रूप दे दिया। और अपने स्वर्गीय कप्तान की स्मृति जीवित रखने के लिये भारत की अंग्रेज़-सरकार ने इसे पोर्ट-ब्लेयर के नाम से अंडमान निकोबार द्वीपसमूह की राजधानी घोषित कर दिया। कई अंग्रेज़ यहां आकर आबाद हो गये। और इस शांतिपूर्ण द्वीप में यह नगर अपनी अनुपम शोभा से आने जाने वाले समुद्री यात्रियों के नेत्र चका-चौंध करने लगा।
सन् 1857 में जब भारतीय जनता ने अंग्रेजों के अत्याचारों से तंग आकर इनके विरुद्ध क्रांति की जंग लड़ी और हार गई, तब उनके नेताओं को कैद करके इस द्वीप की जेल में लाया गया। इस कार्य के लिये अंग्रेज़ी सरकार ने इस द्वीप में एक विशाल जेल तैयार की थी, जो कि भारत के इतिहास में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस जेल में केवल उन राजनेतिक सैनिक नेताओं को बन्द किया गया था, जिन्होंने इस क्रांति में विशाल-भारत को अंग्रेजों के हाथों से स्वतन्त्र कराने की प्रतिज्ञा की थी। जेल में उन सैनिक कैदियों पर बड़े बड़ अत्याचार ढाये गये, जिस से पीड़ित होकर अनेक देश-भक्तों ने यहां अपने प्राण दे दिये।
इस क्रांति की समाप्ति के पश्चात भारत के आयु-पर्यन्त कैद किये जाने वाले कैदियों को भी यहीं भेजा जाने लगा, और फिर एक समय ऐसा आया कि लोग इसे “काला पानी”” के नाम से याद करने लगे। सन् 1857 के राजनेतिक बन्दियों पर होने वाले अत्याचारों ने भारत के सभी लोगों के दिल में एक ऐसा भय उत्पन्न कर दिया था, कि यदि किसी कैदी को यह पता चल जाता कि उसे काला पानी भेजा जायगा, तो मारे भय के उसके प्राण सूख जाते थे। इसी प्रकार अनेक दुष्ट कैदियों को यहां लाया गया। और फिर एक समय आया, जब अत्याचारों में कुछ अभाव हुआ। इस तरह उनके साथ किये जाने वाले दुष्ट व्यवहार काफ़ी नरम कर दिये गये। अच्छे चलन से रहने वाले कैदियों को कई सुविधाएं भी दी जाने लगी। इन कैदियों में भारत की वे नारियां भी थीं, जिन्हें भयानक अपराध करने के बदले कैद करके यहां लाया जाता था, किन्तु नारियों को इस स्थान पर लाने की योजना बाद में बनाई गई थी। अन्य कैदियों के साथ साथ इन स्त्रियों पर भी कड़ी दृष्टि रखी जाती थी। नारियों के रहने के लिये यहां जेल में अलग प्रबंध था,
परन्तु पुरुष कैदियों के साथ मिलने के लिये उन पर कोई विशेष पाबन्दी नहीं थी।
नेक-चलन स्त्री तथा पुरुष कैदियों को बाद में जेल से छोड़ कर छोटे छोटे गांवों में बसा दिया जाता था। परन्तु इन्हें यह रिहाई तभी प्राप्त होती थी, जब तक कि वे अपना विवाह न कर लें। कैदी पुरुषों को कैदी स्त्रियों के बीच से एक दूसरे को चुन कर विवाह करने की आज्ञा थी। परन्तु विवाह के लिये परस्पर दोनों की अनुमति बड़ी आवश्यक होती थी। विवाह करने के पश्चात जेल से रिहा करके जब इन्हें किसी गांव में आबाद कर दिया जाता था, तब गांव से आप ही इनके जीवन-यापन हेतु किसी न किसी धन्धे का भी प्रबन्ध हो ही जाता था। क्योंकि जो कार्य भी इन्हें जेल में सिखाये गये होते थे, उन्हीं में से किसी एक को यह लोग अपना रोज़गार बना लेते थे। इन धन्धों में नाई, धोबी, जुलाहे, मकान आदि बनाने वाले, लोहार, बढ़ई आदि कारीगरों के धन्धे प्राय: देखने को आते हैं। इसके अतिरिक्त जिन लोगों को काश्तकारी का कार्य सिखाया गया था, उनके लिये खेती योग्य धरती का भी प्रबन्ध कर दिया जाता था। यह धरती इन कैदियों को आवश्यकता अनुसार दी जाती थी।
गांवों में बसने के पश्चात भी इन लोगों पर कड़ी दृष्टि रखी जाती थी। यदि कोई भी व्यक्ति किसी प्रकार का जुर्म या शरारत करता तो उसे दण्ड दिये जाते थे। शाम को आठ बजने के पश्चात किसी व्यक्ति को भी अपने घरों से बाहर जाने की आज्ञा नहीं थी। यदि कोई कार्य-विशेष हो भी, तो सरकारी आज्ञा प्राप्त करना अनिवार्य था। इसके अतिरिक्त जो भी व्यक्ति अपने रिश्तेदारों या मित्रों से मिलने दूसरे गांव को जाता था, उसे भी जेलर अथवा ग्राम के मुख्य चौकीदार से परमिट लेना पड़ता था, बिना परमिट के गांव की सीमा को पार करना अपराध समझा जाता था,ऐसी पाबन्दियों से उनके अपराधी जीवन इस प्रकार सुधरे हैं, जिन्हें देखने पर ऐसा लगता है मानो न तो उन्होंने कभी कोई अपराध ही किया था, और न ही वे कभी कोई दुष्ट कर्म कर ही सकते हैं।
उनके अपराधी जीवन को सुधारने तथा फिर से एक नया जीवन प्रारम्भ कर सकने की जो सुविधायें इन्हें मिली हैं उनके लिये यह अपने आपको भाग्यशाली समझते हैं। और आप सच मानिये, कि जितना सुखी तथा शांतिमय जीवन आज इनका है, उतना शेष भारत में रहने वाले लोगों को प्राप्त नहीं है। अपराध तो वहां होते ही नहीं। किसी भी प्रकार का झगड़ा या लड़ाई इन में नहीं होता सभी मिलजुल कर रहते हैं। सब से आनन्द की बात तो यह है, कि यह सब अपने आप को एक नवीन जाति समझने लगे हैं, जिन में हिन्दू मुसलमान, सिख इसाई सब धर्मो के अनुयायी हैं। अलग अलग धर्मो से सम्बन्धित होते हुए भी ये लोग अपने आप को एक ही वंश के समझते हैं, और इनका यह मेल इतना दृढ़ है, कि पहचान करना कठिन सा लगता है, कि इन में कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान। इसके अतिरिक्त ये लोग अपने आप को भारत का नागरिक समझने में गर्व अनुभव करते हैं। इनके सामने यदि कोई अंडमान निकोबार द्वीप समूह की बुराई करे तो इन्हें दुःख तो अवश्य होता है, परन्तु इतना दुःख नहीं होता, जितना कि किसी के भारत-वर्ष की उपेक्षा करने पर।
अब तो सरकार इन्हें सुशिक्षित करके उन्नतिशील बनाने की ओर बड़ा ध्यान दे रही है, क्योंकि आज भारत विदेशियों के अधिकार में नहीं, बल्कि पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है, भौर यहां उसका अपना राज्य है। इन लोगों को अधिक उन्नत करने के लिये सरकार अब निःशुल्क उच्च शिक्षा का प्रबन्ध भी कर रही है। ताकि ये लोग अपने देश को आगे ले जाने में देश की कुछ सहायता कर सकें। इसके अतिरिक्त सरकार ने पाकिस्तान से आये हुये कुछ शरणार्थियों को भी यहां आबाद किया था, तथा उन्हें आवश्यकतानुसार सहायता भी दी थी। इन लोगों के रहने के लिये सरकार ने ऐसा प्रबन्ध किया है, जिसे पाकर ये लोग पूर्ण रूप से संतुष्ट हैं।
इतना ही नहीं, इनके साथ बल्कि उन थोड़े से आदिवासी जनजाति की दशा सुधारने तथा उन्हें हर प्रकार से सभ्य बनाने का भी प्रयत्न किया जा रहा है, जिनकी ओर आज तक किसी ने भी आंख तक न उठाई थी। ओर ऐसा करने में हमारी सरकार एक सीमा तक सफल भी हो पाई है। वैसे तो यहा कई प्रकार की भाषाएं बोलने वाले लोग बसते हैं, परन्तु फिर भी यहां के लोग प्रायः हिन्दुस्तानी भाषा ही बोलते हैं। कुछ आदिवासी जनजाति ने भी अब इस भाषा को सीख लिया है। अब अंडमान निकोबार कैदियों का देश नहीं रहा, और न ही वह किसी आदिवासी जनजाति का देश है। आज तो वहां रहने वाले सभी लोग भारत के श्रेष्ट नागरिक हैं। अब कोई इसे ‘काला पानी” के नाम से याद नहीं करता, बल्कि आज तो इसे भारत विशाल का ही एक अंग समझा जाता है। और इसका भी हमारे लिये अब॒ उतना ही महत्त्व है, जितनाभारत वर्ष में स्थित एक एक कण का। हमें गर्व है कि आज अपने प्रयत्न द्वारा हमने इस पिछड़े हुये अपने एक अंग को सम्भाल लिया है। ओर उसे एक ऐसे प्रकाश में ला कर खड़ा कर दिया है, जहां निराशा नहीं, बल्कि चारों ओर आशा ही आशा दिखाई पड़ रही है।
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